कुछ दिन पहले एक ड्रॉइंग रूम में, जहाँ हँसी गूँज रही थी और क्रिस्टल के गिलास चमक रहे थे, मैंने एक पंजाबी सोशलाइट — शहर की पढ़ी-लिखी, समझदार महिला— से कहा कि अब शायद भूलने और माफ़ करने का वक्त आ गया है। हमें एक ऐसा भारत बनाना है जो सबको साथ लेकर चले, जो आगे देखे। वो मेरी तरफ़ देखती हैं, आँखों में कुछ मिला-जुला—गर्व भी, दर्द भी। और कहती हैं: "जिस तन लगा, वही जाने।"