क्या स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें जलाने या उनके चित्रों पर कालिख पोतने वालों को देशभक्त कहा जा सकता है? हाल के दिनों में पुणे और गाजियाबाद जैसे शहरों में 1857 की क्रांति के नायक और आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की तस्वीरों को औरंगजेब समझकर जलाया गया या उन पर कालिख पोती गई। यह केवल ऐतिहासिक अज्ञानता का परिणाम है या सांप्रदायिक नफरत की सुनियोजित साजिश? और सबसे बड़ा सवाल, यह नफरत हमारे देश को कहाँ ले जा रही है?

1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारत की आजादी की पहली संगठित लड़ाई थी। इस विद्रोह में रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहेब पेशवा, तात्या टोपे और वीर कुँवर सिंह जैसे वीरों ने बहादुर शाह ज़फ़र का झंडा थामा था। 82 वर्ष की आयु में जब मुगल सल्तनत मात्र प्रतीकात्मक थी और ज़फ़र ईस्ट इंडिया कंपनी के बंधक जैसे थे, तब भी विद्रोही सिपाहियों के आह्वान पर उनकी बूढ़ी हड्डियों में जोश जाग उठा। उन्होंने विद्रोह की कमान संभाली और एक ऐलाननामा जारी किया, जिसमें हिंदुओं और मुसलमानों को भाई-भाई कहकर एकजुट होने का आह्वान किया गया। इस ऐलान में सभी को बराबरी का सम्मान देने और हिंदुओं की भावनाओं का ख्याल रखते हुए गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की बात थी। ज़फ़र ने दिल्ली में रामलीला को शाही संरक्षण प्रदान किया और अकबर की सुलह-ए-कुल नीति को पुनर्जनन दिया, जो अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो” की नीति के लिए सबसे बड़ा ख़तरा थी।

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ज़फ़र की कुर्बानियाँ

क्रांति के असफल होने के बाद अंग्रेजों ने ज़फ़र को हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार किया। उनके दो बेटों—मिर्ज़ा मुग़ल और मिर्ज़ा खिज़्र सुल्तान—तथा पोते मिर्ज़ा अबू बकर को 22 सितंबर 1857 को दिल्ली के खूनी दरवाजे पर गोली मार दी गई। उनके शवों को चाँदनी चौक में कोतवाली के सामने नंगे प्रदर्शित किया गया, ताकि जनता में भय पैदा हो। लोककथाओं में यह भी प्रचलित है कि इन शहजादों के सिर काटकर ज़फ़र के सामने पेश किए गए, जिस पर उन्होंने कहा, “मुगलिया खानदान के वारिस अपने बाप के सामने ऐसे ही सुर्ख़ी होकर आते हैं।” इस विद्रोह में 29 मुगल शहजादों को गोली मारी गई या फाँसी दी गई, और दर्जनों को काला पानी की सजा दी गई। लाल किला लूट लिया गया, और इसके आसपास की बस्तियाँ तोपों से उजाड़ दी गईं। ज़फ़र को रंगून (म्यांमार) निर्वासित कर दिया गया। ज़फ़र शायर भी थे और उनकी ग़ज़ल का एक शेर आज भी दिल में दर्द की लहर उठाता है-

“कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ्न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।”

नेताजी सुभाष और ज़फ़र

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बहादुर शाह ज़फ़र को “आज़ादी की पहली लड़ाई का अंतिम योद्धा सम्राट” माना। 26 सितंबर 1943 को, आज़ाद हिंद फौज के सैन्य अभियान के बीच, नेताजी ने रंगून में ज़फ़र के मज़ार पर 50,000 रुपये का नज़राना चढ़ाया और उनके नाम से प्रसिद्ध एक प्रसिद्ध शेर का अनुवाद पढ़ा: “जब तक लहू की आहिंदुस्तान की तलवार लंदन के तख्त तक चलेगी।”

नेताजी कहते थे कि मुगल काल भारत के इतिहास का गौरवशाली अध्याय था और अंग्रेजों की यह धारणा कि भारत केवल उनके शासन में एकजुट हुआ, पूरी तरह ग़लत है। नेताजी के सपनों का हिंदुस्तान वह था, जहाँ हर धर्म के लोग सम्मान के साथ रहें, और सांप्रदायिक राजनीति का कोई स्थान न हो।

संयोग नहीं कि बहादुर शाह ज़फ़र की तस्वीरों पर कालिख पोतने वाले भगवा झंडा फहरा रहे थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम में चेतावनी दी थी कि धर्म का दुरुपयोग कर सत्ता हासिल करने की कोशिश करने वालों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल देना चाहिए। उन्होंने हिंदू महासभा की त्रिशूलधारी संन्यासियों द्वारा वोट माँगने की निंदा की थी और इसे धर्म का अपमान बताया था। आज भगवा की आड़ में नफ़रत फैलाने वालों को नेताजी पहले ही पहचान चुके थे। रावण ने भी भगवा वेष में सीता हरण किया था, और आज भगवा के नाम पर सत्ता हरण की कोशिशें हो रही हैं।

चापलूसी बनाम बलिदान

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों तंज़ कसा था कि मुग़लों के वंशज आज रिक्शा चला रहे हैं। इसकी वजह ये है कि मुग़लों ने अंग्रेज़ों से लड़ते हुए अपना सबकुछ लुटा दिया जबकि तमाम राजे-महाराजे अंग्रेज़ों की चापलूसी करते हुए अपनी धन-दौलत को बढ़ाते रहे। 1911 के दिल्ली दरबार में, जब जॉर्ज पंचम का राजतिलक हुआ, तब कई देशी राजाओं ने चापलूसी की सारी हदें पार कर दीं। कई राजकुमार सम्राट का चोगा उठाकर चल रहे थे और ब्रिटिश उपाधियों के लिए लालायित थे। दूसरी ओर, बहादुर शाह ज़फ़र ने अंग्रेजों का साथ देने के बजाय क्रांति को चुना। अगर वे अंग्रेजों के साथ होते तो आज लाल क़िला उनके वंशजों के पास होता, जैसे ग्वालियर का क़िला उन वंशजों के पास है, जिन्होंने रानी लक्ष्मी बाई के ख़िलाफ़ अंग्रेजों की मदद की। सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियाँ याद आती हैं: “अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।”

विचार से और

बहादुर शाह ज़फ़र की तस्वीर जलाना या उन पर कालिख पोतना केवल एक व्यक्ति का अपमान नहीं, बल्कि 1857 के उन तमाम शहीदों का अपमान है, जिन्होंने देश के लिए अपनी जान दी। यह ऐतिहासिक अज्ञानता और सांप्रदायिक नफरत का परिणाम है, जो हमारे देश की एकता और सद्भाव को कमजोर करता है। मौजूद सत्ता लेकिन यही चाहती भी है। मध्ययुगीन बर्बरता को इतिहास से खींचकर वर्तमान में लाने का यह दुस्साहस भविष्य को मलबा बनाकर छोड़ेगा।