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अति पिछड़ों का बीजेपी से मोहभंग

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 73 सीटें इसलिए जीत सकी थी क्योंकि बीजेपी ने ग़ैर यादव और ग़ैर जाटव मतदाताओं का समर्थन हासिल कर लिया था। पिछड़ों में कुर्मी, लोध, निषाद और मौर्य जैसी जातियाँ बीजेपी के साथ खड़ी हो गईं थीं।  लेकिन 2019 के चुनावों में बीजेपी का अति पिछड़ा आधार सिमटता दिखाई दे रहा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में राजभर मतदाताओं को बीजेपी के समर्थन में खड़ा करने वाले पूर्व मंत्री ओम प्रकाश राजभर इस बार बाग़ी हो गए हैं।
शैलेश

उत्तर प्रदेश में जातीय गठजोड़ इस बार भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अनुकूल दिखाई नहीं दे रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अति पिछड़ों और अति दलितों का जबरदस्त समर्थन मिला था। इसके चलते बीजेपी को 80 में से 73 (बीजेपी 71 और सहयोगी अपना दल 2) सीटों पर जीत मिली थी। 

पिछले चुनाव के दौरान बीजेपी के रणनीतिकार यह अच्छी तरह जानते थे कि पिछड़ों की सबसे सबल जाति यादव किसी भी तरह से समाजवादी पार्टी से अलग नहीं जाएगी और हुआ भी यही। समाजवादी पार्टी का क़रीब 22 फ़ीसदी वोट शेयर बरक़रार रहा और उसे 5 सीटों पर जीत मिली थी। 

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बहुजन समाज पार्टी के सबसे सबल समर्थक जाटव उसके साथ बने रहे थे, इसलिए उसे भी क़रीब 22 फ़ीसदी वोट मिले हालाँकि उसे कोई सीट नहीं मिली थी। इसके बाद भी बीजेपी 73 सीटें इसलिए जीत सकी थी क्योंकि बीजेपी ने ग़ैर यादव और ग़ैर जाटव मतदाताओं का साथ हासिल कर लिया था। पिछड़ों में कुर्मी, लोध, निषाद और मौर्य जैसी जातियाँ बीजेपी के साथ खड़ी हो गईं थीं।  
2019 के चुनावों में बीजेपी का अति पिछड़ा आधार सिमटता दिखाई दे रहा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में राजभर मतदाताओं को बीजेपी के समर्थन में खड़ा करने वाले पूर्व मंत्री ओम प्रकाश राजभर इस बार बाग़ी हो गए हैं।

ओम प्रकाश राजभर ने हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया और 39 लोकसभा क्षेत्रों से अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं। बीजेपी को इसका नुक़सान हो सकता है। 

अपना दल में टूट से राह मुश्किल

पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपना दल कुर्मी मतदाताओं को बीजेपी गठबंधन के साथ लाने में कामयाब रहा था। अपना दल अब दो हिस्सों में बँट गया है। केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल बीजेपी के साथ हैं लेकिन उनकी माँ कृष्णा पटेल अब उनके ख़िलाफ़ खड़ी हैं। 2014 में प्रतापगढ़ से जीते अपना दल के सांसद भी बाग़ी हो चुके हैं। कुशवाहा समाज के एक बड़े नेता बाबू सिंह कुशवाहा इस बार कांग्रेस के साथ खड़े हैं। 

ओम प्रकाश राजभर और बाबू सिंह कुशवाहा जैसे नेता किसी समय बहुजन समाज पार्टी के साथ थे। ऐसे नेताओं के बूते पर ही मायावती दलितों और अति पिछड़ों का एक बड़ा मोर्चा बनाने में कामयाब रही थीं।
2007 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण-दलित-अति पिछड़ा और मुसलमानों को एक साथ खड़ा करके ही बसपा बहुमत तक पहुँची थी और मायावती की मुख्यमंत्री के रूप में ताज़पोशी हुई थी। राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी क़रीब 20 सीटों पर 5 से 7 फ़ीसदी वोटों पर असर रखती है। 

बुंदेलखंड के एक प्रमुख नेता बालकुमार पटेल भी इस बार कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं। बुंदेलखंड में पटेलों की अच्छी-ख़ासी आबादी है और जीत-हार में उनकी प्रमुख भूमिका रहती है। 

प्रवीण निषाद ने छोड़ी पार्टी 

पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना के तटवर्ती इलाक़ों में निषाद समाज की अच्छी-ख़ासी मौजूदगी है। इस इलाक़े में निषाद पार्टी की अच्छी-ख़ासी पकड़ रही है। इसी पार्टी के नेता प्रवीण निषाद को 2017 के गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में समाजवादी पार्टी ने अपने चुनाव चिन्ह पर खड़ा किया था। उस चुनाव में प्रवीण ने बीजेपी को हराकर उसे तगड़ा झटका दिया था। गोरखपुर लोकसभा की सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस्तीफ़े से खाली हुई थी। वैसे, प्रवीण अब बीजेपी में शामिल हो गए हैं और संत कबीरनगर से चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन निषादों के बीच समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव की पकड़ अब भी बनी हुई है। 

अति पिछड़ों में लोध मतदाताओं पर बीजेपी का नियंत्रण लगभग बरक़रार है। यमुना के किनारे के गाँवों में लोध काफ़ी संख्या में हैं। इसी समाज से कल्याण सिंह बीजेपी के बड़े नेता बने और प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। बाबरी मसजिद का ढाँचा गिराये जाने के समय कल्याण सिंह ही सीएम थे।
उत्तर प्रदेश के पाँचवे, छठे और सातवें दौर के चुनाव में अति पिछड़ी जातियों के प्रभाव वाले इलाक़े आते हैं। गंगा-यमुना का यही मैदान समाजवादी पार्टी का गढ़ भी है। मायावती भी यहाँ समान दबदबा रखती हैं। इस इलाक़े में इलाहाबाद, गोरखपुर, ग़ाज़ीपुर, बस्ती जैसे वो इलाक़े आते हैं जहाँ पिछड़े और दलित मतदाताओं का ख़ासा दबदबा है। 
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समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन से भी इस इलाक़े का समीकरण बदला है। छठे और सातवें चरण में पूर्वी उत्तर प्रदेश की 27 सीटों पर मतदान होगा। इसमें 7 सीट ऐसी हैं, जहाँ सपा और बसपा का वोट जोड़ दें तो वे बीजेपी को काफ़ी पीछे छोड़ देते हैं। कुछ सीटें ऐसी भी हैं जहाँ हार-जीत का अंतर काफ़ी मामूली रह जाता है। यही इलाक़ा बुरे दिनों में कांग्रेस के साथ था। 
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नए समीकरण बना रही कांग्रेस 

2009 में कांग्रेस की 22 सीटों पर जीत में इस इलाक़े की ज़बरदस्त भागीदारी थी। कांग्रेस ने इस इलाक़े में नए समीकरण को साधने की कोशिश की है। अति पिछड़ी जातियों के नेताओं को अपने साथ लेकर कांग्रेस फिर से जोर लगा रही है। हालाँकि सपा-बसपा गठबंधन के सामने कांग्रेस का गठजोड़ पीछे दिखाई दे रहा है। 

नाराज़ हैं केशव प्रसाद मौर्या 

पूर्वी उत्तर प्रदेश से बीजेपी के बड़े नेता केशव प्रसाद मौर्या कई बार अपनी नाराज़गी दिखा चुके हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव के समय प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष रह चुके मौर्या को पहला झटका तब लगा था जब उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया था। अब चर्चा यह है कि मौर्या को पार्टी नेतृत्व ज़्यादा भाव नहीं दे रहा है। 

नए जातीय समीकरण बीजेपी के पक्ष में नहीं हैं लेकिन बीजेपी को उम्मीद है कि आतंकवाद और पाकिस्तान के प्रति मोदी सरकार के उग्र प्रचार से उपजे राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के साथ-साथ मोदी के प्रभामंडल की मदद से वह इन चुनावों में जातीय तिलिस्म को तोड़ने में कामयाब रहेगी। 
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