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बीजेपी तीनों राज्यों में हारी तो अगले साल मोदी की बारी

पोल के रुझानों से लगता है कि गाय, राम मंदिर और धार्मिक मुद्दे लोगों को ज़्यादा लुभा नहीं सके। किसानों के भीतर उपज की अच्छी क़ीमत के लिए दर्द जब-तब सामने आता रहा। युवा वर्ग को रोज़गार मिलने का सपना टूटता दिखाई देता रहा। राज्यों में क़ानून-व्यवस्था बड़ा मुद्दा बना, ख़ास तौर पर महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा। आम लोगों को अमन-चैन और विकास की उम्मीद टूटती दिखाई दी।
शैलेश

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए मतदान के बाद आए एग्ज़िट पोल के नतीजे बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। ज़्यादातर एग्ज़िट पोल राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस और बीजेपी के बीच बराबरी की लड़ाई है। लेकिन वहाँ भी कांग्रेस को थोड़ा आगे ही बताया जा रहा है। तेलंगाना और मिज़ोरम में कांग्रेस पिछड़ती नज़र आ रही है लेकिन इन दोनों राज्यों में चुनावी लड़ाई क्षेत्रीय पार्टियों और कांग्रेस के बीच है। बीजेपी इन दोनों राज्यों में काफ़ी पीछे है। वास्तविक नतीजे अगर एग्ज़िट पोल नतीजों जैसे ही रहे तो बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को अगले साल लोकसभा चुनाव में नई चुनौती के लिए तैयार रहना होगा। 

घोटालों की मार

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लोकसभा की कुल 66 सीटें हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने 62 सीटों पर जीत हासिल की थी जिससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिल्ली की कुर्सी मिलने में आसानी हुई। विधानसभा चुनावों के नतीजे अगर बीजेपी के ख़िलाफ़ जाते हैं तो उसका असर अगले साल लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। इसका मुख्य कारण यह है कि इस बार विधानसभा के चुनाव मुख्य तौर पर राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े गए। तीनों राज्यों में राष्ट्रीय मुद्दे ही हावी थे। कांग्रेस ने पूरे चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीतियों और भ्रष्टाचार के बड़े मामलों को अहमियत दी। प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ज़रूर निशाने पर लिया लेकिन उनके पास राहुल के ख़िलाफ़ बोलने के लिए कुछ ज़्यादा नहीं था। कुल मिलाकर राहुल को एक अपरिपक्व नेता बताने की कोशिश की गई। कांग्रेस और राहुल गांधी ने सोची-समझी रणनीति के तहत मोदी सरकार के दौरान उठे भ्रष्टाचार के बड़े आरोपों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है। रफ़ाल हवाई जहाज़ की ख़रीद में भ्रष्टाचार राहुल के भाषणों का केंद्रबिंदु होता था। बैंकों से हज़ारों करोड़ रुपया लेकर विदेश भाग जाने वाले विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे उद्योगपतियों को बीजेपी सरकार से मदद मिलने के आरोपों को भी राहुल गांधी ने ज़ोरशोर से उछाला। कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के दौरान केंद्र सरकार में भ्रष्टाचार के साथ-साथ राज्यों में भ्रष्टाचार के मुद्दों को भी ख़ूब उछाला।

मोदी पर दाग?

अब 2014 के चुनाव और उसके पहले के माहौल पर ग़ौर करें तो एक बात साफ़ उभर कर सामने आती है कि उस दौर में भ्रष्टाचार एक केंद्रीय मुद्दा बन गया था। 2013 के विधानसभा चुनावों में अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में होने वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की लहरों पर बीजेपी ने सवारी की और जीत हासिल की। तब 2जी स्पेक्ट्रम जैसे भ्रष्टाचार के आरोपों से चुनावी फ़िज़ा गूंजती रही। इन सबके बीच तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी एक साफ़-सुथरे और विकास पसंद नेता के रूप में उभरे। अब मोदी और उनकी सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी है और उसी तरह घिरी नज़र आ रही है जिस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार घिरी हुई थी। यहाँ भी एक फ़र्क़ है व्यक्तिगत तौर पर तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भ्रष्टाचार का कोई सीधा आरोप नहीं था लेकिन बीजेपी राज में रफ़ाल जैसे मामले के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहीं-न-कहीं दिखाई देते हैं। 2014 के चुनावों से पहले ऐसा माहौल बनाया गया कि मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आते ही देश की सारी समस्याएँ छू-मंतर हो जाएँगी। दुर्भाग्य से मोदी के ज़्यादातर आर्थिक फ़ैसले अभी तक कोई चमत्कारिक नतीजा नहीं दे सके हैं। नोटबंदी से काला धन सरकारी ख़ज़ाने में नहीं आया। छोटे और मझोले उद्योगों पर जो मार पड़ी, उसका दर्द अब भी ग़रीब और कामदार महसूस कर रहा है। जीएसटी से टैक्स चोरी ख़त्म होने की जो उम्मीद की जा रही थी, वह भी पूरी होती दिखाई नहीं देती। ग़रीबों के लिए रोज़गार नहीं बड़े बल्कि घट गए। किसानों को उपज का फ़ायदेमंद मूल्य नहीं मिला।

बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चुनाव प्रचार इन विधानसभा चुनावों में कुल मिला कर राहुल गांधी पर व्यक्तिगत हमले पर ही केंद्रित दिखाई दिया। राहुल हिंदू हैं या नहीं, बीजेपी इस मुद्दे को चुनाव का बड़ा हथियार मान कर चल रही थी। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मुक़ाबले उनके गृह मंत्री सरदार पटेल का क़द बड़ा करने की कोशिश की जाती रही। इन सबके बीच गोरक्षा और राम मंदिर को देश के सबसे अहम मुद्दों के रूप में बनाए रखने की कोशिश भी की गई।

हिंदुत्व फ़ेल? 

पोल के रुझानों से लगता है कि गाय, राम मंदिर और धार्मिक मुद्दे लोगों को ज़्यादा लुभा नहीं सके। किसानों के भीतर उपज की अच्छी क़ीमत के लिए दर्द जब-तब सामने आता रहा। युवा वर्ग को रोज़गार मिलने का सपना टूटता दिखाई देता रहा। राज्यों में क़ानून-व्यवस्था बड़ा मुद्दा बना, ख़ास तौर पर महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा। आम लोगों को अमन-चैन और विकास की उम्मीद टूटती दिखाई दी। ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकार ने ग़रीबों के लिए कुछ किया नहीं या फिर चुनाव प्रचार के दौरान उसे बताया नहीं गया। प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी के दूसरे प्रचारक गिनाते रहे कि गाँव के गरीबों को गैस की सुविधा दी गई। सभी गाँवों में बिजली पहुँचाई गई। शौचालय बनाए गए। लेकिन एग्ज़िट पोल के नतीजों से लगता है कि लोग इन चीज़ों से संतुष्ट नहीं हुए।

कांग्रेस की वापसी! 

एग्ज़िट पोल और वास्तविक नतीजे अगर समान होते हैं तो ये कांग्रेस और ग़ैर-बीजेपी पार्टियों की वापसी की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम साबित होगा। बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी को लोगों के मन में उमड़-घुमड़ रहे विकास के सवालों का जवाब देना होगा। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पिछले 15 सालों से बीजेपी की सरकारें हैं। राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस बारी-बारी से आती-जाती रही हैं इसलिए बीजेपी यह नहीं कह सकती कि विकास के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला। गोरक्षा और राम मंदिर जैसे भावनात्मक मुद्दों का असर अकसर बहुत सीमित होता है। 1992 में जब अयोध्या में बाबरी मसजिद का ढाँचा गिराया गया तब चार में से तीन राज्यों - अविभाजित मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश - में बीजेपी सत्ता में नहीं लौटी।

फ़िलहाल जनता से जुड़े मुद्दों पर 2014 जैसी जीत की उम्मीद नहीं की जा सकती है। किसानों, मज़दूरों और बेरोज़गार नौजवानों के मुद्दों को 2019 के चुनावों से परे नहीं रखा जा सकता।एग्ज़िट पोल का सबसे बड़ा नतीजा तो यही है।

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