श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद विवाद में केंद्र सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को शामिल करने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा? जानिए कोर्ट फैसले के पीछे का तर्क।
सुप्रीम कोर्ट ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद विवाद में एक अहम फ़ैसला सुनाया है। कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस आदेश को सही ठहराया है, जिसमें हिंदू पक्ष को अपनी याचिका में संशोधन कर केंद्र सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआई को प्रतिवादी के रूप में शामिल करने की अनुमति दी गई थी। यह मामला मथुरा में 13.37 एकड़ के उस ज़मीन विवाद से जुड़ा है, जहाँ शाही ईदगाह मस्जिद और कटरा केशव देव मंदिर एक ही परिसर में हैं। हिंदू पक्ष का दावा है कि मस्जिद का निर्माण औरंगजेब द्वारा श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर को तोड़कर किया गया था, जबकि मुस्लिम पक्ष इसे 1991 के पूजा स्थल अधिनियम के तहत संरक्षित मानता है। सुप्रीम कोर्ट के इस ताज़ा फ़ैसले ने मामले को नई दिशा दी है, जिसका असर न केवल मथुरा के इस विवाद पर, बल्कि देश के अन्य मंदिर-मस्जिद विवादों पर भी पड़ सकता है।
श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद मथुरा में लंबे समय से चल रहा है। हिंदू पक्ष में भगवान श्रीकृष्ण विराजमान (देवता) और अन्य याचिकाकर्ता शामिल हैं। इनका दावा है कि शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण 1669-70 में औरंगजेब द्वारा श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर को ध्वस्त करके किया गया था। उनकी माँग है कि मस्जिद को हटाकर पूरे 13.37 एकड़ भूमि पर उनका अधिकार स्थापित किया जाए। दूसरी ओर, शाही ईदगाह मस्जिद ट्रस्ट और उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड का कहना है कि यह मुकदमा 1991 के पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1963 के सीमा अधिनियम और 1963 के विशिष्ट राहत अधिनियम के तहत विचारणीय नहीं है, क्योंकि यह 15 अगस्त, 1947 को मौजूद धार्मिक स्थल के चरित्र को बदलने का प्रयास करता है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 5 मार्च 2025 को हिंदू पक्ष की एक याचिका को मंजूरी दी थी, जिसमें उन्होंने अपनी मूल याचिका में नए तथ्य जोड़ने और केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय और एएसआई को प्रतिवादी के रूप में शामिल करने की अनुमति माँगी थी। हिंदू पक्ष का तर्क था कि यह स्थल प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम, 1958 के तहत संरक्षित स्मारक है और इसका पुरातात्विक महत्व है, जिसके लिए एएसआई की विशेषज्ञता ज़रूरी है। मुस्लिम पक्ष ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि याचिका में संशोधन और नए पक्षकारों को शामिल करना सही नहीं है, क्योंकि यह मुक़दमे की प्रकृति को बदल देता है।
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने मुस्लिम पक्ष की याचिका पर सुनवाई की। कोर्ट ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत याचिका में संशोधन का अधिकार है, खासकर जब दूसरा पक्ष अपनी जवाबी याचिका में नए आधार उठाता है। कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश में कोई ग़लती नहीं पाई और कहा कि केंद्र और एएसआई को शामिल करना मुक़दमे के बड़े समाधान के लिए सही है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला कई क़ानूनी पहलुओं को उजागर करता है। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा के तहत किसी भी पक्ष को अपनी याचिका में संशोधन करने का अधिकार है। शर्त यह है कि यह मुक़दमे के मूल स्वरूप को न बदले।
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हिंदू पक्ष द्वारा केंद्र और एएसआई को शामिल करना मुकदमे की प्रकृति को नहीं बदलता, बल्कि यह पुरातात्विक और ऐतिहासिक तथ्यों की जाँच के लिए ज़रूरी है।
एएसआई को शामिल करने का निर्णय अहम है, क्योंकि हिंदू पक्ष का दावा है कि मस्जिद परिसर में मंदिर के अवशेष मौजूद हैं। वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद मामले में जिस तरह की एएसआई की वैज्ञानिक जाँच हुई, इस विवाद में निर्णायक हो सकती है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पहले 2023 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी थी, जिसमें मस्जिद परिसर का कोर्ट की निगरानी में सर्वेक्षण करने के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति की गई थी। यह रोक अभी भी लागू है, जो दिखाता है कि कोर्ट इस मामले में सावधानी बरत रहा है।
मुस्लिम पक्ष का मुख्य तर्क यह है कि यह मुक़दमा 1991 के पूजा स्थल अधिनियम का उल्लंघन करता है, जो 15 अगस्त 1947 को मौजूद धार्मिक स्थलों के चरित्र को बदलने पर रोक लगाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बिंदु पर अभी कोई अंतिम राय नहीं दी है, लेकिन इस अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएँ भी लंबित हैं।
बता दें कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मई 2023 में मथुरा की निचली अदालतों में लंबित सभी 18 मुक़दमों को अपने पास स्थानांतरित कर लिया था। इस एकीकरण के खिलाफ मुस्लिम पक्ष की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया, जिससे हाई कोर्ट को इन मामलों को सुनने का अधिकार मिला। सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला इस एकीकरण को और मजबूती देता है। इस फैसले के कई सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव हैं। मथुरा और वाराणसी जैसे मंदिर-मस्जिद विवाद पहले से ही संवेदनशील हैं।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने हिंदू पक्ष को मजबूती दी है, जिसे कुछ लोग धार्मिक विजय के रूप में देख सकते हैं। इस वजह से सामाजिक तनाव बढ़ सकता है, खासकर उत्तर प्रदेश में, जहाँ 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले ऐसे मुद्दे राजनीतिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कई मायनों में अहम है, लेकिन यह कुछ चुनौतियों को भी सामने लाता है। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश को सही ठहराकर यह सुनिश्चित किया है कि मुकदमे में सभी प्रासंगिक पक्षों को शामिल किया जाए। हालांकि, यह सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण होगा कि यह प्रक्रिया 1991 के पूजा स्थल अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन न करे। कोर्ट को इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता पर भी विचार करना होगा, जो कई अन्य याचिकाओं में लंबित है।
एएसआई की भूमिका इस मामले में निर्णायक हो सकती है, लेकिन उसकी जाँच को निष्पक्ष और वैज्ञानिक रखना जरूरी है। ज्ञानवापी मामले में एएसआई की रिपोर्ट पर पहले ही विवाद हो चुका है और मथुरा में भी ऐसी स्थिति आ सकती है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद में एक अहम कदम है। इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा केंद्र और एएसआई को शामिल करने के आदेश को सही ठहराकर कोर्ट ने हिंदू पक्ष को मजबूती दी है, लेकिन साथ ही उसने इस मामले में सावधानी और संतुलन का भी प्रदर्शन किया है। यह फैसला न केवल मथुरा के इस विवाद को प्रभावित करेगा, बल्कि ज्ञानवापी और अन्य धार्मिक स्थल विवादों पर भी असर डालेगा।