सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता और सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर की आपराधिक मानहानि मामले में दोषसिद्धि को बरकरार रखा। यह मामला दिल्ली के उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना द्वारा 2001 में दायर किया गया था। हालांकि, कोर्ट ने पाटकर पर लगाए गए 1 लाख रुपये के जुर्माने को रद्द कर दिया और उनकी प्रोबेशन शर्तों में भी बदलाव किया। इस फैसले ने 24 साल पुराने इस मामले को एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया है।

यह विवाद 25 नवंबर 2000 को मेधा पाटकर द्वारा जारी एक प्रेस नोट से शुरू हुआ, जिसका शीर्षक था 'ट्रू फेस ऑफ पैट्रियट'। इस प्रेस नोट में पाटकर ने सक्सेना पर कई गंभीर आरोप लगाए थे। उन्होंने दावा किया था कि सक्सेना हवाला लेनदेन में शामिल थे, उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन को 40,000 रुपये का एक चेक दिया था जो खाते के अस्तित्व में न होने के कारण बाउंस हो गया और उन्हें 'कायर' और 'देशभक्त नहीं' कहा था। उस समय विनय कुमार सक्सेना अहमदाबाद स्थित गैर-सरकारी संगठन नेशनल काउंसिल फॉर सिविल लिबर्टीज के प्रमुख थे।
सक्सेना ने इन बयानों को मानहानिकारक मानते हुए पाटकर के खिलाफ दो आपराधिक मानहानि के मुकदमे दायर किए थे। एक मुकदमा एक टेलीविजन साक्षात्कार में कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणियों को लेकर था, जबकि दूसरा प्रेस नोट से संबंधित था। यह मामला 2003 में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अहमदाबाद से दिल्ली स्थानांतरित किया गया था। 

निचली अदालतों का फैसला

जुलाई 2024 में दिल्ली की एक मजिस्ट्रेट अदालत ने मेधा पाटकर को भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 500 यानी आपराधिक मानहानि के तहत दोषी ठहराया। अदालत ने पाटकर को पांच महीने की साधारण कैद और 10 लाख रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। मजिस्ट्रेट अदालत ने अपने फैसले में कहा कि पाटकर के बयान 'न केवल स्वयं में मानहानिकारक थे, बल्कि सक्सेना के बारे में नकारात्मक धारणाएं भड़काने के लिए बनाए गए थे।' 

अदालत ने यह भी कहा कि सक्सेना के खिलाफ गुजरात के लोगों और उनके संसाधनों को विदेशी हितों के लिए गिरवी रखने का आरोप उनकी निष्ठा और सार्वजनिक सेवा पर सीधा हमला था।

इसके बाद, पाटकर ने इस फैसले को सत्र न्यायालय में चुनौती दी। अप्रैल 2025 में सत्र न्यायालय ने उनकी दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन उन्हें एक साल के लिए 'अच्छे आचरण की प्रेबेशन' पर रिहा कर दिया, बशर्ते कि वह 25,000 रुपये का प्रोबेशन बॉन्ड और 1 लाख रुपये का जुर्माना जमा करें। हालांकि, पाटकर ने सत्र न्यायालय के इस आदेश का पालन नहीं किया, जिसके कारण उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किया गया था। 

दिल्ली हाईकोर्ट का फ़ैसला

29 जुलाई 2025 को दिल्ली हाईकोर्ट ने मेधा पाटकर की दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखा। हाईकोर्ट की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा कि निचली अदालत के फैसले में कोई अवैधता या सामग्री अनियमितता नहीं थी। कोर्ट ने यह भी कहा कि पाटकर यह दिखाने में विफल रहीं कि प्रक्रिया में कोई दोष था या कानून में कोई त्रुटि हुई जिसके परिणामस्वरूप न्याय का गलत उपयोग हुआ। हालांकि, हाईकोर्ट ने परिवीक्षा की शर्तों में बदलाव किया और पाटकर को हर तीन महीने में ट्रायल कोर्ट में उपस्थित होने की शर्त को हटा दिया, जिससे उन्हें व्यक्तिगत रूप से, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से, या अपने वकील के माध्यम से उपस्थित होने की अनुमति दी गई।

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला

सुप्रीम कोर्ट में मेधा पाटकर की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता संजय परिख और अभिमनु श्रीष्टा ने पैरवी की। उन्होंने तर्क दिया कि अपीलीय अदालत ने दो प्रमुख गवाहों पर विश्वास नहीं किया था और अहम सबूत के रूप में पेश किया गया ईमेल भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी के तहत प्रमाणित नहीं था, जिसके कारण इसे अस्वीकार्य माना जाना चाहिए। हालांकि, जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने दोषसिद्धि में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।

कोर्ट ने कहा, "हम दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप करने के इच्छुक नहीं हैं, जिसने पाटकर को 'अच्छे आचरण की परिवीक्षा' पर रिहा किया था।" हालांकि, कोर्ट ने पाटकर के वकील की दलीलों को ध्यान में रखते हुए 1 लाख रुपये के जुर्माने को रद्द कर दिया और परिवीक्षा की निगरानी की शर्त को भी हटा दिया। कोर्ट ने पाटकर को जेल की सजा से छूट देने के लिए बॉन्ड जमा करने का निर्देश दिया और इसके लिए दो सप्ताह का समय दिया। 

पाटकर और सक्सेना के बीच पुराना विवाद

यह मामला पाटकर और सक्सेना के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवाद का है। 2000 में पाटकर ने सक्सेना के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि सक्सेना ने उनके और नर्मदा बचाओ आंदोलन के खिलाफ मानहानिकारक विज्ञापन प्रकाशित किए थे। सक्सेना ने जवाब में पाटकर के खिलाफ दो मानहानि के मुकदमे दायर किए। इस लंबे कानूनी विवाद ने नर्मदा बचाओ आंदोलन और सक्सेना के एनजीओ के बीच तनाव को और बढ़ा दिया। 

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने मेधा पाटकर के खिलाफ 24 साल पुराने मानहानि मामले को अंतिम रूप दे दिया है। हालांकि, जुर्माने को रद्द करने और परिवीक्षा शर्तों में ढील देने से पाटकर को कुछ राहत मिली है। यह मामला न केवल कानूनी नज़रिए से अहम है, बल्कि यह सामाजिक आंदोलनों, स्वतंत्र अभिव्यक्ति, और मानहानि कानूनों के दुरुपयोग के सवालों को भी उठाता है।