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एससी, एसटी आरक्षण पर पीएम मोदी का नेहरू पर हमला क्यों; उनकी राय क्या थी?

राहुल गांधी द्वारा इस चुनाव में जाति जनगणना और सबकी समान भागीदारी सुनिश्चित करने को मुद्दा बनाए जाने के बीच अब पीएम मोदी ने जवाहर लाल नेहरू पर निशाना साधा है। इसी हफ़्ते बिहार में एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, 'सच्चाई यह है कि अगर आंबेडकर नहीं होते तो नेहरू एससी-एसटी के लिए आरक्षण नहीं होने देते।' 

तो सवाल है कि क्या देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू आरक्षण के विरोधी थे? यदि वह विरोधी थे तो फिर आरक्षण उनकी सरकार में न सिर्फ़ लागू हुआ, बल्कि लगातार आगे भी जारी कैसे रहा? क्या संविधान सभा में जब आरक्षण पर बहस हो रही थी तो इसका उन्होंने विरोध किया था? या फिर मामला कुछ और है?

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संविधान सभा में आरक्षण पर बहस में नेहरू किस तरह पेश आए थे, या फिर बाद में इस पर उनकी क्या राय सामने आई थी, यह समझने से पहले यह जान लें कि आरक्षण को संवैधानिक दर्जा देने पर संविधान सभा में किस तरह की बहस हुई थी।

जब पहली बार संविधान लागू हुआ तो इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए राजनीतिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के प्रावधान थे। संविधान का अनुच्छेद 16 राज्यों को नागरिकों के किसी भी पिछड़े वर्ग के लिए, जिनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था देता है। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार शुरू में इसे 'मसौदा अनुच्छेद 10' के रूप में जाना जाता था। संविधान सभा के सदस्यों ने 30 नवंबर, 1948 को इस पर बहस की थी। इस मसौदे में 'पिछड़ा वर्ग' पर गर्मागर्म बहस हुई थी। 

कांग्रेस के चंद्रिका राम और धर्म प्रकाश देश के पहले दलित वकीलों में से एक थे। उन्होंने 'पिछड़ा वर्ग' की जगह 'अनुसूचित जाति' शब्द को शामिल करने की वकालत की। दूसरी ओर, कांग्रेस के ही सदस्य लोकनाथ मिश्रा और दामोदर स्वरूप सेठ जैसे सदस्यों ने 'पिछड़े वर्गों' के लिए आरक्षण को हटाने की मांग की। अंग्रेजी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार मिश्रा ने विधानसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि किसी भी नागरिक के लिए सरकारी रोजगार के एक हिस्से का दावा करना मौलिक अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा था कि यह योग्यता के आधार पर होना चाहिए।
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अंग्रेजी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार आरक्षण पर बहस में आंबेडकर ने कहा कि सरकारी नौकरियों के मामले में सभी नागरिकों को अवसर की समानता मिलनी चाहिए। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने तर्क दिया कि 'पिछड़ा' शब्द यह सुनिश्चित करने के लिए एक ज़रूरी योग्यता थी कि वे उत्पीड़ित समुदाय हों। उन्होंने आरक्षण को अपवाद बताया और कहा कि यह ऐसा नहीं होना चाहिए कि यह अवसर की समानता का अधिकार ही ख़त्म कर दे। 

पिछड़ा समुदाय क्या है? इसको लेकर आंबेडकर ने कहा था कि इसका निर्धारण प्रत्येक स्थानीय या राज्य सरकार द्वारा किया जाएगा।

आरक्षण पर नेहरू का क्या विचार था?

जब संविधान सभा में आरक्षण से जुड़े अनुच्छेदों पर बहस चल रही थी तो नेहरू का उस बहस में योगदान नहीं था। यानी एक तरह से कह सकते हैं कि जब संविधान सभा में आरक्षण के प्रावधान किए जा रहे थे उसमें न तो नेहरू ने विरोध किया था और न ही समर्थन। जब वह देश के पहले प्रधानमंत्री बने और उनकी सरकार बनी तो आरक्षण लागू हुआ। उनकी सरकार के दौरान लगातार आरक्षण की व्यवस्था बनी रही। लेकिन इसके बावजूद एक सवाल यह है कि आख़िर आरक्षण पर उनका विचार क्या था?

आरक्षण पर नेहरू का बयान 1960 के बाद साफ़ हुआ। पीएम बनने के बाद नेहरू ने जून 1961 में मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने पिछड़े समूहों को अच्छी शिक्षा तक पहुंच देकर उन्हें सशक्त बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया, न कि जाति और पंथ के आधार पर नौकरियों को आरक्षित करके।

द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा, 'यह सच है कि हम एससी और एसटी की मदद के बारे में कुछ नियमों और परंपराओं से बंधे हैं। वे मदद के पात्र हैं, लेकिन फिर भी, मैं किसी भी प्रकार के आरक्षण को नापसंद करता हूं, खासकर सेवा में...। किसी पिछड़े समूह की मदद करने का एकमात्र वास्तविक तरीका अच्छी शिक्षा के अवसर देना है। इसमें तकनीकी शिक्षा भी शामिल है, जो लगातार महत्वपूर्ण होती जा रही है। बाकी सब कुछ किसी प्रकार की बैसाखी वाला प्रावधान है जो शरीर की ताकत या स्वास्थ्य में वृद्धि नहीं करता है।'

पत्र में उन्होंने आगे कहा था कि सांप्रदायिक और जातिगत आधार पर आरक्षण 'प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों को बर्बाद कर देता है जबकि समाज दोयम दर्जे या तीसरे दर्जे का बना रहता है'। उन्होंने कहा था, 'मुझे यह जानकर दुख हुआ कि सांप्रदायिक विचार के आधार पर आरक्षण का यह मामला कितना आगे बढ़ गया है।' ऐसी राय रखने के बावजूद उनकी सरकार में आरक्षण ख़त्म नहीं हुआ और यह बदस्तूर जारी रहा।

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आरक्षण की जो व्यवस्था की गई वह 10 वर्षों के लिए थी। अनुच्छेद 334 (अनुच्छेद 295-ए का मसौदा) के तहत आरक्षण के लिए 10 साल की समय सीमा को लेकर भी आपत्तियां उठाई गई थीं। शुरुआत में संविधान के तहत लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण के प्रावधान 10 वर्षों के बाद समाप्त होने वाले थे। लेकिन बड़ी संख्या में सदस्यों ने संदेह व्यक्त किया कि इतनी कम समय सीमा के भीतर किसी भी प्रकार की गुणवत्ता हासिल की जा सकती है।

संविधान सभा में तीखी बहस के बावजूद आख़िरकार इन अनुच्छेदों को कुछ बदलावों के साथ अपनाया गया। हालाँकि, अनुच्छेद 334 कई संवैधानिक संशोधनों का विषय रहा है, जहाँ 10 साल की सीमा को हर बार अतिरिक्त 10 साल के लिए बढ़ाया गया है। हाल ही में 2020 में संविधान (104वें) संशोधन अधिनियम के बाद विधायिकाओं में एससी और एसटी आरक्षण की समय सीमा 2030 तक बढ़ा दी गई।

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