एसआईआर के ख़िलाफ़ तमिलनाडु में सर्वदलीय बैठक में फ़ैसला लेने के एक दिन बाद सोमवार को डीएमके ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी। पार्टी ने चुनाव आयोग के इस स्पेशल इंटेंसिव रिविजन यानी एसआईआर को ‘डी फैक्टो एनआरसी’ बताया है, यानी असल में ये नागरिकता रजिस्टर जैसा ही है, बस नाम अलग है। इसने कहा है कि एसआईआर से लाखों लोग वोट देने से वंचित हो सकते हैं। इसने याचिका में कहा है कि ये लोकतंत्र पर हमला है और संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।

तमिलनाडु की सत्ताधारी डीएमके के संगठन सचिव आर.एस. भारती ने सोमवार को यह याचिका दाखिल करते हुए एसआईआर को संवैधानिक अतिक्रमण करार दिया और इसे 'डी फैक्टो नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी' बताया। इसने कहा है कि एसआईआर वोटरों पर नागरिकता साबित करने का बोझ डालता है। एनआरसी में भी लोगों को नागरिकता साबित करनी होती है। याचिका में दावा किया गया है कि यह प्रक्रिया लाखों वैध वोटरों को बिना उचित प्रक्रिया के मताधिकार से वंचित कर सकती है, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों तथा लोकतंत्र को प्रभावित करेगी।
यह याचिका एसआईर के दूसरे चरण की पहली कानूनी चुनौती है, जो 28 अक्टूबर से शुरू हो चुका है। डीएमके का यह कदम रविवार को मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक के एक दिन बाद आया, जिसमें क़रीब 44 दलों ने एसआईआर का विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला लिया। विशेषज्ञों का मानना है कि यह विवाद 2026 के तमिलनाडु विधानसभा चुनावों से पहले वोटर सूची की निष्ठा पर सवाल खड़ा कर रहा है।

SIR क्या है? बिहार से तमिलनाडु तक विवाद

चुनाव आयोग ने 27 अक्टूबर को एसआईआर के दूसरे चरण की घोषणा की। यह 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों– अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह, लक्षद्वीप, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, पुडुचेरी, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल – में 4 नवंबर से शुरू हो रहा है। अंतिम सूची 7 फरवरी 2026 को जारी होगी। एसआईआर का मक़सद वोटर सूची को सही बनाना बताया गया है, जिसमें डुप्लिकेट, मृत, प्रवासी या अयोग्य वोटरों को हटाना और छूटे हुए को शामिल करना है।

पहला चरण जून-जुलाई में बिहार में हुआ। बिहार में क़रीब 68 लाख नाम हटाए गए हैं। विपक्ष ने इसे मास डिसेनफ्रैंचाइजमेंट बताया। सुप्रीम कोर्ट में बिहार एसआईआर पर याचिकाएं लंबित हैं और डीएमके ने तर्क दिया कि बिना फैसले के दूसरे चरण की शुरुआत असंवैधानिक है।

याचिका में तर्क क्या रखा गया?

अनुच्छेद 32 के तहत दाखिल की गई याचिका में चुनाव आयोग के 24 जून और 27 अक्टूबर 2025 के आदेशों को रद्द करने की मांग की गई है। याचिका में कहा गया है-

डी फैक्टो एनआरसी: एसआईआर वोटरों पर नागरिकता जैसी स्थिति साबित का बोझ डालता है, जो चुनाव आयोग के वैधानिक उद्देश्य से बाहर है। यह नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है। इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर्स को 'संदिग्ध विदेशी' मामलों को रेफर करने की अनुमति बिना प्रक्रिया के दी गई।

कानूनी खामी: एसआईआर का तरीका प्रतिनिधित्व ऑफ द पीपल एक्ट यानी ROPA 1950 या रजिस्ट्रेशन ऑफ इलेक्टर्स रूल्स 1960 में नहीं है। अनुच्छेद 28(3) ROPA के तहत नियमों को गजट में अधिसूचित और संसद में रखना जरूरी है, जो नहीं हुआ। इनुमरेशन फॉर्म्स का जिक्र भी नहीं है।

अनुचित समयसीमा: छोटी समयसीमा राज्य पर थोपी जा रही है। यह संघीय ढांचे का उल्लंघन है। राशन कार्ड, पैन कार्ड, ईपीआईसी जैसे सामान्य दस्तावेजों को बाहर किया गया, जो युवा, प्रवासी, महिलाओं, आर्थिक रूप से कमजोर और हाशिए पर समुदायों को प्रभावित करेगा।
याचिका में कहा गया, 'यदि SIR आदेश रद्द न किया गया, तो यह बिना प्रक्रिया के लाखों वोटरों को हटा सकता है, जो स्वतंत्र चुनावों को बाधित करेगा।'

चुनावी लोकतंत्र पर संकट?

एसआईआर का दूसरा चरण पश्चिम बंगाल, केरल जैसे राज्यों में भी विवादास्पद है, जहां टीएमसी और एलडीएफ ने विरोध जताया। जानकारों का कहना है कि दस्तावेजीकरण की कमी से हाशिए के समुदाय प्रभावित होंगे, जो लोकतंत्र के लिए खतरा है।

क्या एसआईआर वोटर सूची को मजबूत करेगा या राजनीतिक हथियार बनेगा? तमिलनाडु के 2026 चुनावों से पहले यह बहस तेज हो रही है। डीएमके की याचिका लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा का प्रयास है, लेकिन इसका असर राष्ट्रीय स्तर पर दिखेगा। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई एसआईआर के भाग्य पर फैसला करेगी।