फ़्रांस ने यूके, कनाडा, पुर्तगाल और ऑस्ट्रेलिया का साथ देते हुए फ़िलस्तीन को एक संप्रभु राज्य के रूप में मान्यता दे दी है। यह लंबे समय से पीड़ित फ़िलस्तीनी जनता की वैध आकांक्षाओं को पूरा करने की दिशा में पहला कदम है। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से 150 से अधिक देश अब यह कदम उठा चुके हैं। भारत इस मामले में अग्रणी रहा है, जिसने फ़िलस्तीनी राज्य को औपचारिक रूप से 18 नवंबर, 1988 को मान्यता दी थी, जब उसने वर्षों तक फिलस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) का समर्थन किया। भारत का यह निर्णय मूल रूप से एक नैतिक निर्णय था और दुनिया को लेकर हमारे नज़रिए के अनुरूप था।

वो आवाज़ जिसकी अलग पहचान थी 

स्वतंत्रता से पहले भी, भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रंगभेदग्रस्त दक्षिण अफ्रीका का मुद्दा उठाया था और रंगभेदी शासन के साथ व्यापारिक संबंध समाप्त कर दिए थे। अल्जीरिया की स्वतंत्रता की लड़ाई (1954-62) के दौरान, भारत स्वतंत्र अल्जीरिया के लिए सबसे मज़बूत आवाज़ों में से एक था, जिसने सुनिश्चित किया कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ उस निर्णायक संघर्ष को न भूले।
1971 में, भारत ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में नरसंहार को रोकने के लिए हस्तक्षेप किया और आधुनिक बांग्लादेश के जन्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब दुनिया का बड़ा हिस्सा वियतनाम में खूनखराबे को देखते हुए चुप रहा, तब भारत ने नैतिक स्पष्टता के साथ शांति की मांग की और वियतनामी जनता पर हो रही विदेशी (अमेरिका) क्रूरता का विरोध किया। आज भी भारत संयुक्त राष्ट्र के शांति सैनिक बलों में सबसे बड़े दस्ता योगदानकर्ताओं में से एक है। ‘अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना’ भारत के संविधान में निहित राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों में से एक है।
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इसराइल-फ़िलस्तीन जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी, भारत ने लंबे समय से एक संतुलित लेकिन सैद्धांतिक रुख़ अपनाया है, जिसमें शांति और मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया है। भारत उन पहले देशों में था जिसने 1974 में पीएलओ को मान्यता दी और लगातार दो-राष्ट्र समाधान का समर्थन किया। यह फ़िलस्तीन के आत्मनिर्णय के अधिकार की गारंटी देता है और इसराइल के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा देता है। 

वर्षों से, भारत ने कई संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों का समर्थन किया है जो फ़िलस्तीनी अधिकारों की पुष्टि करते हैं और पश्चिमी तट पर क़ब्ज़े और बस्तियों के विस्तार की निंदा करते हैं। साथ ही, भारत ने इसराइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध भी बनाए रखे। संयुक्त राष्ट्र, गुटनिरपेक्ष आंदोलन और इस्लामी सहयोग संगठन (OIC) जैसे मंचों के जरिए भारत ने बातचीत से समाधान, अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के पालन और फिलस्तीनियों का नरसंहार खत्म करने की मांग की। भारत ने फ़िलस्तीन को मानवीय सहायता भी दी है, जिसमें स्टूडेंट्स स्कॉलरशिप, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सहयोग और ग़ज़ा व वेस्ट बैंक में संस्थानों का निर्माण शामिल है।

फिलस्तीन पर भारत का वर्तमान रुख़ 

पिछले दो वर्षों में, अक्टूबर 2023 में इसराइल-फ़िलस्तीन संघर्ष भड़कने के बाद से, भारत ने लगभग अपनी भूमिका छोड़ दी है। 7 अक्टूबर 2023 को इसराइली नागरिकों पर हुए हमास के अमानवीय हमलों के बाद इसराइल की ग़ज़ा में प्रतिक्रिया नरसंहार के रूप में सामने आई। जैसा कि मैंने पहले भी यह मुद्दा उठाया है कि 55,000 से अधिक फ़िलस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं, जिनमें 17,000 बच्चे शामिल हैं। ग़ज़ा पट्टी का आवासीय, शैक्षणिक और स्वास्थ्य ढांचा तबाह हो चुका है। कृषि और उद्योग ध्वस्त हो चुके हैं। ग़ज़ावासियों को अकाल जैसी स्थिति में धकेल दिया गया है। जहां इसराइली सेना आवश्यक भोजन, दवा और अन्य राहत सामग्री की आपूर्ति को क्रूरता से रोक रही है। यह निराशा के समुद्र में “एक बूंद पानी” जैसी राहत है। सबसे भयावह अमानवीय कृत्यों में से एक में, सैकड़ों नागरिकों को भोजन पाने की कोशिश में गोली मार दी गई।
फिलस्तीन पर दुनिया ने प्रतिक्रिया देने में देरी की है, जिससे इसराइल की कार्रवाई को अप्रत्यक्ष रूप से वैधता मिली है।
सोनिया गांधी ने द हिन्दू में लिखा
फिलस्तीनियों का नरसंहार

हाल ही में कई देशों द्वारा फ़िलिस्तीन को संप्रभु राज्य के रूप में मान्यता देने की पहल स्वागत योग्य और लंबे समय से प्रतीक्षित बदलाव है। यह एक ऐतिहासिक क्षण है और न्याय, आत्मनिर्णय और मानवाधिकारों के सिद्धांतों की पुष्टि है। यह कदम केवल कूटनीतिक औपचारिकता नहीं हैं; वे उस नैतिक ज़िम्मेदारी की पुष्टि हैं जो राष्ट्रों को लंबे अन्याय के सामने उठानी चाहिए। यह याद दिलाता है कि आधुनिक दुनिया में चुप्पी तटस्थता नहीं है, यह सहभागिता है। और यहां, भारत की आवाज़, जो कभी स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा के लिए इतनी अडिग थी, अब स्पष्ट रूप से म्यूट (खामोश) हो चुकी है।

फिलस्तीनियों के नरसंहार पर मोदी सरकार की प्रतिक्रिया गहरे मौन, अमानवीयता और अनैतिकता की पहचान हो गई है। भारत के क़दम मुख्य रूप से इसराइली प्रधानमंत्री (बेंजामिन नेतन्याहू) और मोदी के व्यक्तिगत संबंधों से प्रेरित प्रतीत होते हैं, न कि भारत के संवैधानिक मूल्यों या रणनीतिक हितों से। इस तरह की निजी कूटनीति कभी टिकाऊ नहीं होती और यह भारत की विदेश नीति का मार्गदर्शन नहीं कर सकती। 

दुनिया के अन्य हिस्सों में इसी तरह के प्रयास ख़ासकर अमेरिका में हाल के महीनों में बेहद दर्दनाक और अपमानजनक तरीक़े से विफल हुए हैं। भारत की दुनियाभर में प्रतिष्ठा को किसी एक व्यक्ति के व्यक्तिगत गौरव की खोज में समेटा नहीं जा सकता, न ही इसे ऐतिहासिक उपलब्धियों पर टिकाया जा सकता है। इसके लिए सतत साहस और ऐतिहासिक निरंतरता की आवश्यकता है।

इस बीच, यह चौंकाने वाला है कि सिर्फ दो हफ़्ते पहले, भारत ने न केवल इसराइल के साथ नई दिल्ली में द्विपक्षीय निवेश समझौते पर हस्ताक्षर किए, बल्कि उसके अत्यधिक विवादास्पद अति-दक्षिणपंथी वित्त मंत्री की मेज़बानी भी की। जिनकी बार-बार फ़िलस्तीनी समुदायों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने की बयानबाज़ी के लिए विश्वस्तर पर निंदा हुई है।

अब कार्रवाई का समय 

सबसे बुनियादी रूप से, भारत को फ़िलस्तीनी मुद्दे को केवल विदेश नीति के नज़रिए से नहीं, बल्कि भारत की नैतिक, मानवता की कसौटी के रूप में देखना चाहिए। फ़िलस्तीनी लोगों ने दशकों तक विस्थापन, लंबे समय तक क़ब्ज़े, बस्तियों के विस्तार, आवाजाही पर पाबंदी,  नागरिकों पर हमले, राजनीतिक और मानवाधिकारों पर बार-बार हमले सहे हैं। उनका संघर्ष भारत के औपनिवेशिक दौर के संघर्ष की गूंज है। एक ऐसा समाज जिसे अपनी संप्रभुता से वंचित किया गया, राष्ट्रवाद से वंचित रखा गया, संसाधनों के लिए शोषण किया गया और अधिकारों व सुरक्षा से वंचित कर दिया गया। हमें फ़िलिस्तीन और उसकी गरिमा को हमदर्दी से देखना चाहिए और उस सहानुभूति को सैद्धांतिक कार्रवाई में बदलने का साहस भी दिखाना चाहिए।
भारत का ऐतिहासिक अनुभव, उसकी नैतिक और मानवाधिकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता उसे न्याय के पक्ष में बोलने, समर्थन करने और कार्रवाई करने की शक्ति देती है। इसमें बिना देरी या हिचकिचाहट के कार्रवाई करना चाहिए। अपेक्षा यह नहीं है कि भारत इस संघर्ष में पक्षपाती हो, इसराइल या फ़िलस्तीन में से किसी एक को चुने। अपेक्षा यह है कि भारत सिद्धांतों पर आधारित नेतृत्व दिखाए, जो उन मूल्यों के अनुरूप हो जिन्होंने लंबे समय से भारत का मार्गदर्शन किया है और जिन पर उसके स्वतंत्रता आंदोलन की नींव रखी गई थी।
(द हिन्दू से साभारः लेखिका सोनिया गांधी, कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष हैं)