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16 दिनों तक दिग्गज वकीलों ने दी दलीलें,सुप्रीम कोर्ट ने फैसला रखा सुरक्षित 

अनुच्छेद 370 को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई मंगलवार 5 सितंबर को पूरी हो चुकी है। 16 दिन चली सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस केस में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। 
सुप्रीम कोर्ट में करीब 20 याचिकाकर्ताओं ने अनुच्छेद 370 को खत्म करने के खिलाफ याचिका दायर की थी।  इन याचिकाओं में मांग की गई थी कि जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 फिर से बहाल किया जाए और उसका पूर्ण राज्य का दर्जा भी लौटाया जाए। 
सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ ने इस मामले की सुनवाई की और दोनों ही पक्ष की दलीलों को 16 दिन तक सुना। इस संविधान पीठ की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ कर रहे हैं। इस संविधान पीठ में न्यायमूर्ति एसके कौल, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत शामिल हैं। 
अनुच्छेद 370 को बहाल करने की मांग के पक्ष में वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, गोपाल सुब्रमणियम, राजीव धवन, जफर शाह, दुष्यंत दवे ने दलीलें रखी। 
दूसरी तरफ अनुच्छेद 370 को हटाने के समर्थन में केंद्र सरकार और विभिन्न संगठनों की ओर से अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे, राकेश द्विवेदी, वी गिरी, महेश जेठमलानी ने पक्ष रखा। इन्होंने अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के फैसले को ठीक बताते हुए इसके पक्ष में दलीलें दी। सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के निर्णय का समर्थन करते हुए देश के इन नामी वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने अंतिम 6 दिन दलीलें दी।
2 अगस्त, 2023 को अनुच्छेद 370 पर शुरू हुई इस ऐतिहासिक सुनवाई के दौरान व्यापक बहस और चर्चा हुई। यह मामला तीन साल से अधिक समय तक निष्क्रिय रहा, सुप्रीम कोर्ट में इसकी आखिरी लिस्टिंग मार्च 2020 में हुई थी।

पांच अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 किया गया था खत्म 

5 अगस्त 2019 को संसद ने जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया था। इसके साथ ही राज्य को 2 केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू कश्मीर और लद्दाख में बांटने का भी निर्णय लिया गया था‌। इस फैसले को ही सुप्रीम कोर्ट में करीब 20 याचिकाकर्ताओं ने चुनौती गई थी। 
इस मामले में 2 याचिकाकर्ताओं शाह फैसल और शेहला रशीद ने सुनवाई शुरू होने से पहले ही अपनी याचिकाएं वापस ले ली थी। इनके द्वारा याचिका वापस लेने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने दोनों का नाम याचिकाकर्ताओं की लिस्ट से हटाने का निर्देश दिया था। 
उनके हटने के बाद नेशनल कांफ्रेंस सांसद मोहम्मद अकबर लोन का नाम याचिकाकर्ताओं की सूची में पहले नंबर पर आ गया था और वे मुख्य याचिकाकर्ता बन गए थे। 

याचिकाकर्ता पक्ष की ओर से दी गई 9 दिन दलीलें

16 दिन तक चली इस सुनवाई में मुख्य याचिकाकर्ता अकबर लोन की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल पेश हुए थे। उनके अलावा अनुच्छेद 370 के पक्ष में वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमणियम, राजीव धवन, जफर शाह, दुष्यंत दवे ने भी दलीलें दी। 
इन अधिवक्ताओं ने दलीलें दी कि जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय विशेष परिस्थितियों में हुआ था। इसलिए ही उसे अलग दर्जा मिला था। 
इन्होंने दलीलें पेश की है कि जम्मू और कश्मीर राज्य की एक अलग संविधान सभा थी। इस संविधान सभा का काम 1957 में पूरा हो गया था। 
उन्होंने कहा कि भारत के संविधान से अनुच्छेद 370 हटाने का निर्णय जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा की सहमति से ही हो सकता था। 
उन्होंने तर्क दिया कि अनुच्छेद 370 को खत्म करने का संसद का फैसला कानूनी तौर पर गलत है। 
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याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने कहा, अनुच्छेद 370 ने स्थायित्व ले लिया है 

कानूनी मामलों की खबर देने वाली वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिक याचिकाकर्ता के वकीलों ने पहले नौ दिनों तक बहस की इस दौरान उन्होंने अनुच्छेद 370 के समर्थन में दलीलें दी। उन्होने अपनी दलीलों में भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के संबंधों की अनूठी प्रकृति पर जोर दिया, जो कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में सन्निहित है। 

उन्होंने  इस बात पर प्रकाश डाला कि जम्मू और कश्मीर के महाराजा ने भारत से विलय के समय आंतरिक संप्रभुता नहीं छोड़ी थी। विलय पत्र के अनुसार विदेशी मामलों, संचार और रक्षा से संबंधित कानून बनाने की शक्ति संघ के पास थी। लेकिन जम्मू-कश्मीर की आंतरिक संप्रभुता जो उसे अन्य सभी मामलों पर विधि बनाने की शक्तियां प्रदान करती थी, उसके पास ही रही थी।  इसके समर्थन में वकीलों ने यह तर्क दिया कि अनुच्छेद 370 ने अब स्थायित्व ले लिया है और 1957 में जम्मू-कश्मीर संविधान सभा के विघटन के बाद यह 'अस्थायी' प्रावधान नहीं रह गया है। 

अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर भी दी गई दलीलें 

लाइव लॉ की रिपोर्ट कहती है कि सुनवाई को दौरान याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि भारतीय संसद, वर्तमान संवैधानिक ढांचे के तहत, स्वयं को संविधान सभा में परिवर्तित नहीं कर सकती। उन्होंने अपनी दलीलों में अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर भी जोर दिया था। अनुच्छेद 356 किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रावधान करता है। इस सुनवाई को दौरान याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने इस बात पर जोर दिया कि अनुच्छेद 356 का उद्देश्य राज्य मशीनरी को बहाल करना था न कि उसे नष्ट करना। 
उन्होने कहा कि राज्य विधानमंडल को नष्ट करने के लिए जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।  उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन अपनी प्रकृति में "अस्थायी" था और इस प्रकार इसके तहत स्थायी कार्रवाई नहीं की जा सकती थी। याचिकाकर्ताओं के वकीलों तर्क दिया कि अनुच्छेद 367 के माध्यम से अनुच्छेद 370 में किया गया संशोधन अमान्य था। उन्होंने अपनी दलीलों में जम्मू-कश्मीर को राज्य से केंद्रशासित राज्य में बदलने के कारण संवैधानिक ढांचे पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को भी रेखांकित किया। 

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केंद्र के फैसले के समर्थन में दी गई ये दलीलें 

जम्मू और कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 को हटाने के केंद्र सरकार के फैसले को सही बताते हुए केंद्र सरकार और विभिन्न संगठनों के वकीलों ने दलीलें दी। कानूनी मामलों की खबर देने वाली वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिकउन्होंने तर्क दिया कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से जम्मू-कश्मीर के लोगों के 'मनोवैज्ञानिक द्वंद्व' का समाधान हो गया है। उन्होंने कहा कि इसके निरस्त होने से पहले भारतीय संविधान वहां पूरी तरह से लागू नहीं हुआ था। इसके कारण जम्मू-कश्मीर के लोगों के खिलाफ भेदभाव हो रहा था। 
सुनवाई को दौरान उन्होंने कहा कि यह बहुत स्पष्ट था कि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 370 को एक 'अस्थायी' प्रावधान के रूप में देखा था और वे चाहते थे कि यह 'ख़त्म' हो जाए। उन्होंने तर्क दिया कि 1930 के दशक के अंत के दौरान, कई रियासतें अपने स्वयं के संविधान का मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया में थीं। यह भी बताया कि भारतीय राष्ट्र का हिस्सा बनने के लिए विलय समझौते का निष्पादन आवश्यक नहीं था। 
उनकी दलील थी कि आंतरिक संप्रभुता को संप्रभुता के साथ भ्रमित नहीं किया जा सकता। इस दौरान कोर्ट को बताया गया कि जम्मू और कश्मीर को केवल अस्थायी समय के लिए एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य होने के कारण केंद्रशासित प्रदेश में परिवर्तित किया गया है और इसे राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाएगा। अनुच्छेद 370 को हटाने के फैसले को सही बताते हुए इन उत्तरदाताओं ने जोर देकर कहा कि जम्मू-कश्मीर संविधान भारतीय संविधान के अधीन था और जम्मू-कश्मीर संविधान में कभी भी मूल घटक शक्तियां नहीं थीं। 
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क़मर वहीद नक़वी
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