14 दिसंबर को पटना हाई कोर्ट ने राजद के पूर्व विधायक राजबल्लभ यादव को नाबालिग से रेप के मामले में बरी कर दिया और इस तरह उन्हें लंबे समय की जेल की कैद से रिहाई मिली लेकिन नीतीश कुमार की सरकार ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि उनके खिलाफ वह सुप्रीम कोर्ट जाएगी।

इस वजह से यह चर्चा शुरू हो गई कि आखिर राजद के एक पूर्व विधायक पर सरकार इतनी नरमी क्यों दिखा रही है। वैसे तो बिहार में भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड के दागी नेताओं की कमी नहीं है लेकिन राजबल्लभ के मामले में राजनीति कुछ इस तरह चल रही है कि उनके जदयू में संभावित तौर पर शामिल होने की अटकलों का बाजार गर्म है। पिछले दिनों आनंद मोहन और अनंत सिंह जैसे दो बाहुबली नेताओं ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ मुलाकात की थी तो सोशल मीडिया में इसकी काफी आलोचना हुई थी।

ऐसे में बहुत से लोग यह सवाल भी कर रहे हैं कि क्या नीतीश कुमार ने राजबल्लभ यादव को ग़लत तरीक़े से फँसाया था या वह उन्हें अब ग़लत तरीक़े से रेप जैसे गंभीर मामले में नरमी दिखाकर अपनी और आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। इस बात को समझने में यह जानकारी मददगार होगी कि जदयू के पूर्व एमएलए और नवादा में पार्टी के मज़बूत स्तंभ माने जाने वाले कौशल यादव ने पिछले दिनों आरजेडी का दामन थाम लिया था और वहां नीतीश कुमार की पार्टी एक मजबूत नेता की तलाश में थी। राजबल्लव यादव एक बाहुबली और यादव समाज के प्रभावी नेता माने जाते हैं।

राजबल्लभ यादव का केस क्या?

इस पर और चर्चा से पहले यह जान लेते हैं कि राजबल्लभ यादव का मामला क्या है। यह मामला 6 फरवरी 2016 से शुरू होता है जब नालंदा जिले के रहुई थाना क्षेत्र की एक 15 वर्षीय किशोरी ने बिहार शरीफ के महिला थाने में राजबल्लव यादव पर बलात्कार का आरोप लगाया था। उनके ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार) 120 बी (आपराधिक साजिश) और पोक्सो अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया था। 

15 दिसंबर 2018 को निचली अदालत ने राजबल्लभ यादव को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद और ₹50000 के जुर्माने की सजा सुनाई थी। इस सजा के बाद उनकी विधायकी खत्म हो गई और राजद ने उन्हें पार्टी से सस्पेंड कर दिया था।

अब पटना हाई कोर्ट ने यह कहते हुए राजबल्लभ यादव को रिहा करने का आदेश दिया कि अभियोजन पक्ष पीड़िता के आरोपों को संदेह से परे साबित करने में कामयाब नहीं हुआ। हाई कोर्ट का कहना था कि मेडिकल जांच में पीड़िता के साथ जबरन बलात्कार के सबूत नहीं मिले और अभियोजन पक्ष यह भी साबित नहीं कर सका कि पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम थी। 

पीड़िता के परिवार वालों का कहना है कि उनके मामले में सरकार केस लड़ रही थी और सरकार को ही सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए क्योंकि उनके पास यह क्षमता नहीं है कि वह सुप्रीम कोर्ट जाकर यह केस लड़े।

एमपी-एमएलए कोर्ट से भी बरी

यह भी अजीब इत्तेफाक है कि हाई कोर्ट से बरी होने के 6 दिन बाद एमपी-एमएलए कोर्ट ने भी एक आपराधिक मामले में राजबल्लभ यादव को बरी कर दिया। पैसे के लेन-देन के विवाद में उन पर मुकदमा दायर कराया गया था। बताया जाता है कि इस मुकदमे में पक्षकारों ने आपसी समझौता कर लिया था। इस समझौते के आधार पर एमपी- एमएलए की विशेष अदालत ने राजबल्लभ यादव को बरी कर दिया। 

इतना तो तय हो गया कि नीतीश कुमार की सरकार हाई कोर्ट में राजबल्लभ यादव के खिलाफ पुख्ता सबूत पेश करने में नाकाम रही। बिहार में अब इस बात पर बहस हो रही है कि यह नाकामी दरअसल पुलिस प्रशासन के नाकारापन की वजह से है या इसमें राजनीतिक मिलीभगत है। 

राजबल्लभ का राजनीतिक झुकाव

इस बहस के पीछे एक और राजनीतिक कारण है जो 2024 के लोकसभा चुनाव से जुड़ा हुआ है। जेल में रहते हुए राजबल्लभ यादव अपने भाई के लिए नवादा लोकसभा सीट से आरजेडी का टिकट चाह रहे थे। जब उन्हें आरजेडी का टिकट नहीं दिया गया तो उनके भाई ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और आरोप है कि उस समय के भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा उम्मीदवार विवेक ठाकुर को इससे काफी मदद मिली। उस समय से ही यह माना जा रहा था कि राजबल्लव यादव की पत्नी और राजद की विधायक विभा देवी का झुकाव जदयू की तरफ हो रहा है। यही नहीं राजबल्लभ के परिवार के एक और सदस्य स्थानीय निकायों वाली सीट से एमएलसी बने अशोक यादव ने भी नीतीश कुमार की शरण ले ली।
इस झुकाव को लोग अब इस रूप में देख रहे हैं कि दरअसल सरकार ने राजबल्लभ को जेल से छुड़ाने की व्यवस्था करने का वादा किया था हालांकि इसके लिए कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है। इधर कौशल यादव के राजद में शामिल होने के बाद राजबल्लभ यादव की जदयू से नजदीकी बढ़ाने को और स्वाभाविक माना जा रहा है। 

राजबल्लभ यादव पर जब रेप के केस में सजा हुई तो भारतीय जनता पार्टी ने उस राजद की बहुत आलोचना की थी। अब राजबल्लभ को बरी करने के बाद बीजेपी की ओर से रेप के मामले में ना तो कुछ कहा जा रहा है और ना ही ‘रेप की पीड़िता’ के समर्थन में कोई बयान दिया जा रहा है। इससे भी राजबल्लभ के मामले में सरकार की ढिलाई की चर्चा हो रही है।

दबंगों पर नीतीश सरकार का रवैया

अपराध से कोई समझौता नहीं करने का दावा करने वाले नीतीश कुमार का ऐसे दबंगों के साथ इस तरह के दोस्ताना रवैये की यह कोई पहले दास्तान नहीं है। यह बात तो पुरानी हो गई कि जब पहली बार उन्हें 7 दिन के लिए मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया गया था तब भी उन्होंने बाहुबली नेताओं से समर्थन लिया था लेकिन राजबल्लभ यादव से पहले अनंत सिंह का एक मामला सामने आया जिससे राजनीतिक कारणों से अपराध के मामले में नीतीश कुमार के समझौते की बात चर्चा में आई। 

अनंत सिंह केस

अनंत सिंह को आर्म्स एक्ट के तहत जेल जाना पड़ा था और उनकी पत्नी नीलम देवी आरजेडी से एमएलए बनी थीं। लेकिन जब नीतीश कुमार ने एक बार और पलटी मार कर आरजेडी का साथ छोड़ा और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ सरकार बनाकर एक बार फिर मुख्यमंत्री की शपथ ली तो विश्वास मत के दौरान नीलम देवी ने राजद को दगा देते हुए एनडीए का साथ दिया। फिर अनंत सिंह को भी हाई कोर्ट से बरी कर दिया गया और उस समय भी यह चर्चा हुई थी कि नीतीश कुमार की सरकार ने इस मामले में ढिलाई बरती ताकि पुलिस अनंत सिंह के खिलाफ पुख्ता सबूत पेश न करे। अगर इस आरोप को सही नहीं माना जाए तो फिर यह आरोप लगेगा कि अनंत सिंह को इसलिए सरकार ने झूठे मुकदमे में फँसाया क्योंकि उनकी पत्नी राजद के साथ थीं। अनंत सिंह के मामले में भी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट जाने का कोई संकेत नहीं दिया और ना ही उसने ऐसा किया। 

अनंत सिंह और राजबल्लभ यादव दोषी थे या नहीं, इसका फैसला तो अदालत में होगा लेकिन इस बात की चर्चा जरूर हो रही है कि नीतीश कुमार की सरकार ने जब इन दोनों को इतने गंभीर आरोपों में जेल में बंद किया था तो उनके खिलाफ पुख्ता सबूत के साथ हाई कोर्ट में अपना पक्ष क्यों नहीं रखा। नीतीश कुमार के विरोधी यह आरोप लगाते हैं कि दरअसल उनके लिए अपराधी वही है जो उनकी पार्टी में नहीं है। जिन लोगों को उनकी सरकार ने अपराधी माना, इत्तेफाक की बात है कि जब उनसे राजनीतिक लाभ लेने का मौका आया तो उसके बाद उनका अपराध साबित करने में नीतीश कुमार सरकार नाकाम रही।

राजबल्लभ यादव और आनंद सिंह के पहले बाहुबली नेता और गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी कृष्णैया हत्याकांड में जेल खट रहे आनंद मोहन को रिहा कराने के मामले में भी नीतीश कुमार पर इस तरह का आरोप लग चुका है।

आनंद मोहन केस

यह कहा जाता है कि आनंद मोहन को रिहा करने के बदले में नीतीश कुमार ने उनके बेटे चेतन आनंद से अपनी सरकार के लिए समर्थन लिया जबकि चेतन आनंद राजद के टिकट पर शिवहर से विधायक चुने गए थे। चेतन आनंद ने विश्वास मत के दौरान आरजेडी को ऐन वक्त पर दगा दिया और एनडीए के खेमे में शामिल हो गए।

सूर्यगढ़ा से राजद के विधायक प्रह्लाद यादव ने भी विश्वास मत के दौरान नीतीश कुमार का साथ दिया और यह आरोप लग रहा है कि तब से सरकार उनके आपराधिक रिकार्ड के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। हालांकि इस मसले पर जदयू के वरिष्ठ नेता, सांसद और केंद्रीय मंत्री ललन सिंह का रुख थोड़ा अलग है क्योंकि वह उन्हें बिना नाम लिए हुए लखीसराय का आतंक बताते हैं। 

इस मामले में बीजेपी पर भी सवाल उठते रहे हैं। उदाहरण के लिए सुनील पांडे का मामला लिया जा सकता है। सुनील पांडे पहले राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के साथ थे जिसकी अगुवाई पशुपति कुमार पारस कर रहे हैं। सुनील पांडे पर रंगदारी हत्या और आरा कोर्ट बम धमाके जैसे गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं लेकिन उन्हें भी सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। सुनील पांडे इस समय अपने बेटे विशाल प्रशांत के साथ भाजपा में हैं। विशाल प्रसाद ने भाजपा से टिकट लेने के बाद तरारी विधानसभा से उपचुनाव में जीत हासिल की थी।