सोनिया गांधी ने मनरेगा का नाम और नियम बदलने पर महत्वपूर्ण लेख लिखा है।
ऐतिहासिक महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) 5 सितंबर 2005 को वास्तविकता बना, जब डॉ. मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमंत्री थे। मनरेगा एक अधिकार देने वाला कानून था, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 41 से प्रेरित था। जो सरकार को नागरिकों के काम के अधिकार को सुरक्षित करने का निर्देश देता है। इसे लगभग 13 महीनों तक लोगों से सलाह मशविरा के बाद आकार दिया गया। संसद के दोनों सदनों ने मनरेगा विधेयक को खुशी-खुशी आमराय से पास किया।
हाल ही में, नरेंद्र मोदी सरकार ने बिना किसी चर्चा, सलाह या संसदीय प्रक्रिया या केंद्र-राज्य संबंधों के सम्मान के मनरेगा को बुलडोजर से ध्वस्त करने का काम किया। महात्मा के नाम को हटाना तो केवल उसका एक सिरा है। मनरेगा की बुनियाद को, जो इसके प्रभाव के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी, को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया है। याद रखना चाहिए कि यह दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक सुरक्षा पहल रही है। जिसका सबसे गहन अध्ययन और मूल्यांकन किया गया। सभी अध्ययनों ने हमारे समाज के सबसे कमजोर वर्गों पर इसके प्रभावों पर जोर दिया है और बताया कि बदलाव किस तरह आया।
मनरेगा को एक साधारण योजना से कहीं अधिक सोचा गया था। यह संकट में ग्रामीण परिवारों की वास्तविक मांग पर आधारित गारंटी वाला रोजगार था। मोदी सरकार ने अपने नए कानून में कानूनी गारंटी के विचार को ही नष्ट कर दिया है, जो अब सिर्फ नौकरशाही द्वारा बनाए गए नियमों का सेट भर है।
मनरेगा ने पूरे ग्रामीण भारत में काम का अधिकार लागू किया। मोदी सरकार के नए विधेयक ने योजना के दायरे को केंद्र द्वारा अपनी मर्जी से तय किए जाने वाले ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित कर दिया है। (बता दें कि मनरेगा की जगह मोदी सरकार जो नई योजना लाई है, उसे लोकसभा और राज्यभा में पास कर दिया गया। अब उसे राष्ट्रपति ने पास कर दिया है।)
मनरेगा में पहले जहां केंद्रीय आवंटन असीमित था, यानी केंद्र सरकार असीमित पैसा देती है। अब नई योजना में पहले से तय बजटीय आवंटन है जिससे हर राज्य में दिए जाने वाले रोजगार के दिनों को सीमित कर दिया जाएगा। इसके तहत काम के दिनों की संख्या लोगों की जरूरतों के बजाय केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं पर निर्भर होगी।
साल भर की रोजगार गारंटी को खत्म कर दिया गया है। राज्य सरकारों से कहा गया है कि वे फसल की बुवाई के मौसम के दौरान 60 दिन तय करें, जब कोई काम नहीं होगा। मनरेगा का सबसे बड़ा प्रभाव ग्रामीण भारत में भूमिहीन गरीबों की ताकत को बढ़ाना था, जिसने कृषि मजदूरी को का पैसा बढ़ाया। इस नए कानून के तहत यह ताकत निश्चित रूप से कम हो जाएगी। मोदी सरकार पूरी कोशिश कर रही है कि मजदूरी न बढ़े। वह भी ऐसे समय में जब आज़ादी के बाद पहली बार कृषि में रोजगार का अनुपात बढ़ा है।
मनरेगा ने राज्य सरकारों को अधिकांश वित्तीय बोझ से मुक्त रखा था। क्योंकि लागत साझेदारी अनुपात 90:10 था, यानी 90 फीसदी केंद्र सरकार वहन करती थी। इससे राज्य सरकारों को अपनी मांग के अनुसार योजना को ईमानदारी से लागू करने का बढ़ावा मिलता था। अब नया लागत साझेदारी अनुपात 60:40 है। यानी केंद्र सरकार सिर्फ 60 फीसदी पैसा देगी। इससे भी बदतर ये है कि केंद्र सरकार के पूर्व-निर्धारित आवंटन से अधिक किसी व्यय को अब पूरी तरह राज्यों को करना होगा। प्रभावी रूप से, खर्च का एक बड़ा हिस्सा राज्यों पर डाल कर, मोदी सरकार राज्यों को योजना के तहत काम प्रदान करने से हतोत्साहित कर रही है। राज्यों की वित्तीय स्थिति, जो पहले से ही गंभीर तनाव में है, और अधिक तबाह हो जाएगी।
मनरेगा कार्यक्रम की मांग आधारित प्रकृति को ध्वस्त करने के अलावा, मोदी सरकार ने योजना की विकेंद्रीकृत प्रकृति को भी खत्म कर दिया है। 73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार, मनरेगा में ग्राम सभा को कार्यों की योजना बनाने के साथ-साथ योजना को लागू करने का भी अधिकार था। स्थानीय स्तर पर तंत्र को मजबूत करने के बजाय इसे सब कुछ ऊपर से नियंत्रित करने का इंतजाम किया गया है। जिससे अनिवार्य रूप से केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं को लागू किया जाएगा न कि स्थानीय जरूरतों को। यह बदले की भावना का केंद्रीकरण है।
मोदी सरकार धोखाधड़ी वाले दावे कर रही है कि उसने रोजगार गारंटी को 100 दिनों से बढ़ाकर 125 दिन कर दिया है। उपरोक्त सभी कारणों से ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। वास्तव में, मोदी सरकार के इरादों की वास्तविक प्रकृति को उसके एक दशक लंबे ट्रैक रिकॉर्ड से समझा जा सकता है, जिसमें मनरेगा का गला घोंटने की बार-बार कोशिश की गई। यह प्रधानमंत्री द्वारा सदन में योजना का मजाक उड़ाने से शुरू हुआ और फिर इसे खत्म करने की की रणनीति से आगे बढ़ा- जैसे स्थिर बजट, अधिकार छीनने वाली तकनीक का इस्तेमाल और मजदूरों को बहुत देरी से भुगतान।
पिछले 20 वर्षों में, मनरेगा के ज़रिए सरकार के पास सबसे शक्तिशाली सामाजिक सुरक्षा हस्तक्षेप रहा है। इसने करोड़ों नागरिकों के लिए बेहतर मजदूरी सुरक्षित की, मौसम की मार की वजह से मजदूरों के पलायन को रोका और ग्राम पंचायतों को बहुत सशक्त बनाया। ग्राम सभाओं द्वारा किए गए सामाजिक ऑडिट ने जवाबदेही और पारदर्शिता की एक नई संस्कृति तैयार की। कोविड-19 महामारी के दौरान, जब पूरी अर्थव्यवस्था गंभीर रूप से झटके खा रही थी, मनरेगा ही वो योजना थी जिसके जरिए सरकार गरीब और सबसे कमजोर वर्गों तक पहुंच सकी। दूसरी योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 था, जिससे गांवों तक सरकारी मदद पहुंची। कोविड-19 के दौरान इस योजना के तहत काम की मांग ग्रामीण आजीविका को सुरक्षा देने में बहुत काम आई। इसे तबाह करना ग्रामीण भारत के करोड़ों लोगों के लिए विनाशकारी नतीजे लाएगा।
काम के अधिकार की बर्बादी को अलग-थलग नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि सत्ताधारी प्रतिष्ठान द्वारा संविधान और उसके अधिकार-आधारित नज़रिए पर हमला है। इसी तरह मतदान का सबसे मौलिक अधिकार अभूतपूर्व हमले का शिकार है। सूचना के अधिकार कानून में बदलाव करके उसकी मूल भावना को अपवित्र कर दिया गया है। जिसने सूचना आयुक्तों की स्वायत्तता को कमजोर किया है। 'व्यक्तिगत जानकारी' वाला डेटा कानून और भी बड़ा खतरा है। शिक्षा के अधिकार को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 द्वारा कमजोर किया गया है, जिसने देश भर में लगभग एक लाख प्राथमिक स्कूलों के बंद होने को वैध बनाया।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 को वन (संरक्षण) नियम (2022) द्वारा स्पष्ट रूप से कमजोर किया गया, जिसने वन भूमि की अनुमति में ग्राम सभा की किसी भूमिका को हटा दिया। भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 को काफी कमजोर किया गया। अक्टूबर 2010 में राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल अधिनियम, 2010 के पारित होने के बाद स्थापित राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल को कमजोर किया गया। तीन काले कृषि कानूनों के माध्यम से, सरकार ने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के अधिकार से वंचित करने की कोशिश की। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 को खत्म करना शायद अगला निशाना हो।
मनरेगा ने महात्मा की सर्वोदय ('सभी का कल्याण') की दृष्टि को साकार किया और संवैधानिक काम के अधिकार को लागू किया। इसका अंत हमारी सामूहिक नैतिक विफलता है, जो भारत के करोड़ों कामकाजी लोगों के लिए वर्षों तक वित्तीय और मानवीय नतीजे लाएगी। अब पहले से कहीं अधिक, एकजुट होकर उन अधिकारों की रक्षा करना अनिवार्य है जो हम सभी की रक्षा करते हैं।
(सोनिया गांधी कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष हैं)