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दिल्ली: केजरीवाल का काम जीतेगा या बीजेपी का धार्मिक ध्रुवीकरण का अस्त्र

मनुष्य जब अक्षम होता है तब उसे किसी सक्षम व्यक्ति से सेवा की ज़रूरत होती है और सक्षम मनुष्य अक्सर सबको उपदेश देते हुए पाया जाता है। दिल्ली विधानसभा का चुनावी दंगल सेवक और उपदेशक का दंगल था। दिल्ली के 30-40% सक्षम लोगों का प्रतिनिधित्व बीजेपी कर रही थी। बीजेपी का उपदेश राष्ट्रवाद के लिबास में था जिसके अंदर धर्म, संस्कृति, परंपरा आदि निहित थे। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी (आप) सेवा का जामा पहनी हुई थी जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी की सुविधाएं शामिल थीं। 

एक राजनीतिक दल वोटर के सामने विचार परोस रहा था तो दूसरा व्यावहारिकता। दिल्ली को नजदीक से देखने वाले जानते हैं कि यहां दो हिंदुस्तां बसे हैं। एक इंडिया है और दूसरा भारत। एक लुटियन्स वाला है तो दूसरा रेहड़ी-पटरी वाला। इंडियन दिल्ली में रहने वाले 30-40% लोग पीढ़ियों से दिल्ली में रहते आए हैं तथा संभ्रांत हैं अर्थात सक्षम हैं। जबकि भारतीय दिल्ली में 60-70% प्रवासी आबादी पिछले दो-तीन दशक में बसी है और धीरे-धीरे सामाजिक, आर्थिक स्थायित्व को प्राप्त करने का प्रयास कर रही है। ऐसे लोग तुलनात्मक दृष्टि में थोड़े अक्षम हैं। 

दिल्ली के विधानसभा चुनाव की विशेषता यह रही कि दोनों मुख्य दावेदार दल अपनी बनाई पिच पर ही खेले तथा तमाम ललकारों के बावजूद प्रतिद्वंद्वी की पिच पर खेलने से परहेज किया।

बीजेपी के पूरे प्रचार में कहीं भी 'आप' के लोकप्रिय कार्यों की न तो मुखर आलोचना थी, न ही स्वयं वैसे लोकलुभावन काम करने का वादा था। वहीं 'आप' ने भी न तो बीजेपी के धार्मिक कथानक की तीखी भर्त्सना की और न ही खुद के 5 साल के कामों की सांस्कृतिक परिभाषा देने की कोई खास मशक्कत की। 

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बीजेपी खुल कर धर्म को सशक्त करने के लिए वोट मांग रही थी तो 'आप' स्पष्ट रूप से व्यक्ति को सशक्त करने हेतु वोट देने की अपील कर रही थी। 'आप' के पास अरविंद केजरीवाल का चेहरा था जो 5 वर्षों के अपने कार्यकाल में किए गये कामों की बदौलत वोट मांग रहा था तो बीजेपी की मजबूरी थी कि वह दिल्ली में नकाबपोश बनकर उतरे क्योंकि पिछले करीब दो दशक में दिल्ली में उसने अपने किसी चेहरे को उभरने ही नहीं दिया। 

दोनों ही दलों का प्रचार अत्यंत आक्रामक रहा मगर अपने कथानक की सीमा में। दोनों ही एक-दूसरे के कथानक पर चर्चा आलोचना टीका-टिप्पणी आदि से बचते दिखे। दोनों ही दलों ने अपने-अपने महाबली, विशेषज्ञ और कार्यकर्ताओं को दंगल में उतारा। अगर बीजेपी का प्रचार करने हेतु देशभर से संघ परिवार के कार्यकर्ता, 200 सांसद, दर्जन भर मुख्यमंत्री आदि मैदान में उतरे, तो 'आप' की मदद हेतु देश-विदेश से वॉलंटियरों का टिड्डी दल भी उतरा। 

बीजेपी और ‘आप’, दोनों की ओर से अंतिम तीन हफ्तों का प्रचार पूरी ताक़त के साथ हुआ। दोनों ही दलों ने एक-एक सीट पर टिकट देते समय हर स्थानीय समीकरण का ध्यान रखते हुए सबसे ताक़तवर उम्मीदवार उतारे।

दिल्ली की जनसंख्या के अनुरूप चुनाव के दिन यह स्पष्ट दिखा कि 50-60% दिल्ली वालों ने अपना वोट पिछले पाँच साल में उन्हें मिली सेवाओं को आधार मानकर दिया। 30 से 40% मतदाताओं ने प्रचारित उपदेशों को सही जानकर अपना मतदान किया। केवल 5 से 10% मतदाता ऐसे रहे होंगे जिन्होंने सेवा बनाम उपदेश की चुनावी लड़ाई से बाहर जाकर मतदान किया हो। एग्जिट पोल्स के मुताबिक़, 'आप' को 50% के आसपास मतों के साथ 50 के आसपास सीटें तो बीजेपी को भी 40% मतों के साथ अधिकतम 20 सीटें मिल सकती हैं। 

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ध्यान से देखने पर यह पता चलता है कि सेवा से प्रभावित वोटर बनाम उपदेश से प्रभावित वोटर में केवल 10% के आसपास का अंतर बचता है। मतगणना में यदि यह अनुपात बढ़ता है तो 'आप' की सीटें बढ़ेंगी और यदि यह अनुपात घटता है तो बीजेपी की सीटें बढ़ेंगी। बाकी सनद रहे! अकसर यह देखा गया है कि बीमारी के समय जो अक्षम व्यक्ति सेवा की बदौलत स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेता है, वही व्यक्ति पूर्णतः स्वस्थ होते ही दूसरों को उपदेश देने में भी सक्षम हो जाता है।

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सिद्धार्थ शर्मा
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