मोदी, नीतीश, पीके, तेजस्वी और राहुल गांधी
गिनती रात के बाद तक चलती रही। नतीजे देख कर यक़ीन करना मुश्किल था। बिहार वह राज्य है जहाँ आधे से ज़्यादा युवा बेरोज़गार हैं, कोसी की बाढ़ आज भी घरों को डुबो देती है, और दिल्ली से लौटते मज़दूरों की जेबें खाली होती हैं, बदन थका हुआ। लेकिन इसी बिहार ने एनडीए को ऐसी जीत दी जैसे कोई ताजपोशी हो रही हो, चुनाव नहीं।
एक एग्ज़िट पोल ने तो एनडीए को सभी सीटें दे दी थीं। असली नतीजे भी कम नहीं थे- 202 सीटें। भाजपा को 89, जदयू को 85, और चिराग पासवान की एलजेपी (आरवी) समेत सहयोगियों को 19। महागठबंधन 35 पर सिमट गया। राजद की 25 सीटों में विपक्षी उम्मीद सिमट गई!
ज़मीन पर जो माहौल था और जो नतीजे आए, उनके बीच फर्क नहीं था- वह एक खाई थी। और उस खाई में जैसे भारत के लोकतंत्र की लाश पड़ी थी—अभी गर्म, थोड़ी हिलती हुई, लेकिन मरी हुई।
बिहार 2025 चुनाव नहीं था। यह उस सोच का सुनियोजित विस्फोट था कि सिर्फ वोट मायने रखते हैं। स्क्रिप्ट दिल्ली में लिखी गई थी, पटना में नहीं।
चुनाव आयोग की एसआईआर
चुनाव आयोग ने एसआईआर यानी विशेष पुनरीक्षण को सुरक्षा के नाम पर लागू किया। लेकिन यह लोकतंत्र की नसों पर सर्जिकल स्ट्राइक बन गया। वोटर छांटे गए— ना शहरी अमीर, ना गांव के गरीब जो झुंड में वोट देते हैं। निशाना बना वह बीच का तबका— छोटे दुकानदार, ठेके पर पढ़ाने वाले मास्टर, स्मार्टफ़ोन वाले प्रवासी जिनके पास कोई सहारा नहीं। इनका नाम वोटर सूची से ग़ायब था। जैसे किसी बही-खाते से पन्ना फाड़ दिया गया हो। हेल्पलाइन ने मदद नहीं की। अदालतों ने “जरूरी सुनवाई” कहकर मुंह मोड़ लिया। अब समझ में आता है— जब वोटर सूची एल्गोरिदम से घटती है, तो लोकतंत्र डिलीट होकर मरता है।
फिर आया पैसा। मतदान से एक रात पहले लाखों महिलाओं के खाते में दस दस हज़ार पहुँचे। यह मदद नहीं थी, यह डिजिटल रिश्वत थी। प्रधानमंत्री, जिन्हें एक साफ़ सुथरे लोकतंत्र में राज्य चुनावों से दूर रहना चाहिए, स्टार प्रचारक बनकर उतरे। भीड़ मायने नहीं रखती थी, कैमरे का कोण रखता था।
लाल क़िला धमाका— समय ऐसा जैसे स्क्रिप्टेड हो— डर का माहौल बना गया। डर वहाँ वोट बढ़ाता है जहाँ ज़रूरत होती है, और घटाता है जहाँ नुकसान होता है। एग्ज़िट पोल नतीजे नहीं बताते, बस उन्हें वैध ठहराते हैं।प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। नया विकल्प लग रहा था। असल में वह ट्रोजन हॉर्स निकला। तीन साल से जाति और वंशवाद से मुक्त युवा मंच बना रहा था। शुरुआत में बढ़त मिली, लेकिन दोपहर तक सब गायब। एक भी सीट नहीं मिली।
लेकिन उसका वोट प्रतिशत महागठबंधन के लोकसभा से विधानसभा में 2.8% की गिरावट के बराबर था। विपक्ष 37.3% पर आ गया।
जन सुराज ने राजद के गढ़ में सेंध मारी। एनडीए को नहीं, महागठबंधन को नुक़सान पहुँचाया। कई सीटों पर अंतर 15,000 से कम था। पहले आने वाले को जीत देने वाली प्रणाली में यही फर्क होता है- लहर और सफाए के बीच। तीसरा घोड़ा दौड़ बिगाड़ता है। यहाँ उसने विजेता की रथयात्रा आसान कर दी।
अब एक तर्क चल रहा है- एनडीए की जीत इसलिए हुई क्योंकि भाजपा ने सीट बाँटने में चतुराई दिखाई, विपक्ष बिखरा हुआ था। यानी जीत प्रबंधन की थी, न कि धांधली की।
यह तर्क तीन वजहों से ग़लत है
- पहली बात- कोई भी सीट बँटवारा यह नहीं समझा सकता कि किन्हीं खास वोटरों के नाम अचानक सूची से क्यों ग़ायब हो गए। प्रबंधन नाम नहीं मिटाता।
- दूसरी बात- 37% वोट लेकर महागठबंधन को सिर्फ 35 सीटें मिलें, यह बिना वोटों के बँटवारे की साज़िश के मुमकिन नहीं। वह साज़िश थी जन सुराज। रणनीति जनादेश को बेहतर बना सकती है, गढ़ नहीं सकती।
- तीसरी बात— अंतिम समय में पैसे बाँटना, सुरक्षा का डर फैलाना, और एग्ज़िट पोल का ज़मीन से कटे नतीजों से मेल खाना— यह सब प्रबंधन नहीं, नियंत्रण के औज़ार हैं।
“स्मार्ट मैनेजमेंट” की कहानी एक नकाब है। यह उस प्रक्रिया को साफ़-सुथरा दिखाती है जो न तो स्वतंत्र थी, न निष्पक्ष। यह कुशलता की तारीफ़ में इंजीनियरिंग को छुपाती है।
साफ़ कहें तो—विपक्ष ने बिहार नहीं हारा। उसे हरवाया गया।
सालों से नियम साफ़ हैं:
- हारो - ईडी रेड पड़ेगी।
- जीतो - राज्यपाल अड़ंगा लगाएंगे।
- विरोध करो - देशद्रोह का मुक़दमा झेलो।
लेकिन विपक्ष क्या करता है? ट्वीट करता है, टीवी पर बयान देता है। राहुल गांधी प्यार जीतते हैं, चुनाव हारते हैं। वह एक दुखांत नायक हैं, जिसकी स्क्रिप्ट पहले से लिखी जा चुकी है। कांग्रेस एक वायरल संदेश बन गई है— तेज़, भावुक, लेकिन बेमतलब। छह सीटों पर सिमट गई। राजद को भी नीचे खींच लिया।
विपक्ष मासूम नहीं है। वह पालतू बन चुका है। उसे प्रतीकात्मक विरोध पसंद है, ढाँचागत टकराव नहीं। प्रेस कॉन्फ़्रेंस करता है, धरना नहीं। गठबंधन करता है, जो पहली ही महत्त्वाकांक्षा पर टूट जाता है। उसे पीड़ित दिखने में फ़ायदा है। भाजपा को सत्ता मिलती है, विपक्ष को सहानुभूति। जनता को कुछ नहीं।
हर मज़बूत लोकतंत्र की रीढ़ होती हैं स्वतंत्र संस्थाएँ। भारत की संस्थाएँ अब सत्ता से टकराती नहीं, उसकी सेवा करती हैं।
चुनाव आयोग चुप है। सीबीआई और ईडी भ्रष्टाचार नहीं, विपक्ष के पीछे भागते हैं। राज्यपाल वायसराय बन गए हैं। मीडिया या तो जयकारा लगाता है या गूंज बन गया है। न्यायपालिका कभी-कभी हिम्मत दिखाती है, लेकिन फैसले देर से आते हैं। ये संस्थाएँ ख़राब नहीं हुईं— बस आदेश मान रही हैं।
एसआईआर से नाम काटे
बिहार का नतीजा यही दिखाता है। एसआईआर से नाम काटे गए। वोट काटने वाली चालें अनदेखी रहीं। कल्याण योजनाएँ हथियार बनीं। एनडीए का 47.2% वोट 202 सीटों में बदल गया। महागठबंधन का 37.3% सिर्फ 35 सीटों में सिमट गया।
एनडीए को श्रेय मिलना चाहिए—रणनीति में 10 में से 10, चालाकी में भी 10 में से 10। योजना बेरहम थी, लेकिन सटीक। महिलाओं को पैसे दिए गए, जिससे उनका मतदान 71.6% तक पहुँचा— पुरुषों से कहीं ज़्यादा। चिराग पासवान की पार्टी वफादार साथी बनी रही। जन सुराज ने विपक्ष के वोटों को चीर दिया। एनडीए को आधा राज्य नहीं चाहिए था। उसे विपक्ष का आधा हिस्सा चाहिए था।
भारत के लोकतंत्र को धीरे-धीरे काटते-काटते अब बिहार की सत्ता का अधिग्रहण पूरा हो गया है। यह वही भारत है जिसने कभी गुलामी की जंजीरें तोड़ी थीं। अब साफ़ है— चुनाव से लोकतंत्र नहीं बचेगा। इसके लिए प्रतिरोध चाहिए। शुरुआत ऐसे हो सकती है:
1. चुनाव आयोग का बहिष्कार, चुनाव का नहीं- विपक्ष को मिलकर चुनाव आयोग पर अविश्वास जताना चाहिए
- नियुक्तियाँ सर्वसम्मति से हों, विपक्ष के नेता को वीटो मिले
- चयन प्रक्रिया लाइव हो
- रिटायर अफसरों को साल तक कोई सरकारी काम न दिया जाये
2. जो संस्थाएँ बची हैं, उनका इस्तेमाल करें- वोटर सूची से नाम कटने और थर्ड पार्टी फंडिंग पर जनहित याचिका डालें
- आरटीआई से एसआईआर के एल्गोरिदम की जानकारी माँगें
- संसद ठप करें जब तक चुनाव आयोग में सुधार न हो
3. समानांतर नागरिक व्यवस्था बनाएं- ब्लॉकचेन पर जनता की वोटर सूची बनाएं
- नागरिकों द्वारा चलाए जाने वाले छाया मतगणना केंद्र बनाएं
- बेरोज़गार युवाओं को मतदान पर्यवेक्षक के रूप में प्रशिक्षित करें
4. कांग्रेस को फिर से गढ़ें — या बदल दें- विपक्ष को छाया मंत्रिमंडल चाहिए
- हर राज्य में डेटा आधारित युद्धकक्ष बनें
- उम्मीदवारों के लिए खुले प्राथमिक चुनाव हों
- कांग्रेस को पुनर्जन्म चुनना होगा — या विदाई
5. चुनाव की आज़ादी के लिए वैश्विक लड़ाई शुरू करें- संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधियों से चुनावी आज़ादी पर हस्तक्षेप की माँग करें
- एसआईआर की तकनीकी संरचना को अंतरराष्ट्रीय साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों से साझा करें
- भविष्य के राज्य चुनावों में वैश्विक पर्यवेक्षकों को आमंत्रित करें
बिहार 2025 चुनाव नहीं था। यह दिनदहाड़े की लूट थी। जो चीज़ चुराई गई, वह थी संप्रभुता। औज़ार थे — एल्गोरिदम, रिश्वत, धमाके और एक ट्रोजन हॉर्स जिसका नाम था जन सुराज। साथ देने वाला था— एक ऐसा विपक्ष जो इस लूट को उजागर करने से डर गया।
जहाँ लोकतंत्र में विपक्ष मज़बूत होता है, वहाँ अगर वोटों से खेल होता है तो सड़क ही आख़िरी मतपेटी बन जाती है।
भारत एक मोड़ पर खड़ा है। अगर ऐसी एक और ‘भारी जीत’ हुई, तो चुनाव भी संविधान की प्रस्तावना में लिखे शब्दों की तरह हो जाएंगे— सिर्फ़ काग़ज़ पर, ज़मीन पर नहीं।
अब विपक्ष को तय करना है— क्या वह इस दुखांत की कोरस में गाएगा? या लोकतांत्रिक विद्रोह की चिंगारी जलाएगा?
क्योंकि अगले चुनाव की पटकथा लिखी जा रही है। और अगर भारत ने स्क्रिप्ट अब नहीं बदली— तो अंत कभी नहीं बदलेगा।