छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में छात्रों से जबरन नमाज़ पढ़वाने का अजीबोगरीब मामला सामने आया है। 159 छात्रों में सिर्फ़ 4 मुस्लिम छात्र थे। सभी प्रोफ़ेसर से लेकर छात्र नेता और कैंप संचालक तक हिंदू। कुछ छात्रों ने शिकायत की कि उनको जबरन नमाज़ पढ़वाई गई। जिनपर आरोप लगे वे सभी प्रोफेसर व छात्र नेता भी हिंदू हैं।

दरअसल, गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय के एक राष्ट्रीय सेवा योजना यानी एनएसएस शिविर के दौरान हुए इस मामले पर बड़ा विवाद छिड़ गया है। 26 मार्च से 1 अप्रैल 2025 तक शिवतराई गांव में एनएसएस शिविर लगा था। आरोप है कि इसमें 159 छात्रों को ईद के दिन यानी 31 मार्च को नमाज पढ़ने के लिए मजबूर किया गया। इनमें सिर्फ़ चार मुस्लिम थे। इस मामले में सात प्रोफेसरों और एक छात्र नेता के ख़िलाफ़ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने और धार्मिक आधार पर दुश्मनी को बढ़ावा देने के आरोप में मामला दर्ज किया गया है।

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शिवतराई गाँव में आयोजित एनएसएस शिविर में योग और सामुदायिक सेवा जैसी विभिन्न गतिविधियाँ आयोजित की जा रही थीं। 31 मार्च को ईद-उल-फितर का दिन था। रिपोर्टों में कहा गया है कि कुछ मुस्लिम छात्रों ने स्कूल के मैदान में नमाज अदा की। शिकायत के अनुसार, शिविर के समन्वयक और प्रोफ़ेसरों ने ग़ैर-मुस्लिम छात्रों को भी नमाज में शामिल होने के लिए कहा और वह भी बिना उनकी सहमति के। कुछ छात्रों ने इसका विरोध किया, लेकिन उन्हें कथित तौर पर धमकी दी गई कि अगर उन्होंने नमाज में हिस्सा नहीं लिया तो उन्हें शिविर का प्रमाणपत्र नहीं दिया जाएगा, जो उनके शैक्षणिक रिकॉर्ड के लिए अहम है। 

इस घटना के बाद कुछ छात्रों ने कोनी पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई। उनकी शिकायत में दावा किया गया कि यह न केवल उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन था, बल्कि एक सुनियोजित प्रयास था जिसका उद्देश्य धार्मिक आधार पर प्रभाव डालना था। शिकायत के साथ कुछ दक्षिणपंथी संगठनों के सदस्य भी शामिल थे, जिन्होंने इस मामले को और अधिक तूल दिया। 'द फ्री प्रेस जर्नल' की रिपोर्ट के अनुसार पुलिस ने प्रोफ़ेसर दिलीप झा, मधुलिका सिंह, ज्योति वर्मा, नीरज कुमारी, प्रशांत वैष्णव, सूर्यभान सिंह, बसंत कुमार और छात्र नेता आयुष्मान चौधरी के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की है। प्रोफेसरों और छात्र के ख़िलाफ़ समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना, राष्ट्रीय एकीकरण के लिए हानिकारक दावे, जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कृत्य, जो किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करके आहत करने के इरादे से किए गए, किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के जानबूझकर इरादे से शब्दों का उच्चारण आदि और ग़ैरक़ानूनी सभा के तहत मामला दर्ज किया गया है।

इस घटना के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने त्वरित कार्रवाई करते हुए एक तीन सदस्यीय फ़ैक्ट फाइंडिंग टीम गठित की है, जो इस मामले की जांच कर रही है।

'द फ्री प्रेस जर्नल' की रिपोर्ट के अनुसार बिलासपुर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक राजनेश सिंह ने एक चार सदस्यीय समिति का गठन किया, जिसने अपनी जांच के बाद शनिवार को यह मामला दर्ज किया। कुछ छात्रों ने दावा किया कि नमाज में शामिल न होने पर उन्हें मानसिक रूप से दबाव डाला गया और उनके शैक्षणिक भविष्य को ख़तरे में डालने की धमकी दी गई।

एक रिपोर्ट के अनुसार विश्वविद्यालय के मीडिया प्रभारी एमएन त्रिपाठी ने कहा कि छात्रों ने एनएसएस समन्वयक और प्रोग्राम अधिकारियों पर जबरन धार्मिक गतिविधियों में शामिल करने का आरोप लगाया है। इसके जवाब में समन्वयक प्रो. दिलीप झा को निलंबित कर दिया गया और 12 प्रोग्राम अधिकारियों को उनके पद से हटा दिया गया।

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आरोपी प्रोफेसरों और छात्र नेता की ओर से अभी तक कोई औपचारिक सार्वजनिक सफाई या बयान सामने नहीं आया है। यह संभव है कि वे पुलिस जांच या विश्वविद्यालय की आंतरिक जांच के परिणामों की प्रतीक्षा कर रहे हों।

कुछ समाचार स्रोतों और सोशल मीडिया चर्चाओं में यह अनुमान लगाया गया है कि आरोपियों ने नमाज को एक 'सांस्कृतिक' या 'सामुदायिक एकता' की गतिविधि के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की हो सकती है। हालाँकि, इस दावे का कोई ठोस सबूत नहीं है और छात्रों ने साफ़ तौर पर इसे जबरदस्ती का मामला बताया है, जिसमें उनकी सहमति नहीं ली गई और विरोध करने पर धमकियाँ दी गईं।

सोशल मीडिया पर दावा किया गया है कि सभी सात प्रोफेसर और छात्र नेता हिंदू समुदाय से हैं, न कि मुस्लिम। यह जानकारी कुछ हद तक इस धारणा को चुनौती देती है कि यह घटना किसी विशेष धार्मिक समुदाय द्वारा प्रायोजित थी। हालांकि, आधिकारिक तौर पर इसकी पुष्टि नहीं हुई है।

कुछ लोगों का कहना है कि यह घटना संभवतः एक ग़लतफ़हमी का नतीजा हो सकती है और नमाज को एक सांस्कृतिक या एकजुटता की गतिविधि के रूप में पेश करने की कोशिश की गई थी। हालाँकि, इस तर्क को ज़्यादा समर्थन नहीं मिला, क्योंकि छात्रों की सहमति न लेना और धमकी देना गंभीर उल्लंघन माना गया।

यह घटना छत्तीसगढ़ और पूरे देश में धार्मिक संवेदनशीलता को लेकर एक बड़े विवाद का कारण बनी है। सोशल मीडिया पर इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रियाएँ आईं। कुछ यूजरों ने इसे “इस्लामी प्रभाव” का उदाहरण बताया, जबकि अन्य ने इसे अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ बढ़ती असहिष्णुता के रूप में देखा। दक्षिणपंथी संगठनों ने इस घटना को लेकर प्रदर्शन किए और कड़ी कार्रवाई की मांग की, जिससे मामला और अधिक राजनीतिक हो गया।

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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी एनएचआरसी में भी इस मामले की शिकायत दर्ज की गई है, जिसमें छात्रों के अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया है। यह घटना शैक्षिक संस्थानों में धर्म और राजनीति के घालमेल को लेकर चल रही बहस को और तेज करती है। हाल के वर्षों में मेरठ में एक निजी विश्वविद्यालय में बिना अनुमति नमाज पढ़ने के लिए अधिकारियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज होने जैसे मामले भी सामने आए हैं, जो इस तरह की घटनाओं की संवेदनशीलता को दिखाते हैं।

यह मामला धार्मिक स्वतंत्रता के सवाल को सामने लाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रत्येक व्यक्ति को अपनी धार्मिक मान्यताओं का पालन करने और प्रचार करने का अधिकार है, लेकिन यह अधिकार दूसरों की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं कर सकता। इस मामले में, गैर-मुस्लिम छात्रों को उनकी सहमति के बिना नमाज में शामिल करने का प्रयास न केवल उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है, बल्कि यह धार्मिक आधार पर तनाव को बढ़ाने वाला क़दम भी है। 

यह घटना शैक्षिक संस्थानों में शिक्षकों और प्रशासकों की जिम्मेदारी पर सवाल उठाती है। एनएसएस जैसे कार्यक्रमों का उद्देश्य सामुदायिक सेवा और सामाजिक एकता को बढ़ावा देना है, न कि धार्मिक गतिविधियों को थोपना। प्रोफेसरों और समन्वयकों की ओर से सहमति न लेना और धमकी देना एक गंभीर नैतिक और प्रशासनिक चूक है।

इस घटना ने सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण को और गहरा किया है। दक्षिणपंथी संगठनों की भागीदारी और सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाओं ने इसे एक राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया है। यह चिंता की बात है कि ऐसी घटनाएँ अल्पसंख्यक समुदायों के ख़िलाफ़ सामान्यीकरण को बढ़ावा दे सकती हैं, जबकि वास्तविक मुद्दा व्यक्तिगत जवाबदेही और प्रशासनिक गलतियों का है। 

छत्तीसगढ़ के इस मामले ने धार्मिक स्वतंत्रता, शैक्षिक संस्थानों की भूमिका और सामाजिक एकता जैसे मुद्दों पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। यह जरूरी है कि जांच निष्पक्ष और पारदर्शी हो, ताकि दोषियों को जवाबदेह ठहराया जा सके और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोका जा सके। साथ ही, शैक्षिक संस्थानों को यह सुनिश्चित करना होगा कि धार्मिक गतिविधियाँ स्वैच्छिक हों और किसी भी छात्र पर कोई दबाव न डाला जाए। इस मामले का समाधान न केवल कानूनी कार्रवाई पर निर्भर करता है, बल्कि सामाजिक संवाद और समझदारी पर भी, ताकि धार्मिक संवेदनशीलता का सम्मान हो और सामाजिक सद्भाव बना रहे।