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दिल्ली में कड़ा मुक़ाबला, कई महारथियों की प्रतिष्ठा दाँव पर

दिल्ली की सात सीटों पर चुनाव अब निर्णायक दौर में पहुँच चुका है। पीएम नरेंद्र मोदी की रामलीला मैदान में रैली, अमित शाह की जनसभाएँ, प्रियंका गाँधी का रोड शो और राहुल गाँधी की रैली, अरविंद केजरीवाल के अपने रोड शो के साथ स्वरा भास्कर जैसी हीरोइन का प्रचार में उतरना यही जताता है कि कोई भी पार्टी ज़रा भी कसर नहीं छोड़ना चाहती। एक पखवाड़ा पहले तक जहाँ दिल्ली की राजनीति गठबंधन की अनिश्चितता में फँसी हुई थी, अब 12 मई को मतदान से पहले सब अकेले-अकेले अपना सबकुछ दाँव पर लगाए हुए हैं।

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दिल्ली की सीटें भले ही सात हों लेकिन सत्ता का रास्ता यहीं से निकलता है। यही वजह है कि दिल्ली की सीटों पर हमेशा ही सभी की नज़रें रहती हैं। दिल्ली सभी को आकर्षित करती है। यही वजह है कि अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, के.सी. पंत सरीखे बड़े नेता भी दिल्ली के गलियारों से गुज़रते हुए संसद में पहुँचे थे। इस बार भी बीजेपी और कांग्रेस ने दिल्ली में अपने दिग्गज उतारे हैं। आम आदमी पार्टी की तो कर्मभूमि ही दिल्ली है तो उनके भी कम से कम तीन उम्मीदवार ऐसे ज़रूर हैं, जिनपर उन्हें ख़ास उम्मीदें हैं। बड़े नामों में बीजेपी के मनोज तिवारी, गौतम गंभीर, हंसराज हंस और डॉ. हर्षवर्धन का नाम लिया जा सकता है। कांग्रेस के बड़े नामों में 15 साल तक दिल्ली की गद्दी पर विराजमान रही शीला दीक्षित, दो पूर्व अध्यक्ष अजय माकन और अरविंदर सिंह लवली तथा प्रोफ़ेशनल बॉक्सर विजेंद्र सिंह को रखा जा सकता है। आम आदमी पार्टी को अतिशी, दिलीप पांडे और राघव चड्ढा से ख़ास उम्मीदें हैं।

बीजेपी ने 2014 के चुनावों में दिल्ली की सातों सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन इस बार उन्होंने अपने दो उम्मीदवार बदल दिए। यह इत्तिफ़ाक है कि बीजेपी ने अपने दो उम्मीदवार बदले तो दोनों ही सीटों पर सेलेब्रिटी उम्मीदवार उतारे।

ये हैं पूर्वी दिल्ली से गौतम गंभीर और उत्तर-पश्चिम दिल्ली से हंसराज हंस। वैसे, उत्तर-पूर्वी दिल्ली से मनोज तिवारी भी सेलेब्रिटी ज़्यादा और राजनीतिज्ञ कम हैं। अगर राजनीति के भी बड़े नामों को देखा जाए तो चाँदनी चौक से केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन भी बीजेपी के लिए काफ़ी अहम नेता हैं। साफ़-सुथरे नेताओं की सूची में उनका नाम ऊपर ही आता है। इसलिए दिल्ली में सात में से चार सीटों पर बीजेपी बड़े नामों के साथ उतरी हुई है।

मनोज तिवारी के सामने शीला दीक्षित

अगर मनोज तिवारी की बात करें तो वह दिल्ली प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष भी हैं। इस लिहाज़ से उनका मुकाम ख़ास हो जाता है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में पूर्वांचल वोटरों को आकर्षित करने के लिए उन्हें 2014 में उतारा गया था और बीजेपी का यह फ़ॉर्मूला काम भी आया था। मगर, इस बार उन्हें जो वोट मिलेंगे, वे इस आधार पर भी मिलेंगे कि पिछले पाँच सालों में उन्होंने कितना काम किया है। ज़्यादातर लोगों को यही शिकायत है कि मनोज तिवारी पाँच सालों में कम दिखाई दिए। मनोज तिवारी को पूरी तरह मोदी के नाम का सहारा है। संयोग की बात है कि कांग्रेस ने इस सीट पर अपनी दिग्गज शीला दीक्षित को उतारा है। शीला दीक्षित 1998 में जब दिल्ली की राजनीति में दाखिल हुई थीं तो उन्होंने इसी सीट से लोकसभा का उप-चुनाव लड़ा था। उनके मुक़ाबले बीजेपी के लालबिहारी तिवारी थे। शीला दीक्षित उस चुनाव में क़रीब 45 हजार वोटों से हार गई थीं। तब से अब तक काफ़ी बदलाव हो चुके हैं। शीला के साथ पूर्व सीएम का लंबा अनुभव जुड़ चुका है, लेकिन पिछले छह सालों में शीला दिल्ली की राजनीति में बहुत ज़्यादा प्रभावी नहीं रहीं। इस सीट पर ख़ासतौर पर उनकी जीत इसी तथ्य पर निर्भर करती है कि मुसलिम वोटरों का मिज़ाज कैसा रहता है। यहाँ 25 फ़ीसदी से ज़्यादा मुसलिम वोटर हैं। दिल्ली में 15 सालों में किए विकास के नाम पर भी वह वोट माँग रही हैं। आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार दिलीप पांडे दिल्ली यूनिट के प्रभारी रह चुके हैं और केजरीवाल की मंडली के ख़ास सदस्य हैं। उनकी नज़रें भी पूर्वांचल और मुसलिम वोटरों पर ही हैं।

ज़ाहिर है कि कांग्रेस और आप का वोट बैंक एक ही है। कौन किसके वोट बैंक में ज़्यादा सेंध लगाता है और इतने वोट हासिल कर लेता है कि बीजेपी को पीछे छोड़ दे, यही देखना दिलचस्पी का सबब होगा।

गंभीर, लवली और अतिशी में मुक़ाबला

इसी तरह पूर्वी दिल्ली से बीजेपी ने कुछ दिन पहले ही पार्टी और राजनीति में उतरे गौतम गंभीर को मैदान में उतारा है। गौतम गंभीर यूथ में काफ़ी लोकप्रिय हैं। इसका पता इस बात से चलता है कि चुनाव प्रचार के दौरान अक्सर लोग उनसे राजनीति की बात करने की बजाय ऑटोग्राफ़ और सेल्फ़ी लेने पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं। इलाक़े में अमित शाह की फीकी रैली के बाद पार्टी के कान खड़े हुए और अब सीनियर नेता श्याम जाजू को उनके कैम्पेन मैनेजमेंट पर लगाया गया है। 2014 में महेश गिरी भी राजनीति में नए खिलाड़ी के रूप में इस सीट पर जीते थे लेकिन इस बार हालात काफ़ी बदले हुए हैं। गौतम गंभीर को राजनीति में बैटिंग करना काफ़ी मुश्किल लग रहा होगा। यह मुश्किल इसलिए भी है कि कांग्रेस ने पूर्वी दिल्ली से अपने पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और शीला सरकार में 10 साल तक मंत्री रहे अरविंदर सिंह लवली को उतार दिया है। लवली इसी इलाक़े के रहने वाले हैं और ‘लोकल’ के मुद्दे पर ही चुनाव प्रचार को गर्म कर रहे हैं। वह बाक़ी दोनों उम्मीदवारों को ‘पिकनिक’ मनाने वाले उम्मीदवार कह रहे हैं। यह सीट मिली-जुली आबादी वाली है, इसलिए इस इलाक़े का मूड भाँपना आसान नहीं है। आम आदमी पार्टी दिल्ली में शिक्षा क्रांति करने का दावा करती है और अतिशी को उसका सूत्रधार बताकर प्रचार कर रही है। 

अतिशी केजरीवाल के ख़ासमख़ास लोगों में से हैं। इसलिए यह सीट उनके लिए बहुत महत्व रखती है। यही वजह है कि अतिशी उन्हीं इलाक़ों में प्रचार पर ज़्यादा ज़ोर दे रही हैं जहाँ उनका वोट बैंक बसता है यानी झुग्गी-बस्तियाँ, पुनर्वास कॉलोनियाँ या मुसलिम बहुल इलाक़े।

डॉ. हर्षवर्धन भी मैदान में

बीजेपी के एक और धुरंधर हैं डॉ. हर्षवर्धन। डॉ. हर्षवर्धन के बारे में पहले कहा जाता था कि उन्हें पूर्वी दिल्ली भेजा जाएगा लेकिन बाद में उनकी चाँदनी चौक सीट बरकरार रखी गई और उनके लिए यह सीट जीतना एक बड़ी चुनौती के समान है। इसका सबसे अहम कारण यह है कि इस लोकसभा सीट की दस विधानसभा सीटों में से चार पर तो सीधे तौर पर मुस्लिम वोटरों की तादाद 50 फीसदी के करीब है। बाकी छह सीटों में पंजाबी और वैश्य समुदाय के लोग ज्यादा हैं। इनमें अधिकतर कारोबारी हैं। बीजेपी को मुसलिम वोटरों से तो उम्मीद करनी ही नहीं चाहिए और कारोबारी नोटबंदी, जीएसटी के बाद सीलिंग से इतने त्रस्त रहे हैं कि उनके लिए इस बार बीजेपी का समर्थन करना एक मुश्किल फ़ैसले की तरह होगा। डॉ. हर्षवर्धन को अपनी छवि के साथ-साथ मोदी के नाम का सहारा है। उनकी जीत का एक मतलब यह भी हो सकता है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में उन्हें फिर से मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके उतारा जाए। बहरहाल, फ़िलहाल तो उन्हें लोकसभा सीट जीतकर दिखानी है।

हंसराज हंस भी दिखा रहे दम

बीजेपी के लिए चौथा बड़ा नाम है पंजाब के मशहूर सिंगर हंसराज हंस का। जब उन्हें उत्तर-पश्चिम दिल्ली से उम्मीदवार बनाया गया, तब बहुत से लोगों को पता चला कि वह वाल्मीकि समुदाय से हैं। हालाँकि उनके बारे में आम आदमी पार्टी यह दावा करती है कि उन्होंने मुसलिम धर्म अपना लिया था लेकिन हंस इस दावे के ख़िलाफ़ मुक़दमा करने जा रहे हैं। हंस के लिए राजनीति में इस तरह एंट्री करना आसान साबित नहीं हो रहा। इसकी वजह यह है कि उत्तर-पश्चिम दिल्ली में वह कभी आए ही नहीं होंगे। यहाँ उनका मुक़ाबला तीन बार के विधायक रहे कांग्रेस के राजेश लिलोठिया और आम आदमी पार्टी के गुग्गन सिंह से है। यह सीट भी आप कांग्रेस के खाते में दे रही थी। गुग्गन सिंह कभी बीजेपी के विधायक रहे थे। इसलिए हंस के लिए वह भी सिरदर्दी पैदा कर रहे हैं क्योंकि वह अपने आपको ‘लोकल’ के रूप में पेश कर रहे हैं।

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अजय माकन बनाम मीनाक्षी लेखी

कांग्रेस के लिए नई दिल्ली सीट भी बहुत ख़ास है क्योंकि यहाँ से भी उनके पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन मैदान में हैं। माकन ने 2004 के चुनावों में इस सीट से जगमोहन जैसे मंझे हुए राजनीतिज्ञ को हराकर सनसनी फैला दी थी और इसके ईनाम स्वरूप उन्हें केंद्र में मंत्री पद भी मिला। वह राहुल गाँधी के ख़ास साथियों में से एक हैं। यही वजह है कि पीठ के दर्द के नाम पर जब उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष पद छोड़ा तो लोकसभा चुनाव लड़ाते समय किसी ने नहीं पूछा कि अब पीठ दर्द कहाँ गया। यही नहीं, वह आम आदमी पार्टी के साथ समझौते का विरोध करते हुए अध्यक्ष पद से हटे थे लेकिन हटते ही गठबंधन के पैरोकार बन गए। बहरहाल, इन सब बातों के बावजूद वह सरकारी कर्मचारियों को अपना ख़ास वोटर मानते हैं। उनका मुक़ाबला 2014 में उन्हें हराकर जीती मीनाक्षी लेखी के साथ है। आम आदमी पार्टी ख़ुद इस सीट को कमज़ोर मानती है और इसीलिए गठबंधन के वक़्त यह सीट कांग्रेस को देने के लिए तैयार थी।

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विजेंद्र, बिधूड़ी और राघव चड्ढा में काँटे की टक्कर

कांग्रेस और आप के लिए बड़े नामों वाली एक और सीट दक्षिण दिल्ली है। सज्जन कुमार के जेल जाने के बाद कांग्रेस के लिए इस सीट पर रिक्तता पैदा हो गई थी। उनके भाई और पूर्व सांसद रमेश कुमार को टिकट देने का भी कांग्रेस रिस्क नहीं ले सकी। इसलिए बॉक्सर विजेंद्र सिंह को उतारा गया। विजेंद्र सिंह ने बहुत बाउट जीती हैं लेकिन उनके लिए यह रिंग आसान नहीं है क्योंकि यहाँ बीजेपी के रमेश बिधूड़ी दिल्ली की राजनीति के धुरंधर हैं। आम आदमी पार्टी ने भी अपने तेज़तर्रार प्रवक्ता राघव चड्ढा को यहाँ से उतारकर इस सीट को भी प्रतिष्ठा वाली सीट बना दिया है। विजेंद्र सिंह के पास अनुभव नहीं है तो वह सतही मुद्दों को उठा रहे हैं, जबकि राघव चड्ढा कई महीने से प्रचार करके अपने आपको मुक़ाबले में बनाए हुए हैं।

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दिलबर गोठी
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