बीते 5 साल में कश्मीर घाटी में आतंकवाद का स्वरूप बदला है, मामला सिर्फ़ अलगाववाद का नहीं रह गया है, इसलाम की अपनी व्याख्या लोगों के दिमाग में उतार कर उन्हें धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ भड़काने का है। क्या यह पूरे देश में बढ़ती कट्टरता का जवाब है? क्या उग्र हिन्दुत्ववाद की वजह से शरीआ के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ रहा है? क्या हिन्दू राष्ट्र के नारे की वजह से लोग
इसलामी ख़िलाफ़त की ओर बढ़ रहे हैं?
ये सवाल इसलिए भी उठते हैं कि मोदी सरकार इन्हीं 5 सालों में घाटी में आतंकवाद को कुचलने का दावा करती है। इससे जुड़े कई दूसरे सवाल भी हैं।
सख़्त नीतियों का फ़ायदा?
क्या जम्मू-कश्मीर से सख़्ती से निपटने की बीते 5 साल की नीति से कोई फ़ायदा हुआ है? क्या सुरक्षा बलों के 1.50 लाख लोगों की तैनाती और कड़ी कार्रवाई से घाटी में आतंकवाद की रीढ़ टूट गई है? क्या पहले से ज़्यादा आतंकवादियों के मारे जाने से कश्मीर में आतंकवाद ख़त्म हो रहा है और राज्य शांति की ओर लौट रहा है? क्या
अलगाववाद की भावना में कमी आई है?
ये सवाल इसलिए उठते हैं कि गृह मंत्रालय ने यह दावा किया है कि बीते 5 साल में 963 आतंकवादी मारे गए हैं, सीमा पार से होने वाली घुसपैठ में 43 फ़ीसद की कमी आई है, स्थानीय लोगों के आतंकवादी बनने में 40 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है और 22 फ़ीसद ज़्यादा आतंकवादी मारे गए हैं। इसके साथ ही मौजूदा साल के पहले छह महीनों में सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने की वारदात घट कर 2,600 पर आ गई है। नरेंद्र मोदी सरकार का दावा है कि ‘मस्कुलर पॉलिसी’ यानी सख़्त नीतियों की वजह से घाटी में आतंकवाद ख़ात्मे की ओर बढ़ रहा है। क्या सचमुच? यह एक बहुत बड़ा सवाल है।
जम्मू-कश्मीर के आतंकवाद के बदलते चरित्र, राज्य के युवाओं में बढ़ते कट्टरवाद, इसलामीकरण और सीमा पार से आतंकवाद संचालित करने वालों की बदलती रणनीति से यह साफ़ है कि स्थिति बदतर ही हुई है।
पाक की बदलती रणनीति
पर्यवेक्षकों का कहना है कि जम्मू-कश्मीर में लगभग 300 आतंकवादी सक्रिय हैं। लेकिन इनमें से करीब 200 स्थानीय हैं। पहले पाकिस्तान से आने वाले आतंकवादी ही प्रमुख होते थे और इक्के-दुक्के स्थानीय लोग ही उनके साथ जुड़ते थे। लेकिन अब मुख्य कार्रवाई करने वाले लोग स्थानीय होते हैं और पाकिस्तान से आने वाले लोग उन्हें दिशा निर्देश देने और नियंत्रित करने का काम करते हैं। पहले सरकार के लोग सोचते थे कि धीरे धीरे आतंकवादी भी थकने लगेंगे और वे पीछे हटने लगेंगे। पाकिस्तान ने इसकी काट के लिए जो रणनीति अपनाई है, उसके तहत वह एक साथ सभी आतंकवादी गुटों को सक्रिय नहीं करती है। वह एक को सक्रिय करती है, उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई बढ़ने से उसे पीछे करती है और दूसरे गुट को सामने लाती है। मसलन, जब हरकत-उल-मुजाहिदीन के ज़्यादा लोग मारे जाते हैं तो वह उन्हें समेट कर
लश्कर-ए-तैयबा को सामने लाता है, उनके थकने पर अंसार ग़ज़ावत-अल-हिंद को आगे बढ़ाता है।
एक तरह से वह शतरंज की गोटियों की तरह उन्हें आगे बढ़ाता है, पीछे खिसकाता है। इसी तरह जब दक्षिण कश्मीर में सुरक्षा बलों की सक्रियता बढ़ती है तो पाकिस्तान उत्तर कश्मीर को सुलगाता है। सबकी नज़र शोपियाँ, पुलवामा, बारामुला, अनंतनाग, बडगाम की ओर अब तक थी, कई अचरज नहीं यदि अब डोडा और किश्तवार जैसी जगहों पर आतंकवादी सक्रिय हो जाएँ। उत्तर और केंद्रीय कश्मीर में यह फ़ायदा भी है कि सीमा पास होने से हथियार हासिल करने में सुविधा होती है।
सबसे चिंता की बात यह है कि कश्मीर के युवाओं का इसलामीकरण तेज़ी से हो रहा है, उनमें कट्टरता बहुत बढ़ रही है। अब वे इसलामी ख़िलाफ़त यानी इसलामी सिद्धांतों से चलने वाले राज्य की परिकल्पना से ज़्यादा रोमांचित होते हैं और शरीआ क़ानून लागू करने का सपना देखने लगे हैं।
इसलामिक स्टेट की दस्तक?
बीते साल मुठभेड़ में मारा गया ज़ाकिर मूसा अंसार ग़ज़ावत-अल-हिंद का था और वह खुले आम कहता था कि उसका मक़सद कश्मीर को भारत से आज़ाद कराना नहीं, यहाँ शरीआ लागू कराना है। वह कहता था कि उसे इसलामी कश्मीर चाहिए, धर्मनिरपेक्ष कश्मीर नहीं। उसने हुर्रियत नेताओं तक को मार डालने की धमकी दे रखी थी कि वे आज़ादी के बाद धर्मनिरपेक्षता की बात न करें और इस लड़ाई को धर्मनरिपेक्ष बनाए रखने पर ज़ोर न दें। इसी तरह बीते साल श्रीनगर की मशहूर जामा मसजिद पर किसी ने इसलामिक स्टेट का झंडा फहराया था। हालाँकि पुलिस ने कहा किया था कि यह कुछ शरारती तत्वों का काम है और इसे आईएसआईएस की मौजूदगी न माना जाए, सच यह है कि इसलामिक स्टेट ही नहीं, अल क़ायदा भी घाटी पहुँच चुका है।
सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है? हिन्दुत्व और इसलामी शरीआ के बीच कश्मीरियत कहाँ खोती जा रही है? यह नया कश्मीर है? देश को इन सवालों का जवाब जल्द से जल्द ढूंढ लेना होगा, वर्ना
कश्मीर घाटी तेज़ी से फिसलता हुआ मुट्ठी से निकल जा सकता है।
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