सुप्रीम कोर्ट के सक्रिय दखल के बाद केंद्र सरकार ने जबरन बांग्लादेश निर्वासित की गई प्रेग्नेंट महिला सोनाली खातून और उनके आठ वर्षीय पुत्र को वापस भारत लाने पर सहमति जताई है। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट में दायर विशेष अनुमति याचिका पर बुधवार को सुनवाई के दौरान लिया गया, जिसमें केंद्र सरकार ने कलकत्ता हाईकोर्ट के सितंबर के आदेश के खिलाफ अपील की थी। सोनाली खातून की कहानी दर्दभरी है। दिल्ली एनसीआर में पुलिस ने बंगाली बोलने वाले मुस्लिमों को पिछले दिनों जबरन बांग्लादेशी बताकर बांग्लादेश भेज दिया गया। पुलिस ऐसे लोगों से बहुत बुरी तरह पेश आई थी। सोनाली खातून का भी यही कसूर था कि वो बंगाली बोलने वाली मुस्लिम महिला हैं।

केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बुधवार को सुप्रीम अदालत को आश्वासन दिया कि मां और बच्चे को आधिकारिक चैनलों के माध्यम से वापस लाया जाएगा। लेकिन यह कदम केवल मानवीय आधार पर उठाया जा रहा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह निर्णय निर्वासन आदेश के मूल मामले को प्रभावित नहीं करेगा और सरकार खराब मिसाल कायम नहीं करना चाहती। सुप्रीम कोर्ट ने भी निर्देश दिया कि महिला को मुफ्त इलाज की सुविधाएं प्रदान की जाएं, साथ ही बच्चे की दैनिक देखभाल का भी इंतजाम किया जाए। मामला अगली सुनवाई के लिए 10 दिसंबर को तय किया गया है।

सोनाली खातून के पिता भोदू शेख ने जून 2024 में गृह मंत्रालय की 2 मई की अधिसूचना के तहत शुरू हुई पहचान सत्यापन प्रक्रिया के दौरान अपने परिवार पर अतिक्रमण का आरोप लगाया। उन्होंने दावा किया कि उनकी बेटी, दामाद और पोते को बिना किसी उचित जांच के हिरासत में लिया गया और 26 जून को बांग्लादेश निर्वासित कर दिया गया। शेख ने कलकत्ता हाईकोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने बताया कि उनका परिवार पश्चिम बंगाल का मूल निवासी है और दिल्ली में बेहतर जीवन की तलाश में गया था। उन्होंने स्वयं को पश्चिम बंगाल का स्थायी निवासी बताते हुए दावा किया कि उनकी बेटी और दामाद जन्म से भारतीय नागरिक हैं।

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हाईकोर्ट ने सितंबर में केंद्र को निर्देश दिया था कि निर्वासित परिवार को वापस लाया जाए, लेकिन केंद्र ने दस्तावेजी प्रमाण की कमी का हवाला देकर इसका विरोध किया। इस पर शेख ने वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े के माध्यम से केंद्र के खिलाफ अवमानना याचिका भी दायर की। हाईकोर्ट के जस्टिस जॉयमलया बागची ने मौखिक रूप से केंद्र को सलाह दी कि वह शेख की नागरिकता की जांच करे। उन्होंने कहा, "यदि शेख भारतीय नागरिक हैं, तो डीएनए के जरिए उनकी बेटी और पोता भी भारतीय माने जाएंगे।" जस्टिस बागची ने यह भी कहा कि चूंकि मामला अब सुप्रीम कोर्ट के पास है, इसलिए केंद्र को अवमानना याचिका की चिंता करने की जरूरत नहीं है।

केंद्र सरकार का तर्क रहा है कि निर्वासित व्यक्तियों ने भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कोई दस्तावेज पेश नहीं किए। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि गर्भवती महिला और बच्चे को अलग नहीं किया जाना चाहिए, खासकर मानवीय आधार पर। यह फैसला अवैध प्रवासियों की पहचान और निर्वासन की केंद्र की सख्त नीति के बीच राहत लेकर आया है। 

दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में बंगाली बोलने वाले मुस्लिम समुदाय के लोगों को बांग्लादेशी घुसपैठिया मानकर बड़े पैमाने पर हिरासत और निर्वासन की कई घटनाएँ सामने आई हैं। इनमें अधिकांश लोग दशकों से भारत में रह रहे हैं, उनके पास आधार कार्ड, वोटर आईडी और अन्य दस्तावेज़ भी हैं, फिर भी भाषा और धर्म के आधार पर उन्हें अवैध प्रवासी घोषित कर दिया जाता है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 2023-24 में इस मुद्दे पर केंद्र सरकार को कम से कम दो बार पत्र लिखकर कड़ा विरोध दर्ज किया था और कहा था कि बंगाली भाषी भारतीय नागरिकों को निशाना बनाना बंद किया जाए।

सबसे गंभीर स्थिति गुड़गांव में देखी गई, जहाँ 2023-24 में सैकड़ों बंगाली मुस्लिम परिवारों को उनके घरों से उठाकर डिटेंशन सेंटर भेजा गया और फिर बांग्लादेश बॉर्डर पर छोड़ दिया गया। इनमें से अधिकांश लोग घरेलू कामगार, सफाई कर्मी, कुक, माली और ड्राइवर के रूप में काम करते थे। परिणामस्वरूप गुड़गांव के कई सोसाइटीज़ और अपार्टमेंट में घरेलू सहायकों की भारी कमी हो गई। कई परिवारों को महीनों तक नौकर नहीं मिले। इस पूरे घटनाक्रम को द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया समेत कई अखबारों ने प्रमुखता से रिपोर्ट किया था, लेकिन केंद्र सरकार ने अपना रुख नहीं बदला और इसे अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ कार्रवाई बताया।

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सोनाली खातून का मामला तो सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा और मानवीय आधार पर उन्हें वापस लाने का आदेश हुआ, लेकिन सवाल यह है कि ऐसी कितनी सोनाली खातून आज भी डिटेंशन सेंटरों में हैं या बांग्लादेश में फेंक दी गई हैं, जिनकी कोई आवाज़ नहीं उठी। अधिकांश प्रभावित लोग गरीब मजदूर हैं, जिनके पास न तो वकील करने की हैसियत है, न कानूनी प्रक्रिया की जानकारी और न ही मीडिया तक पहुँच। बंगाली भाषी होने और मुस्लिम होने की दोहरी पहचान ने उन्हें इस प्रक्रिया में सबसे आसान शिकार बना दिया है।

बहरहाल, सोनाली खातून के परिवार ने इस निर्णय का स्वागत किया है और उम्मीद जताई है कि जल्द ही सोनाली और उनके बेटे को सुरक्षित वापस लाया जाएगा। मामला अभी भी लंबित है, लेकिन यह घटना नागरिकता सत्यापन प्रक्रियाओं में पारदर्शिता और मानवीय दृष्टिकोण की जरूरत को रेखांकित करती है।