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शाहीन बाग़: लोकतंत्र में जनता को आंदोलन करने का भी हक़ नहीं?

देश में इन दिनों इस बात पर बहस तेज़ है कि लोकतंत्र में आवाज़ उठाने के लिए नागरिकों को सड़क पर उतरने का हक़ है या नहीं। महीनों तक धरने पर बैठना जैसे गंभीर अपराध मान लिया गया है। इसे जुर्म मानने वालों का तर्क है कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं है। इसे जायज़ मान भी लें तो दूसरा सवाल है कि केंद्र सरकार ने आंदोलनकारियों के साथ लंबे समय तक संवाद की कोशिश क्यों नहीं की। सुप्रीम कोर्ट के दख़ल देने तक तो उनसे कोई चर्चा तक करने नहीं गया। क्या यह निर्वाचित सरकार का लोकतांत्रिक तरीक़ा है? 

हुक़ूमते हिंद को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह मतशक्ति से सत्ता में आई है और धरने पर बैठे मतदाताओं ने अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल किया है। मतदाताओं की ताक़त से चुनी गई सरकार का यह रवैया क्या मतदाता विरोधी नहीं है?
अतीत के पन्नों को पलटिए। 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) का आंदोलन याद आता है। उन दिनों समूचे देश में कुछ ऐसा ही नज़ारा था। महीनों तक चक्का जाम होता रहा। रेल पटरियां उखाड़ी गईं। सेना और पुलिस से खुलेआम अपील की गई कि वे अंतरात्मा की आवाज़ पर सरकार का आदेश नहीं मानें। और तो और जेपी ने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ़ जस्टिस ए.एन. रे से कहा था कि वे प्रधानमंत्री की अपील पर सुनवाई ही न करें। 
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शायद वह 14 अप्रैल, 1975 की तारीख़ थी, जब जयप्रकाश नारायण की अध्यक्षता में राष्ट्रीय समन्वय समिति की बैठक हुई थी और इसमें एक प्रस्ताव स्वीकार किया गया था। प्रस्ताव में कहा गया था कि देश भर में अवज्ञा आंदोलन शुरू किया जाए। यानी कोई भी व्यक्ति सरकार-प्रशासन का आदेश नहीं मानेगा। 

जेपी आंदोलन में हुई थी आगजनी 

जेपी ने कहा था कि हम सरकार को स्वीकार करने से ही इनकार कर सकते हैं। उन्होंने कहा था कि हम उन्हें (सरकार) कोई सहयोग नहीं करेंगे और न ही सरकार को कोई टैक्स दिया जाएगा। इसके बाद जगह-जगह आगजनी और हिंसक वारदातें होने लगीं थीं। गुजरात और बिहार में तो सरकारी दफ़्तर जला दिए गए थे। दो अख़बारों के कार्यालय जलाए गए थे। तीन हफ़्ते तक रेल के पहिए जाम कर दिए गए थे। सैकड़ों नौजवानों को बाक़ायदा डायनामाइट से रेलें और पुल उड़ाने का प्रशिक्षण दिया गया था। विपक्षी राजनेताओं ने डायनामाइट का इंतजाम कहां से किया था, कोई नहीं जानता। जॉर्ज फर्नांडीस सिख के वेश में इस आंदोलन की अगुआई कर रहे थे। क्या एक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन इस तरह से होना चाहिए था? 

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जेपी आंदोलन के दौरान अनेक मौतें हुई थीं। क्या किसी को याद है कि आंदोलनकारियों की मांग पर ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गुजरात के मुख्यमंत्री को इस्तीफ़ा देने का निर्देश दिया था और एक नवंबर, 1974 को वह जेपी के कहने पर बिहार विधानसभा भंग करने के लिए सहमत हो गई थीं। लेकिन जेपी तो सारे राज्यों की विधानसभाओं को भंग करने की मांग पर अड़े थे। 
चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्ख़ास्त करने की जेपी की ज़िद का आधार क्या लोकतांत्रिक था? क्या इससे यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि इस आंदोलन के पीछे स्पष्ट रूप से राजनीतिक मंशा थी और जेपी विपक्ष को सत्ता में देखना चाहते थे।

जेपी और इंदिरा गाँधी के बीच क़रीब डेढ़ महीने पत्रों का आदान-प्रदान भी हुआ था। बाद में जेपी ने अपनी ओर से ही संवाद का सिलसिला बंद कर दिया था। उस समय की केंद्र सरकार ने भी इस आंदोलन को अपने ढंग से दबाने की कोशिश की थी। हमारी एक पीढ़ी आपातकाल के उन दिनों में प्रेस सेंसरशिप का विरोध करते हुए पत्रकार बन गई थी। हम तब भी आपातकाल को उचित नहीं मानते थे और न ही आज उसे जायज़ कहते हैं। वह आंदोलन उस समय शांतिपूर्ण तो यक़ीनन नहीं था। उन दिनों तो कहीं पर यह शास्त्रार्थ नहीं हुआ कि लोकतंत्र में अवाम को आंदोलन करने का हक़ है या नहीं जैसा कि दिल्ली में शाहीन बाग़ के आंदोलन के सिलसिले में कहा जा रहा है। 

शाहीन बाग़ के आंदोलन को लेकर कहा जा रहा है कि यातायात रोकना अनैतिक है। किसी भी जम्हूरियत में आंदोलन के बुनियादी अधिकार को चुनौती देने का काम कैसे किया जा सकता है?

टेलीविजन चैनलों के परदे गवाह हैं कि जब नागरिकता क़ानून के आंदोलन में हिंसा दाख़िल हुई तो पुलिस की भूमिका कैसी थी। इसके बाद तो कुछ कहने के लिए भी नहीं रह जाता। किसी भी सूरत में अवाम का यह हक़ उससे नहीं छीना जा सकता। हक़ीक़त तो यही है कि अवाम के इस अधिकार की रक्षा का भार भी सरकार पर है। 

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राजेश बादल
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