सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से आग्रह किया है कि SIR 2026 के तहत गणना फॉर्म जमा करने की समय सीमा बढ़ाने की याचिकाओं की समीक्षा करते समय यूपी और केरल जैसे राज्यों की जमीनी हकीकतों पर विचार किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार 4 दिसंबर को एसआईआर मामले की सुनवाई की।
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को केंद्रीय चुनाव आयोग से कहा कि वो एसआईआर प्रक्रिया के दौरान गणना फॉर्म जमा कराने की तारीख बढ़ाने पर हमदर्दी से विचार करे। अदालत ने विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) 2026 के तहत मतदाता सूची संशोधन के लिए गणना फॉर्म जमा करने की समयसीमा बढ़ाने की याचिकाओं पर “सहानुभूतिपूर्ण नज़रिया अपनाने को कहा। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश और केरल जैसे राज्यों में “जमीनी हकीकत” को ध्यान में रखने की जरूरत पर जोर दिया।
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने यह टिप्पणी की। कोर्ट ने एसआईआर अभियान की संवैधानिक वैधता पर बहस 6 जनवरी 2026 को सुनवाई के लिए तय की है, जब शीतकालीन अवकाश के बाद मामला सूचीबद्ध होगा। चुनाव आयोग को इस अभियान का बचाव करते हुए अपना पक्ष रखना होगा।
केरल में पहले ही एसआईआर का शेड्यूल संशोधित किया जा चुका है, जहां गणना की समयसीमा गुरुवार 18 दिसंबर तक बढ़ा दी गई थी और ड्राफ्ट मतदाता सूची अब 23 दिसंबर को प्रकाशित की जाएगी। उत्तर प्रदेश में गणना फॉर्म जमा करने की संशोधित समयसीमा 26 दिसंबर कर दी गई है।
यूपी में चुनावी प्रक्रिया की जल्दबाजी पर फिर सवाल
उत्तर प्रदेश में एसआईआर अभियान को चुनौती देने वाली याचिकाओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने, जिनमें बराबंकी सांसद तनुज पुनिया भी शामिल हैं, सवाल उठाया कि राज्य में विधानसभा चुनाव 2027 में होने हैं, तो इस संशोधन प्रक्रिया में इतनी जल्दबाजी क्यों की जा रही है?
केरल के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कोर्ट को बताया कि करीब 25 लाख मतदाता ड्राफ्ट मतदाता सूची से बाहर होने के खतरे में हैं। उन्होंने कहा कि राज्य में गणना चरण की अंतिम तारीख 18 दिसंबर है। सिब्बल ने उदाहरण देते हुए कहा, “पति को सूची से बाहर कर दिया जाता है और पत्नी को शामिल रखा जाता है। जब अधिकारियों को इसकी जानकारी होती है, तो वे पत्नी का नाम भी हटा देते हैं।”
बता दें कि चुनाव आयोग ने 11 दिसंबर 2025 को गणना समयसीमा का विस्तार घोषित किया गया था। जिसमें केरल भी शामिल था। क्योंकि राज्य में निकाय चुनाव होने की वजह से सरकार तारीख बढ़ाने की मांग कर रही थी। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने गणना प्रक्रिया में शामिल “स्वयंसेवकों” के साथ नागरिकों के गोपनीय डेटा साझा करने के कथित जोखिमों को उठाने वाली एक अलग याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया।
एसआईआर पर विवाद क्यों
विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) 2026 मतदाता सूची की सफाई का चुनाव आयोग का अभियान है, जिसका उद्देश्य फर्जी, डुप्लीकेट या अयोग्य नाम हटाना और नए मतदाताओं को जोड़ना है। हालांकि, यह प्रक्रिया कई राज्यों, खासकर उत्तर प्रदेश में बड़े विवाद का कारण बन गई है क्योंकि विपक्षी दल इसे मतदाताओं के बड़े पैमाने पर बहिष्कार का जरिया बता रहे हैं। घर-घर सत्यापन की कठोर प्रक्रिया, समयसीमा की दबाव और ड्राफ्ट सूची में लाखों नाम गायब होने की रिपोर्टों ने आशंकाएं बढ़ा दी हैं। इससे मतदाता अधिकार छीने जाने और लोकतंत्र पर खतरे की चिंताएं पैदा हुई हैं, जिससे सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंच गया।
विपक्ष ने एसआईआर को "एनआरसी का छिपा रूप" बताया है। विपक्ष का आरोप है कि मोदी सरकार और बीजेपी इसे विपक्षी समर्थकों, खासकर पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) मतदाताओं के वोट काटने के लिए इस्तेमाल कर रही है। अखिलेश ने दावा किया कि जहां इंडिया गठबंधन या सपा मजबूत है, वहां प्रति सीट 50,000 से ज्यादा वोट हटाए जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक में यह बात उठी कि यह प्रक्रिया मुस्लिमों और अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही है, ताकि भाजपा को चुनावी फायदा मिले। चुनाव आयोग पर भी पक्षपात का आरोप लगा, क्योंकि केंद्र में भाजपा की सरकार होने से संस्था पर दबाव की धारणा बनी।
दूसरी ओर, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उत्तर प्रदेश में करीब 4 करोड़ मतदाता "लापता" हैं, जिनमें 85-90% भाजपा के समर्थक हैं, खासकर शहरी क्षेत्रों के। योगी ने पार्टी कार्यकर्ताओं से नाम जोड़ने की अपील की और आरोप लगाया कि पहले की विपक्षी सरकारों ने फर्जी वोटर जोड़े थे, जिन्हें अब साफ किया जा रहा है। भाजपा का कहना है कि विपक्ष बोगस वोटरों के हटने से घबरा रहा है और शोर मचा रहा है क्योंकि उनके पास "छिपाने को कुछ है"। कुछ रिपोर्टों में भाजपा की भी चिंता जताई गई कि उनके वोटर प्रभावित हो रहे हैं।
एसआईआर को लेकर मोदी सरकार और भाजपा की इतनी तीखी आलोचना इसलिए हो रही है क्योंकि एसआईआर को सीएए-एनआरसी जैसे पिछले विवादों से जोड़कर देखा जा रहा है। इससे अल्पसंख्यक समुदाय में डर पैदा हुआ। विपक्ष इसे 2027 यूपी चुनाव से पहले सुनियोजित साजिश बता रहा है, जबकि भाजपा शासित राज्यों में प्रशासनिक मशीनरी का इस्तेमाल होने की धारणा ने आग में घी डाला। मतदान कर्मियों की आत्महत्या जैसी घटनाओं और बड़े पैमाने पर संभावित बहिष्कार ने इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया। कुल मिलाकर, यह विवाद चुनावी अखंडता और संस्थाओं की स्वतंत्रता पर सवाल उठा रहा है, जिससे दोनों पक्षों में तनाव बढ़ा है।