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डीडीसी चुनाव: घाटी में लोग सरकार पर यक़ीन नहीं करते!

मोदी सरकार और संघ परिवार को समझना होगा कि कश्मीर की समस्या ज़मीन या भू-भाग की समस्या नहीं है, ये लोगों की समस्या है, और लोग तब तक मोदी सरकार पर यक़ीन नहीं करेंगे जब तक कि उन्हें प्यार से समझाने की कोशिश नहीं की जाएगी। डीडीसी चुनाव से लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू होने का आभास तो होगा लेकिन क्या वाक़ई में लोकतंत्र पूरी तरह से लागू हो पाएगा? 
आशुतोष

शेख़ अब्दुल्ला के सामने यह सवाल था कि जम्मू-कश्मीर को भारत के साथ रहना चाहिये या फिर पाकिस्तान के, तब उनके दिमाग़ में किसी तरह का कन्फ्यूजन नहीं था। आज भले ही संघ परिवार और बीजेपी शेख़ अब्दुल्ला की कैसी भी तसवीर पेश करे, वह एक आज़ाद ख़्याल, आधुनिक सोच के नेता थे। वह इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि पाकिस्तान के साथ जाना कश्मीर के लिये विकल्प नहीं हो सकता। वह यह भी जानते थे कि कश्मीर एक आज़ाद मुल्क नहीं हो सकता। शेख़ अब्दुल्ला का ख़्वाब था ‘नया कश्मीर’। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘ग़ुलामी की ज़ंजीरें उनके क़ब्ज़े (पाकिस्तान) में बनी रहेंगी। लेकिन भारत अलग है। भारत में ऐसे नेता और दल हैं जिनके विचार हमसे मिलते हैं। भारत के साथ विलय होने पर क्या हम अपने लक्ष्य के क़रीब नहीं पहुँचेंगे? हमारे पास दूसरा विकल्प आज़ादी का है लेकिन चारों तरफ़ से बड़े देशों से घिरे होने के कारण एक छोटे देश का आज़ाद रह पाना मुमकिन नहीं होगा।’ 

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शेख़ अब्दुल्ला नेहरू के अज़ीज़ दोस्त थे लेकिन नेहरू ने बाद में शेख़ पर अमेरिका के साथ मिलकर कश्मीर को स्वतंत्र कराने की साज़िश रचने का आरोप लगा कर जेल भेज दिया था। शेख ने तब भी कहा था कि उनके और नेहरू के बीच दरार डालने के लिये यह अफ़वाह उड़ायी गयी थी; नेहरू ने अफ़वाहों पर यक़ीन कर लिया। शेख़ अगर चाहते तो कश्मीर कभी भी भारत का हिस्सा नहीं बनता। हिंदू राजा हरि सिंह भी भारत से विलय के पक्ष नहीं थे और अगर पाकिस्तान ने हमला नहीं किया होता तो हो सकता है कि हरि सिंह भारत से विलय पर दस्तख़त भी नहीं करते। हरि सिंह पाकिस्तान से भी बात कर रहे थे और आज़ाद मुल्क का भी सपना देख रहे थे। यही कारण है कि सरदार पटेल की कोशिशों के बाद भी कश्मीर ने भारत विलय पर हस्ताक्षर नहीं किये थे पर आज बदले हालात में संघ परिवार और हिंदुत्व के सिपहसालार शेख़ अब्दुल्ला को खलनायक और हरि सिंह को हीरो की तरह पेश करते हैं। इस सोच की बुनियाद सांप्रदायिक है। संघ परिवार कश्मीर को आज भी हिंदू-मुसलमान के नज़रिए से ही देखता है।

अफ़सोस कि इतिहास को सही तरीक़े से नहीं देखने का नतीजा सामने है। जिस कश्मीर ने जिन्ना की ‘दो राष्ट्र के सिद्धांत’ को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया था और मुसलिम बहुल राज्य होने के बाद भी पाकिस्तान के साथ विलय को नामंज़ूर कर दिया था, आज वही कश्मीर हिंदू और मुसलमान के खाँचे में बँटा दिखायी देता है। ज़िला विकास परिषद (डीडीसी) के चुनावों ने इस विभाजन पर अपनी मुहर लगा दी है और यह साबित कर दिया है कि कश्मीर एक सांप्रदायिक मुद्दा बन कर रह गया है। और जब तक कश्मीर एक सांप्रदायिक मुद्दा रहेगा, उसे हिन्दू-मुसलमान के नज़रिये से देखा जायेगा। कश्मीर समस्या का समाधान नहीं निकलेगा, कश्मीर जलता रहेगा, सुलगता रहेगा, कभी सामान्य नहीं होगा।

ऐसे में वे लोग जो अनुच्छेद 370 में बदलाव पर ख़ुश हो रहे थे, जो बड़े-बड़े दावे कर रहे थे कि अब कश्मीर शांत हो जाएगा, वे भारी निराश होने वाले हैं।

कश्मीर में जिन तत्वों ने अनुच्छेद 370 में बदलाव का पूरी तरह से विरोध किया था, और कर रहे हैं, आज वही तत्व घाटी में भारी मत से जीत कर आये हैं। कश्मीर घाटी के दस ज़िलों में से नौ में गुपकार गठबंधन का क़ब्ज़ा होगा। बीजेपी तीन सीट जीतने के बाद भी कहीं नहीं होगी। 

did jammu kashmir reject bjp in ddc election after article 370 abolition - Satya Hindi

जम्मू में परंपरागत रूप से बीजेपी मज़बूत रही है। 2014 के विधानसभा के चुनाव में उसे जम्मू क्षेत्र में ही 25 सीटें मिली थीं और तब पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ मिलकर सरकार बनायी थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को तीन लोकसभा सीटें मिलीं और पूरे राज्य में कुल 32 विधानसभा सीटों पर उसे बढ़त मिली थी। डीडीसी के चुनाव में बीजेपी को सीटें तो मिलीं पर 2014 और 2019 की तुलना में कम। उसके कई बड़े नेता और पूर्व मंत्री इस लोकल चुनाव में हार गये। अगर दक्षिण जम्मू में उसे 56 में से 48 सीटें नहीं मिली होतीं तो बीजेपी की हालत पतली हो जाती। यानी हिंदू बहुल इलाक़ों में बीजेपी को 86% सीट मिली। जबकि उत्तर जम्मू में बीजेपी और गुपकार दोनों को 24 चौबीस सीटें मिली हैं। उधर मुसलिम बहुल सीटों में बीजेपी को सिर्फ़ 2% ही सीटें मिलीं। मतलब साफ़ है कि बीजेपी को एक हिंदू पार्टी के तौर देखा जाता है।

जम्मू-कश्मीर जो मुसलिम बहुल राज्य है, वहाँ की बहुसंख्य आबादी बीजेपी को संदेह की नज़र से देखती है। इस आबादी को न तो बीजेपी पर यक़ीन है और न ही मोदी सरकार पर। और अगर ऐसा है तो मोदी सरकार कितने ही दावे कर ले वह कश्मीर का समाधान न तो निकाल सकती है और न ही वहाँ शांति बहाल कर सकती है।

कश्मीरियों का विश्वास क्यों नहीं जीता?

बीजेपी और संघ परिवार को यह सोचना चाहिए कि जो कश्मीर उसके एजेंडे में सबसे ऊपर है, वह वहाँ के लोगों का विश्वास 72 साल बाद भी क्यों नहीं जीत पायी है? क्यों कश्मीर के लोग, विशेषतः मुसलिम आबादी उसे शक की नज़र से देखती है? बीजेपी ने राम मंदिर का मुद्दा तो बहुत बाद में उठाया। और अयोध्या में मंदिर निर्माण का काम भी शुरू हो गया है, लेकिन कश्मीर में वही ‘ढाक के तीन पात’ है। बीजेपी के पहले अवतार जनसंघ और उसके पहले अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पार्टी बनाने के साथ ही कश्मीर मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाया था। 

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संसद में दिया उनका भाषण आज भी लोगों को याद है जिसमें उन्होंने नारा दिया था- ‘एक देश में दो प्रधान, दो विधान और दो निशान नहीं चलेगा।’ तब कश्मीर में मुख्यमंत्री की जगह प्रधानमंत्री, अलग संविधान और अलग झंडा होता था। तब परमिट लेकर ही कश्मीर में जाने की इजाज़त थी। विरोध जताने के लिये मुखर्जी कश्मीर गये। उन्हें गिरफ़्तार कर श्रीनगर के एक गेस्ट हाउस में रखा गया। वहीं उनकी मृत्यु हो गयी। बीजेपी लगातार कहती रही है- ‘जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है।’ कश्मीर तो हमारा ही था, विलय के साथ भारत का अभिन्न अंग। पर बीजेपी उसे अपना नहीं बना पायी? क्यों? यह उसकी विचारधारा की कमज़ोरी है या फिर कुछ और?
बीजेपी की तरफ़ से अटल बिहारी वाजपेयी अकेले नेता थे जिन्होंने विचारधारा को कश्मीर के रास्ते में नहीं आने दिया। जहाँ मोदी सरकार डंडे के ज़ोर पर कश्मीर को हांकना चाहती है, वहीं वाजपेयी ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ के आइने में समाधान खोज रहे थे।

वाजपेयी ने मुफ़्ती मोहम्मद सईद के साथ मिलकर ‘हीलिंग टच’ पॉलिसी (मलहम नीति) को बढ़ाया था। कश्मीर में शांति के आसार तब दिखे थे। मोदी सरकार ने पीडीपी के साथ सरकार तो बनायी पर नज़रिये में बदलाव नहीं आया। लिहाज़ा सरकार जाते ही महबूबा मुफ़्ती को देशद्रोही और ग़द्दार कह डिस्क्रेडिट करने का काम शुरू हो गया। बिना किसी सलाह-मशविरे के, कश्मीर के लोगों को अंधेरे में रखते हुए अनुच्छेद 370 में बदलाव कर दिया, 35A हटा दिया। अब जब चुनाव हो रहे थे तो गृह मंत्री अमित शाह उन नेताओं को जो हमेशा भारत की वकालत करते रहे उन्हें ‘गुपकार गैंग’ कह कर बुलाया और रोशनी एक्ट की आड़ में फारूक अब्दुल्ला समेत बड़े नेताओं को चोर-लुटेरा कहा गया। सवाल यह है कि क्या इन तरकीबों से बीजेपी कश्मीर की जनता का विश्वास जीत पायी है? अगर गुपकार गठबंधन के लोग एक क्रिमिनल गैंग का हिस्सा हैं, चोर, उचक्के और लुटेरे हैं तो फिर क्या जनता गैंग और माफिया के साथ खड़ी हो गयी है और बीजेपी को पूरी तरह से घाटी में रिजेक्ट कर दिया है? यानी उसने साफ़ कह दिया है कि उसे सरकार का अनुच्छेद 370 में बदलाव मंज़ूर नहीं। और अगर ऐसा है तो फिर कश्मीर में शांति बहाल कैसे होगी?

वीडियो चर्चा में देखिए, कश्मीर में राष्ट्रभक्तों पर गैंग भारी?

डीडीसी चुनाव से लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू होने का आभास तो होगा लेकिन क्या वाक़ई में लोकतंत्र पूरी तरह से लागू हो पाएगा? क्या सरकार अब जनता के मैंडेट को स्वीकार कर गुपकार गैंग को डिस्क्रेडिट करना बंद करेगी? 

मोदी सरकार और संघ परिवार को समझना होगा कि कश्मीर की समस्या ज़मीन या भू-भाग की समस्या नहीं है, यह लोगों की समस्या है, और लोग तब तक मोदी सरकार पर यक़ीन नहीं करेंगे जब तक कि उन्हें प्यार से समझाने की कोशिश नहीं की जाएगी, ज़रूरत उनका विश्वास जीतने की है। ज़मीन जीत कर आज तक कोई शासक शांति बहाल नहीं कर पाया है। मोदी भी नहीं कर पायेंगे।

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