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बीजेपी की टक्कर आखिर किससे है?

बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्ढा कहते हैं कि विपक्ष के पास न नेता हैं और न नीयत, इसलिए देश के सामने बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है। नड्ढा का ये विचार सुनकर कविवर वीरेंद्र मिश्र की याद आ जाती है। वे कहते थे कि- ' अपनी टक्कर अपने से है या फिर शाहजहां से है'। देश में अब कोई शाहजहां वैसे तो है नहीं और यदि है तो वे हैं पीएम मोदी! ऐसे में नड्ढा के कहने का एक ही अर्थ निकलता है कि भाजपा को कांग्रेस से नहीं बल्कि पीएम मोदी से ही लड़ना है।

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि इस समय भाजपा में मोदी की टक्कर का कोई नेता नहीं है। होगा भी तो वो मोदी से टकराने की हिम्मत नहीं कर सकता, क्योंकि भाजपा में नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ताकत से उभरता है। इस समय संघ खुद मोदी के आभामंडल की चपेट में है। ये पहला मौक़ा है जब संघ के प्रमुख को 'जेड प्लस' सुरक्षा की ज़रूरत पड़ी है। यानी संघ प्रमुख या तो अपनी ही सरकार  में असुरक्षित हैं या फिर सरकार ने संघ प्रमुख को सुविधाभोगी बना दिया है। संघ के पास मोदी का कोई विकल्प है या नहीं, ये संघ जाने किन्तु देश जानता है कि विपक्ष के पास मोदी का यदि कोई विकल्प है तो सिर्फ राहुल गांधी है। भले ही राहुल को समूचा विपक्ष और सत्ता पक्ष नेता माने या न माने।

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सर्वशक्तिमान भाजपा और प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी के सर पर सत्ता के अलावा राहुल का ही भूत सवार है। इस भूत को सर से उतारने के लिए ही भाजपा को न चाहते हुए अपने कुनबे में निराधार दलों को शामिल कर एनडीए की नफरी बढ़ानी पड़ रही है, अन्यथा राहुल और कांग्रेस को निबटाने के लिए अकेली भाजपा ही पर्याप्त है। भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनाव में 300 के पार लक्ष्य हासिल किया था। इस बार उन्हें कम से कम 400 के पार जाना चाहिए क्योंकि देश में भाजपा के मुकाबले कोई है ही नहीं! कांग्रेस को भाजपा नेतृत्व विहीन मानती है। फिर बाकी बचा कौन? कांग्रेस के साथ खड़े तमाम दलों की हैसियत क्षेत्रीय दलों जैसी है। वे अकेले भाजपा का मुकाबला कर ही नहीं सकते।

ये चित्र काल्पनिक है। लेकिन इसे वास्तविक बनाने के लिए भाजपा, संघ और दोनों से बढ़कर प्रधानमंत्री मोदी राहुल गांधी को ठिकाने लगाने में लगे हुए हैं। भाजपा राहुल गांधी का मुकाबला  सड़क पर करने में नाकाम रही है। राहुल ने देश को एक सिरे से दूसरे सिरे तक पैदल नाप लिया किन्तु भाजपा ये साहस नहीं जुटा सकी। भाजपा के पास राहुल की टक्कर का केवल एक नेता है और वे हैं पीएम मोदी। और मोदी के पास न समय है और शक्ति कि वे राहुल की तरह देश को अपने कदमों से नाप सकें। ऐसे में राहुल का मुकाबला केवल उसे संसद से बाहर रखकर ही किया जा सकता है। जेल भेजकर ही किया जा सकता है। इसकी तैयारी भी चल रही है। देश की न्याय-व्यवस्था भी राहुल के साथ खड़ी होती नहीं दिखाई दे रही है।

सत्ता सुंदरी का वरण करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद का इस्तेमाल करने के बावजूद भाजपा न कांग्रेस को समाप्त कर पायी है और न कांग्रेस के नेतृत्व को। भाजपा भूल जाती है कि सत्ता के खेल में कांग्रेस कम खिलाड़ी नहीं है। कांग्रेस ने दो मर्तबा वंशवाद का चोला उतार कर गांधी परिवार के बाहर के लोगों को प्रधानमंत्री पद पर बैठाया है। इस बार भी यदि ज़रूरत पड़ी तो कांग्रेस ये कुर्बानी दे सकती है लेकिन भाजपा को सत्ताच्युत करने के अपने लक्ष्य से पीछे नहीं हट सकती। कांग्रेस के अलावा देश में कोई दूसरा राजनीतिक दल है भी नहीं जो भाजपा और मोदी को चुनौती दे सके।
आगामी आम चुनावों में किस गठबंधन के साथ कितने दल हैं ये महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण ये है कि किस दल के पास कितनी ताकत है, जनाधार है?

भाजपा के गठबंधन में शामिल दलों की संख्या भले ही आपको अधिक नज़र आये लेकिन राजनीतिक शक्ति के मामले में अधिकांश शून्य है। एक खंडित शिवसेना और एनसीपी इसका अपवाद हैं। अपवाद हमेशा की तरह बीजद भी है। जबकि कांग्रेस की सेना में तृमूकां, राजद, जेडीयू , आप भी है जिनकी अनेक राज्यों में सरकारें भी है। और ये दल उन क्षेत्रों में काम करते हैं जिनमें लोकसभा की अधिकांश सीटें हैं। अखिलेश की सपा भी गाहे-बगाहे कांग्रेस के साथ है। बसपा का साथ कांग्रेस को हो या न हो, लेकिन उससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि बसपा के नख-दन्त भाजपा पहले ही निकाल चुकी है।

गठबंधन के इस नए दौर में मुझे पुराने समाजवादी और घाट-घाट का पानी पी चुके नेता रमाशंकर सिंह का ये सुझाव सही लगता है कि कांग्रेस इस बार प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल के नाम पर जिद न करे। कांग्रेस यदि इतनी समझदारी दिखा दे तो भाजपा के लिए सत्ता संग्राम जीतना आसान नहीं होगा। जैसे कौओं के कोसने से ढोर नहीं मरते वैसे ही भाजपा के कोसने से न कांग्रेस मरने वाली है और न कांग्रेस के कोसने से भाजपा। सबको जनता की अदालत में पेश होना पड़ेगा। जनादेश हासिल करना होगा। आम चुनाव का जनादेश न हड़पा जा सकता है और न खरीदा जा सकता है। हालांकि भाजपा की हैसियत इस समय सबसे बड़े राजनीतिक व्यापारी की है। कांग्रेस का खजाना खाली है। पीएम मोदी की ईडी और सीबीआई के भय से कोई कांग्रेस को चन्दा देने का साहस नहीं जुटा पा रहा। कांग्रेस के पास सत्ता के एटीएम भी गिने -चुने हैं। यानी इस बार के आम चुनाव 'रथी' और 'विरथी' के बीच होने वाले हैं। रथ किसके पास है और पैदल बिना रथ के कौन है, ये बताने की आवश्यकता नहीं है।

विचार से ख़ास

दिल्ली के तख्त का फ़ैसला बेंगलुरु में होगा या दिल्ली में, ये कहना जल्दबाजी है, क्योंकि चुनावों से पहले राजनीतिक परिदृश्य और बदलेगा। अनेक दल और विचारधाराएं गड्डमड्ड होंगी। किसी की निष्ठा और प्रेम अचानक पीएम मोदी के प्रति जागेगा तो किसी का कांग्रेस और राहुल के प्रति। लेकिन हाँ ये तय है कि शंखनाद हो चुका है। रणभेरियाँ बजने लगीं हैं। सेनाएं  सजने लगी हैं। रथ संवरने लगे हैं। जनता को चुनाव पूर्व के उपहार मिलने लगे हैं। अब ये जनता के ऊपर है कि वो अपना भविष्य किसके हाथों में सौंपे। आम चुनाव से पहले अभी भाजपा और कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधनों को देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में एक अग्निपरीक्षा से और गुजरना है। आप इसे सत्ता का सेमीफाइनल कह सकते हैं। अर्थात आने वाले दिनों में राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जिसका होगा, समझ लीजिये कि अगले साल सत्ता की पगड़ी भी उसके सर पर ही होगी।

राजनीति में दिलचस्पी न रखने वालों के लिए ये आलेख बेस्वाद हो सकता है किन्तु जिन्हें राजनीति में दिलचस्पी है वे इस आलेख के जरिये भविष्य की राजनीयति का अनुमान आसानी से लगा सकते हैं। आम आदमी लिख-पढ़कर और देखकर ही तो अपना मन बनाता है। ये काम अकेले गोदी मीडिया के जिम्मे थोड़े ही है। अब सोशल मीडिया भी है और पहले से कहीं ज्यादा मजबूत है। जनादेश को ये भी प्रभावित करेगा। इसलिए बस तेल देखिये और तेल की धार देखिये।

(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से साभार)

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राकेश अचल
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