पत्रकारिता जगत में एक बार फिर से प्रेस की स्वतंत्रता पर सवाल उठाने वाली घटना सामने आई है। असम पुलिस ने द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन और वरिष्ठ पत्रकार करण थापर के ख़िलाफ़ राजद्रोह के आरोपों के तहत एक और एफ़आईआर दर्ज की है। इस कार्रवाई की पत्रकार संगठनों ने कड़े शब्दों में निंदा की है और इसे प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला बताया है।

असम पुलिस की क्राइम ब्रांच ने 12 अगस्त 2025 को सिद्धार्थ वरदराजन और करण थापर को समन जारी किया, जिसमें उन्हें 22 अगस्त को गुवाहाटी के पानबाजार स्थित क्राइम ब्रांच कार्यालय में पेश होने के लिए कहा गया। समन में कहा गया कि जांच से संबंधित तथ्यों और परिस्थितियों का पता लगाने के लिए आपके खिलाफ पूछताछ के लिए सही आधार हैं। हालाँकि, समन के साथ एफआईआर की प्रति या मामले का कोई विवरण नहीं दिया गया, जो कि कानूनी रूप से अनिवार्य है।
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इस नए एफआईआर (नंबर 03/2025) में भारतीय न्याय संहिता यानी बीएनएस की धारा 152 यानी भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को ख़तरे में डालने वाले कार्य, धारा 196 यानी विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना, धारा 197(1)(डी)/3(6), धारा 353, 45 और 61 के तहत आरोप लगाए गए हैं। धारा 152 को भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 124ए यानी राजद्रोह का नया रूप माना जाता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने मई 2022 में निलंबित कर दिया था।

पत्रकार संगठनों ने की निंदा 

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया यानी पीसीआई और इंडियन वीमेन प्रेस कॉर्प्स यानी आईडब्ल्यूपीसी ने इस कार्रवाई को प्रेस के खिलाफ प्रतिशोधपूर्ण करार देते हुए इसकी कड़ी निंदा की है। पीसीआई ने अपने बयान में कहा कि यह असम पुलिस द्वारा द वायर के खिलाफ दो महीने में दूसरी एफआईआर है, जो पत्रकारिता को दबाने की कोशिश को दिखाता है। संगठनों ने मांग की है कि इस एफ़आईआर को तत्काल वापस लिया जाए और बीएनएस की धारा 152 को हटाया जाए।
मुंबई प्रेस क्लब ने भी इस मामले में अपनी आवाज बुलंद करते हुए कहा कि यह कार्रवाई प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है और इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया यानी ईजीआई ने भी असम पुलिस की एफ़आईआर और समन जारी किए जाने की आलोचना की है। 

सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप

यह नया समन उस दिन जारी किया गया, जब सुप्रीम कोर्ट ने 12 अगस्त 2025 को द वायर और इसके पत्रकारों को असम पुलिस द्वारा मॉरिगांव में 11 जुलाई 2025 को दर्ज एक अन्य एफआईआर (0181/2025) में किसी भी दंडात्मक कार्रवाई से संरक्षण प्रदान किया था। इस पहले मामले में द वायर द्वारा 28 जून 2025 को प्रकाशित एक लेख के आधार पर बीजेपी कार्यकर्ता की शिकायत पर एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसमें दावा किया गया था कि भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर के दौरान राजनीतिक नेतृत्व की बाधाओं के कारण लड़ाकू विमान गँवा दिए।

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने द वायर की याचिका पर सुनवाई करते हुए बीएनएस की धारा 152 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया था। इसने इनके ख़िलाफ़ कार्रवाई किए जाने पर रोक लगा दी थी।

वरदराजन और थापर क्या बोले?

सिद्धार्थ वरदराजन और करण थापर ने समन का जवाब देते हुए कहा कि वे किसी भी जाँच में सहयोग करने के लिए तैयार हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट और कर्नाटक हाई कोर्ट द्वारा निर्धारित कानूनी शर्तों का पालन किया जाना चाहिए। उन्होंने जोर दिया कि एफ़आईआर की प्रति और आरोपों की जानकारी के बिना उन्हें पूछताछ के लिए बुलाना ग़ैरक़ानूनी है। द वायर के गुवाहाटी में कानूनी प्रतिनिधियों ने बताया कि मजिस्ट्रेट कोर्ट में इस नई एफआईआर का कोई जानकारी नहीं मिली है और असम में पत्रकारों को भी पुलिस से इस मामले की कोई जानकारी नहीं मिली।

पिछले विवाद और प्रेस की आज़ादी

द वायर और इसके संपादकों के ख़िलाफ़ यह कोई पहला मामला नहीं है। 2020 और 2021 में भी उत्तर प्रदेश सरकार ने सिद्धार्थ वरदराजन के ख़िलाफ़ विभिन्न एफ़आईआर दर्ज की थीं, जिनमें कोविड-19 और धार्मिक आयोजनों से संबंधित खबरों को लेकर उन पर फर्जी खबरें फैलाने का आरोप लगाया गया था। इन मामलों में भी पत्रकार संगठनों और बुद्धिजीवियों ने सरकार की कार्रवाइयों को प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला बताया था।
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यह ताजा मामला एक बार फिर से भारत में प्रेस की स्वतंत्रता और पत्रकारों के अधिकारों पर सवाल उठाता है। पत्रकार संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस कार्रवाई को प्रेस को चुप कराने की कोशिश करार दिया है। द वायर ने साफ़ किया है कि वह इस मामले में कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार है और प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए अपनी आवाज बुलंद करता रहेगा।

इस मामले में असम पुलिस की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है और यह देखना बाकी है कि यह विवाद किस दिशा में जाता है। लेकिन यह साफ़ है कि यह घटना भारतीय पत्रकारिता के लिए एक अहम मोड़ साबित हो सकती है।