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समाज सुधार के लिए भावनाएँ आहत करना भी ज़रूरी, कहा नयनतारा सहगल ने

  • कुछ दिन पहले ही मराठी भाषा के सबसे बड़े साहित्यिक कार्यक्रम अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन से नयनतारा सहगल का नाम हटा दिया गया था। समझा जाता है कि सरकार के दबाव में ऐसा किया गया। नयनतारा इस कार्यक्रम में जो भाषण देने वाली थीं, उसका कुछ अंश हम यहाँ दे रहे हैं। केंद्र की बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ सरकारी पुरस्कार की वापसी और असहिष्णुता के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों में नयनतारा ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। 

यह मेरे लिए एक भावुक क्षण है। मेरे लिए इसलिए भी यह क्षण गौरव का क्षण है क्योंकि मैं ख़ुद को अपने पिताजी रंजीत सीताराम पंडित के माध्यम से महाराष्ट्र से जुड़ा हुआ पाती हूँ। मैं उनसे जुड़ी हुई एक छोटी कहानी आपको बताती हूँ। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने मुद्राराक्षस, कालिदास का ऋतुसंहार और राजतरिंगिणी का संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद किया था। 

उन्होंने यह अनुवाद उस वक़्त किया जब वह अंग्रेजी शासन के दौरान जेल में थे और इसे उन्होंने अपने कश्मीरी ससुर पंडित जवाहर लाल नेहरू को समर्पित किया था। जवाहर लाल नेहरू ने राजतरिंगिणी के अनुवाद की प्रस्तावना लिखी थी। 

पिताजी ने लड़ी आज़ादी की लड़ाई

मेरे माता-पिता ने महात्मा गाँधी की अगुवाई में चल रही आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। मेरी माँ विजयलक्ष्मी पंडित तीन बार जेल गईं और मेरे पिताजी चार बार। जब वह चौथी बार जेल गए तो बरेली जेल की आबोहवा की वजह से गंभीर रूप से बीमार हो गए और उनकी हालत काफ़ी ख़राब हो गई। उनको कोई दवा भी नहीं दी गई थी और न ही मेरी माँ को बताया गया कि वह कितने बीमार हैं। 

आज के राजनीतिक माहौल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कोई जगह नहीं है और ऐसे में जहाँ सोचने की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति सम्मान नहीं होता, वहाँ लिखना बेहद ख़तरनाक होता है।

बीमारी के बावजूद उन्होंने जेल से रिहा होने से इनकार कर दिया। जब मेरी माँ को उनकी बीमारी के बारे में बताया गया तब उन्हें मेरे पिताजी से मिलने के लिए सिर्फ़ 20 मिनट का वक़्त दिया गया। मेरी माँ को यह देखकर सदमा लगा जब उन्होंने मेरे पिताजी को स्ट्रैचर पर पाया। उनके बाल मूड़ दिए गए थे और शरीर जर्जर हो गया था। 

मेरी माँ बहुत मुश्किल से अपने आँसुओं को रोक पाई। मेरे पिताजी ने कहा कि वह रिहा होने के लिए चिरौरी नहीं करेंगे। उन्होंने कहा था कि मैंने गाँधी और नेहरू जैसे शेरों के साथ लड़ाई लड़ी है और तुम चाहती हो कि मैं सियार बन जाऊँ। मेरे पिताजी की जेल से रिहा होने के तीन हफ़्ते बाद ही मौत हो गई। 

बहुत साल बाद जब मेरी माँ ब्रिटेन में भारत की उच्चायुक्त नियुक्त हुईं और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के साथ लंच कर रही थीं तब चर्चिल ने उनसे कहा, हमने तुम्हारे पति की हत्या की है। यह सुनकर, मेरी माँ चौंक गई। मेरे माता-पिता उन हजारों भारतीयों में से थे जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा दी।

ख़तरे में है हमारी आज़ादी 

आज मैं यह सवाल पूछना चाहती हूँ कि क्या आज़ादी के लिए आज भी वही भावना है। मैं यह सवाल इसलिए पूछ रही हूँ कि क्योंकि आज हमारी आज़ादी ख़तरे में है। जब मैं इन ख़तरों के बारे में बात करती हूँ तो मुझे भारत में आज जो कुछ हो रहा है, उसके बारे में बताना होगा। क्योंकि यह हमारी जिंदगी के हर पहलू को प्रभावित कर रहा है - हम क्या खाते हैं, हम किससे शादी करते हैं, हम क्या सोचते हैं, हम क्या लिखते हैं और हम किसकी पूजा करते हैं। 

विविधता हमारी सभ्यता का मूल 

आज ऐसे हालात बन गए हैं जहाँ विविधता और सत्ताधारी विचारधारा का विरोध भयंकर ख़तरे में है। विविधता हमारी सभ्यता का मूल है। अलग-अलग भाषाओं में बहुत पुराना साहित्य लिखा गया है। हम अलग-अलग तरीक़े का भोजन करते हैं, हम अलग-अलग तरीक़े से कपड़े पहनते हैं और अलग-अलग त्योहार मनाते हैं और अलग-अलग धर्मों का पालन करते हैं। 

साथ लेकर चलना हमारी जीवनशैली 

सबको साथ लेकर चलना ही हमारी जीवनशैली है और यह भारत जैसी बहु सांस्कृतिक सभ्यता की सबसे बड़ी उपलब्धि है। दुनिया में कोई और देश भारत का मुक़ाबला नहीं कर सकता लेकिन आज एक ऐसा विचार आ गया है जिसकी वजह से हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक विभिन्नता को ख़तरा पैदा हो गया है और जो हमें एक धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर रहा है। 

यह विचार अपने एक क़दम से लाखों हिंदुस्तानी स्त्री और पुरूषों को, जो हिंदू नहीं हैं, उनके संवैधानिक अधिकार छीन लेना चाहता है और इन्हें बाहरी और देश का दुश्मन साबित करना चाहता है।

यह विचार अपने एक क़दम से लाखों हिंदुस्तानी स्त्री और पुरूषों को, जो हिंदू नहीं हैं, उनके संवैधानिक अधिकार छीन लेना चाहता है और इन्हें बाहरी और देश का दुश्मन साबित करना चाहता है। 

लोगों को इस बात के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता कि वे एक ही जैसा सोचें। हर समाज के अलग विचार होते हैं। भावनाएँ यह तय नहीं कर सकतीं कि क्या सही है और क्या ग़लत है।

धार्मिक पहचान को नकार दिया था

आज़ादी के समय हमारे नेताओं ने धार्मिक पहचान को नकार कर एक सेक्युलर और लोकतांत्रिक गणराज्य होना स्वीकार किया था, इसलिए नहीं कि वे धर्म विरोधी थे बल्कि इसलिए कि भारत जैसे अत्यंत धार्मिक देश में बहुत सारे धर्म हैं और सिर्फ़ एक धर्मनिरपेक्ष राज्य व्यवस्था ही सबको अपनी आस्था के हिसाब से जीने और पूजा करने की अनुमति दे सकती है। 

जिस संविधान सभा ने यह फ़ैसला लिया, उसमें बहुतायत हिंदुओं की थी। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे विचारों के प्रेरणास्रोत बाबा साहेब आंबेडकर थे, जिन्हें संविधान का मुख्य रचियता माना जाता है। आज ये आदर्श कोने में फेंक दिए गए हैं। अल्पसंख्यक और दूसरे वे लोग जो हिंदू राष्ट्र का समर्थन नहीं करते उनको धर्मांध लोग अपना निशाना बनाते हैं। 

झूठे आरोप में किया गिरफ़्तार

हमने अभी हाल ही में देखा है कि कैसे पाँच नागरिकों को देशद्रोह के झूठे आरोप लगाकर गिरफ़्तार किया गया। ये वे लोग हैं जिन्होंने बरसों अपनी जिंदगी आदिवासियों और हाशिये पर रहे लोगों को इंसाफ़ दिलाने के लिए बिताई है। गिरिज़ाघरों पर हमले हो रहे हैं और ईसाई अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। भीड़तंत्र गाय हत्या और गौ माँस खाने की झूठी अफ़वाहों की आड़ में मुसलमानों पर हमले कर रही है और उनकी जान ले रही है। हम ये अराजकता टीवी पर देख रहे हैं। उत्तर प्रदेश में गाय के बहाने भीड़ लोगों पर हमले कर रही है और सत्ता चुपचाप खड़ी तमाशा देख रही है। जब इस तरह का आंतकवाद, जैसा कि उत्तर प्रदेश में देखने को मिल रहा है, आधिकारिक हो जाता है तो हम इंसाफ़ की गुहार कहाँ लगाएँ।

अपराधियों को मिल रही बधाई 

कई जगह पर ये भी देखने को मिल रहा है कि उल्टे पीड़ितों पर ही मुक़दमे दर्ज़ किए जा रहे हैं और अपराधियों को बधाई दी जा रही है। इस त्रासदीपूर्ण माहौल का ये असर है कि चारों तरफ़ भय और दु:ख का वातावरण है और लोग अपने को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं। बहुत सारे ग़रीब और बेसहारा लोगों को उनके गाँव और घरों-नौकरियों से बेदख़ल कर दिया गया है। 

एक लेखक के तौर पर हमें यह देखना होगा कि इस राजनीतिक माहौल में लेखकों और कलाकारों के साथ क्या बर्ताव हो रहा है। आज हम यह देख रहे हैं कि सवाल करने वाले मस्तिष्क, रचनाधर्मिता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आज के राजनीतिक माहौल में कोई स्थान नहीं है। और जहाँ सोचने की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति सम्मान नहीं है, वहाँ लिखना ख़तरनाक हो गया है। 

आज ऐसे हालात बन गए हैं जहाँ विविधता और सत्ताधारी विचारधारा का विरोध करना बेहद ख़तरनाक हो गया है। इसकी वजह से हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक विभिन्नता को ख़तरा पैदा हो गया है।

दुनिया भर में अधिनायकवादी सरकारों के तहत अक्सर ऐसा होता है जहाँ कला सरकारी नियंत्रण में रख दी जाती है और लेखकों को सज़ा दी जाती है। हमारे सामने स्टालिन के सोवियत संघ में युवा कवि जोसेफ़ ब्रॉड्स्की का उदाहरण है। ब्रॉड्स्की की गिरफ़्तारी के बाद जाँच करने वाले अधिकारी ने उनके सामने एक कागज लहराते हुए पूछा, ‘तुम अपने आप को कवि कहते हो, तुम इसे कविता मानते हो, यह तब तक कविता नहीं है जब तक इसकी सोवियत संघ के निर्माण में कोई भूमिका नहीं है।’ और वह ब्रॉड्स्की को जेल में बंद कर देता है। सालों बाद ब्रॉड्स्की को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया जाता है। 

इसी तरह से एक रूसी प्रसिद्ध साहित्यकार सोल्जे़ नेत्सिन का उदाहरण है। जिन्हें सरकार की आलोचना करने की वजह से सालों साइबेरिया के लेबर कैंप में रहना पड़ा। उन्हें भी नोबेल प्राइज मिला था।

Nayantara Sahgal speech Marathi Sahitya Sammelan - Satya Hindi

बोलने पर गंवाई जान

नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे और एम. एम. कालबुर्गी जैसे अत्यंत प्रतिष्ठित बुद्धिवादियों को अंधविश्वास का विरोध करने की वजह से गोली मार दी गई और हिंदुत्व का विरोध करने और स्वतंत्र विचार रखने की वजह से गौरी लंकेश को भी जान से हाथ धोना पड़ा।

हमें कहा जाता है, किताब पब्लिश मत करो, नहीं तो जला देंगे, अपनी पेंटिंग की प्रदर्शनी मत लगाओ, नहीं तो प्रदर्शनी तबाह कर देंगे। फ़िल्मकारों को कहा जाता है कि फलां सीन में फलां संवाद हटा दो या फिर फलां सीन को काट दो नहीं तो तुम्हारी फ़िल्म नहीं दिखाने देंगे। हमारी भावनाओं को चोट पहुँचाने वाला कोई काम आप मत करिए, इसका मतलब यह है कि ये कह रहे हैं कि जैसा कहा जाए, वैसा ही करो, अन्यथा न तो तुम्हारी जिंदगी सुरक्षित होगी और न ही कला। लेकिन रचनाधर्मिता न तो सरकारों से और न ही भीड़ से आदेश ले सकती है। 

एक विचार को थोप नहीं सकते

100 करोड़ लोगों को एक तरीक़े से सोचने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, हर समाज के अलग विचार होते हैं। भावनाएँ ये तय नहीं कर सकतीं कि क्या सही है और क्या ग़लत है। कुछ मामलों में लोगों की भावनाओं को तकलीफ़ पहुँचाना भी हमारा कर्तव्य है। अगर हमें लोगों की भावनाओं को चोट पहुँचाने से रोका जाएगा तब हम विधवाओं को पहले की तरह से जलाते रहेंगे और किसी तरीक़े का कोई सुधार संभव नहीं हो पाएगा।

तोड़ा-मरोड़ा जा रहा इतिहास 

बहुत लोगों की भावनाएँ आहत हुईं जब हिंदू कोड बिल पर बहस हुई। साधुओं ने संसद पर पत्थर फेंके लेकिन अगर वह विधेयक नहीं पास होता तो हिंदू औरतों को अधिकार नहीं मिलते। आज, भारतीय इतिहास को भी सरकारी नियंत्रण के अधीन लाया जा रहा है। कुछ राज्यों में इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। कुछ किताबों से मुग़ल इतिहास को हटा दिया गया है। बाबरी मसजिद ढहा दी गई है। मुग़ल और मुसलिम नामों वाले शहरों और सड़कों के नाम बदले जा रहे हैं। कुछ किताबों से नेहरू का जिक़्र काट दिया गया है। 

1948 में इसी मानसिकता ने महात्मा गाँधी का क़त्ल किया, जिसके लिए ‘ईश्वर, अल्लाह तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान’, ईशनिंदा समान है। ऐसा कहा जा रहा है कि गाँधी की अहिंसा हिंदुस्तानियों को कमजोर करती है और उन्हें क़ायर बनाती है। 

विविधता, विरोध और बहस के ख़िलाफ़ जो युद्ध चल रहा है उसमें रिटायर्ड नौकरशाह, छात्र, वकील, दलित, आदिवासी और किसान आगे आकर आवाज़ उठा रहे हैं।

स्वतंत्रता चाहने वाले नहीं हैं चुप 

आज वैज्ञानिक सोच की जगह किंवदंतियों और मध्यकालीन सोच को जगह दी जा रही है। मैं एक हिंदू हूँ और सनातन धर्म की विरासत को मानती हूँ, इसलिए मैं हिंदुत्व को स्वीकार नहीं कर सकती। विविधता, विरोध और बहस के ख़िलाफ़ इस घोषित युद्ध में जो स्वतंत्रता के पोषक हैं, वे चुप नहीं हैं। हमारे मौलिक अधिकारों के विध्वंस के ख़िलाफ़ रैलियाँ हो रही हैं। रिटायर्ड नौकरशाह, छात्र और विद्वतजन, वकील, इतिहासकार, वैज्ञानिक, दलित, आदिवासी और किसान आज अपने अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। 

विरोध में उठाई आवाज़

बाबा साहब अंबेडकर और ई. रामास्वामी पेरियार ने 1920 के दशक में मनुस्मृति को जलाया था क्योंकि इसमें जाति प्रथा के अंतर्गत दलितों के ख़िलाफ़ कुछ आपत्तिजनक नियम थे। इसी तरह से गायक टी. एम. कृष्णा, इतिहासकार राम चंद्र गुहा, अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने भी विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद की। ऐसे मौक़ों पर लेखक क्या कर सकता है, जवाब है - वह लिख सकता है। 

लेखक अपनी हवाई दुनिया में नहीं रहता है। कला के दूसरे स्वरूप की तरह लेखन भी राजनीतिक सक्रियता का एक शक्तिशाली स्वरूप है। यह विद्रोह का एक तरीक़ा है। इसीलिए तानाशाह इससे इतना भयभीत होते हैं और इस पर नियंत्रण करने की कोशिश करते हैं।

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क़मर वहीद नक़वी
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