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खूंटी के एक गांव में 23 जून को आयोजित प्रार्थना सभा में सरना धर्म के अनुयायी।फोटो: नीरज सिन्हा

झारखंड चुनाव में ‘सरना आदिवासी धर्म कोड’ का क्या होगा असर? 

विधानसभा चुनाव से ठीक पहले झारखंड में सत्तारूढ़ जेएमएम के कार्यकारी अध्यक्ष और राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने आदिवासियों के लिए लंबे समय से चली आ रही मांग ‘सरना धर्म कोड’ को नए सिरे से उछाल दिया है। इसके साथ ही उन्होंने बीजेपी और केंद्र सरकार से उनकी मंशा पर सवाल किए हैं।

जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग कॉलम निर्धारित करने की यह मांग उनकी भावना और पहचान से जुड़ी है।  झारखंड में इस मांग को लेकर अलग-अलग आदिवासी संगठन लगातार आंदोलन करते रहे हैं। कई दफा दिल्ली में भी आदिवासी जुटान के साथ इस मुद्दे पर आवाज़ मुखर की गई है। जाहिर तौर पर यह मुद्दा बहस और राजनीति के केंद्र में भी रहा है। 

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लोकसभा चुनावों में भी यह मुद्दा आदिवासी इलाक़ों में सतह पर था। साथ ही सत्तारूढ़ जेएमएम- कांग्रेस ने बीजेपी को घेरने की कोशिशें की थीं। 

पांच सितंबर को झारखंड में आदिवासी बहुल गुमला जिले के सिसई ब्लॉक स्थित पंडरानी गांव में आयोजित एक सरकारी कार्यक्रम में हेमंत सोरेन ने इसी मुद्दे पर केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की है। उन्होंने कहा, “आज देश की सूची में आदिवासियों की पहचान आदिवासियों की नहीं है। इसलिए झारखंड सरकार ने आदिवासियों के लिए सरना धर्म कोड का प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा, लेकिन केंद्र सरकार ने ध्यान नहीं दिया। अगर सरना धर्म कोड मिल जाए, या आदिवासियों के लिए कोई कोड मिल जाए, तो आदिवासी सुरक्षित हो जाएंगे।“

हेमंत सोरेन ने इसी सभा में विपक्ष को निशाने पर लेते हुए कहा कि बीजेपी सिर्फ आदिवासियों के नाम पर राजनीति कर रही है। दूसरे राज्यों से नेताओं को बुलाकर बीजेपी राज्य का माहौल खराब करने में लगी है।  

पिछले 23 जून को पूर्वी सिंहभूम के घाटशिला में माझी परगना महाल द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन ने भी कहा था कि इस मुद्दे पर राज्य सरकार ने पहले ही अड़चनों को दूर कर दिया है, लेकिन केंद्र ने साजिश के तहत इसे लटकाए रखा है। चंपाई सोरेन हाल ही में बीजेपी में शामिल हो गए हैं। 

गौरतलब है कि झारखंड विधानसभा ने नवंबर 2020  में एक विशेष सत्र में ‘सरना आदिवासी धर्म’ कोड’ का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित कर केंद्र को भेजा है।  

पिछले साल इसी मामले में हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र भी लिखा था। इसमें उन्होंने कहा- देश का आदिवासी समुदाय पिछले कई वर्षों से अपने धार्मिक अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रकृति पूजा आदिवासी/सरना धर्मावलंबियों को शामिल करने की मांग को लेकर संघर्षरत है।

पत्र में आगे सोरेन ने कहा कि “झारखंड की आदिवासी आबादी पिछले आठ दशकों में 38 प्रतिशत से घटकर 26 प्रतिशत रह गई है और इसका संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची के तहत आदिवासी विकास नीतियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। …यह सिर्फ झारखंड के ही नहीं– देश भर के आदिवासी कई सालों से अलग सरना/प्रकृति पूजा कोड की मांग कर रहे हैं।“  

क्यों चाहते हैं एक अलग कोड?

जनगणना में अभी तक केवल हिंदू, इस्लाम,  ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन धर्म के पास अपनी अलग संहिता या कोड है। आदिवासी मामलों के कई जानकारों तथा संगठनों के प्रतिनिधियों का दावा है कि कोई अलग संहिता न होने के बावजूद 2011 की जनगणना में लगभग 50 लाख लोगों ने सरना को अपने धर्म के रूप में दर्ज कराया। 

प्रकृति-उपासक सरना धर्म का पालन करते हैं। जल, जंगल और जमीन- प्रकृति के ये तीन पहलू सरना आस्था के मूल हैं। आदिवासी गांवों में जो पूजा स्थल होता है, उसे सरना स्थल कहते हैं। वहां मुख्यत: साल पेड़ की या फिर अन्य किसी पेड़ की पूजा की जाती है। 

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इसके साथ ही प्रकृति पूजा पर केंद्रित, सरना धर्म का मुख्य रूप से झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, असम और पश्चिम बंगाल में आदिवासी समुदायों द्वारा पालन किया जाता है। 2011 के जनगणना के मुताबिक़ झारखंड में जनजातीय आबादी 86.45 लाख (26.2) प्रतिशत है। 

एक अलग सरना कोड का समर्थन करने वालों का तर्क रहा है कि यह आदिवासियों की भावना, पहचान परंपराओं और उनके धर्म की रक्षा करने के अलावा धर्मांतरण को रोकने के लिए भी महत्वपूर्ण है। 

आदिवासी मुंडा दिशुम पड़हा समिति खूंटी के अध्यक्ष महादेव मुंडा कहते हैं, “पूर्वज और प्रकृति ही हमारे देवता हैं और जीवन के पालनहार भी। सरना धर्म कोड की मांग आदिवासियों के अस्तित्व से जुड़ा मसला है। 1951 से पहले जनगणना में आदिवासियों की पहचान होती थी, लेकिन उसके बाद क्यों हटाया गया। हेमंत सोरेन जायज मांग उठाते रहे हैं। लेकिन केंद्र की सरकार इस पर अपना रुख स्पष्ट नहीं करती।“

‘शून्यकाल में आदिवासी ‘ के लेखक अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं कि 1871 से 1951 तक की जनगणना में आदिवासी धर्म का एक अलग कॉलम था और पूछते हैं कि जब संविधान सभी धर्मों और भाषाओं के संरक्षण और सम्मान की बात करता है तो इसे क्यों हटा दिया गया।

पूर्वी सिंहभूम के देस पोरेनिक (पारंपरिक माझी परगना स्वशासन व्यवस्था के पदाधिकारी) दुर्गा चरण माझी कहते हैं, 

हमारे लिए यह राजनीतिक नहीं, पारंपरिक रीति-रिवाज, संस्कृति और पहचान से जुड़ा मुद्दा है। हम 20 साल से आवाज उठा रहे हैं। हेमंत सोरेन सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन केंद्र सरकार अब तक इस पर सहमत नहीं है और न ही इसने कोई मंशा उजागर की है।


दुर्गा चरण माझी, देस पोरेनिक, पूर्वी सिंहभूम

राजनीतिक मायने और असर 

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रजत कुमार गुप्ता कहते हैं, “लोकसभा चुनावों में भी आदिवासी इलाक़ों में यह मुद्दा सतह पर था। जेएमएम- कांग्रेस के कई बड़े नेता बीजेपी को घेर रहे थे। लोकसभा चुनावों में राज्य में आदिवासियों की सभी पांच सीटों पर जीत के बाद जेएमएम- कांग्रेस विधानसभा चुनावों में इस मुद्दे पर बीजेपी और केंद्र सरकार को कॉर्नर करेगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन जेएमएम और कांग्रेस के सांसद केंद्रीय स्तर पर भी इस मुद्दे पर कितनी आवाज मुखर करते हैं, यह भी परखा जाना है।”  

हालाँकि पिछले 22 जुलाई को लोहरदगा से कांग्रेस के सांसद सुखदेव भगत ने भी लोकसभा में केंद्र सरकार से जनगणना कॉलम में सरना धर्म कोड लागू करने की मांग की है। 

सुखदेव भगत ने लोकसभा में कहा था, “ये अत्यंत संवेदनशील तथा आदिवासी अस्मिता का सवाल है। देश में करोड़ों आदिवासी निवास करते हैं। लेकिन जनगणना में आदिवासियों के लिए कोई कॉलम निर्धारित नहीं करना हमारी मौलिक अधिकारों का हनन जैसा है। सरकार बाघ, शेरों की गणना करती है, तो प्रकृति पुजारियों की गणना क्यों नहीं की जानी चाहिए। यह विंडबना ही है।“

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हेमंत सोरेन
गौरतलब है कि लोकसभा चुनावों के दौरान 4 मई को पीएम नरेंद्र मोदी के लोहरदगा दौरे को लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ पर जयराम नरेश ने एक्स पर एक पोस्ट किया था। इसमें उन्होंने आदिवासी हितों को लेकर कई सवाल किए थे। इन सवालों में उन्होंने यह भी कहा था कि आदिवासियों को उनकी धार्मिक पहचान- सरना कोड को मान्यता देने से वंचित क्यों रखा गया है?

दूसरी तरफ भाजपा के नेता लगातार इन बातों पर जोर देते रहे हैं कि पार्टी के लिए आदिवासियों का हित सर्वोपरि है, जबकि जेएमएम- कांग्रेस आदिवासियों का भला नहीं कर सकते। लोकसभा चुनावों में भी सत्तारूढ़ दलों ने कई मुद्दे पर आदिवासियों को गुमराह किया था। 

झारखंड में नवंबर- दिसंबर में चुनाव संभावित है। 2019 में सत्ता पर काबिज होने के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा- कांग्रेस (कंबाइन) बीजेपी के लिए चुनौती बनकर उभरा है। 81 सदस्यीय विधानसभा में आदिवासियों के लिए रिजर्व 28 सीटें हैं। ये सभी सीटें संथाल परगना, कोल्हान और दक्षिणी छोटानागपुर प्रमंडल में हैं। इनके अलावा कम से कम 12 दूसरी सीटों पर भी आदिवासियों का वोट एक अहम फैक्टर रहा है। 

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2019 के चुनाव में बीजेपी ने आदिवासियों के लिए रिजर्व सिर्फ दो सीटों पर जीत हासिल की थी। बीजेपी के हाथ से सत्ता निकलने में इस समीकरण को प्रभावी माना गया। विधानसभा चुनाव नज़दीक आने के साथ संथालपरगना और कोल्हान में जेएमएम के गढ़ में दरक लगाने के लिए बीजेपी परेशान रही है।  

घाटशिला से जेएमएम के विधायक और हेमंत सोरेन सरकार के मंत्री रामदास सोरेन कहते हैं, “जेएमएम के लिए यह राजनीति का मुद्दा नहीं है। आदिवासियों के हक और अधिकार का सवाल है। चार साल पहले हेमंत सोरेन सरकार ने प्रस्ताव पास किया, तो बीजेपी और केंद्र सरकार दोनों को बताना चाहिए कि उनकी मंशा क्या है। विधानसभा चुनाव को लेकर बाहर से आने वाले बीजेपी के उन नेताओं को भी इस मुद्दे पर बोलना चाहिए, जो कई किस्म की राजनीतिक तिकड़म सजाते हैं।“

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नीरज सिन्हा
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