जगदीप धनखड़ के इस्तीफ़े पर एक शेर याद हो आया- “बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले”। धनखड़ आज कहाँ हैं, ये किसी को नहीं मालूम। कोई कह रहा है कि वो नज़रबंद हैं, कोई कह रहा है कि वो कुछ समय के लिये अंडरग्राउंड हो गये हैं। हक़ीक़त क्या है, किसी को नहीं पता। लेकिन उनके इस्तीफ़े ने उपराष्ट्रपति का चुनाव ज़रूर करा दिया है। और ऐसा लगता है कि सरकार और बीजेपी ने उनके इस्तीफ़े से सबक़ लिया है और एक ऐसा उम्मीदवार दिया है जिनकी छवि काफ़ी साफ-सुथरी और बेदाग़ है। कई राज्यों के राज्यपाल रहने के बाद भी वो किसी विवाद में नहीं फँसे। सी पी राधाकृष्णन की तारीफ़ उनके विरोधी भी करते हैं। वो तमिलनाडु से दो बार सांसद रहे हैं और डीएमके का कहना है कि वो सही आदमी हैं, लेकिन ग़लत पार्टी में हैं। कभी ये बात अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कही जाती थी।

राधाकृष्णन के चयन ने ये बात साफ़ कर दी है कि अब बीजेपी दलबदलुओं को संवैधानिक पदों पर बैठाने के पहले कई बार सोचेगी। धनखड़ बीजेपी में कई दूसरे दलों का स्वाद चखने के बाद आये थे। उनकी राजनीतिक ट्रेनिंग न तो बीजेपी में हुई और न ही आरएसएस में। लिहाजा उनमें संघ के अनुशासन बोध का अभाव था। मोदी के आने के बाद धनखड़ को गवर्नर और उपराष्ट्रपति का पद चमचागिरी में मिल गया था। उनके पहले वेंकैया नायडू उपराष्ट्रपति थे और उनके और धनखड़ के क़द में कोई जोड़ नहीं था। लेकिन धनखड़ को ममता बनर्जी को बेहद परेशान करने का पुरस्कार मिला। उपराष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने फिर सरकार को उपकृत करने की कोशिश की और विपक्ष को पूरी तरह से बुलडोज़ किया। लेकिन वो ये भूल गये कि वो सरकार के लिये तब तक ही उपयोगी हैं जब तक वो सरकार के इशारे पर नाचने को तैयार हैं। जैसे ही उन्होंने अपने पर निकाले, उनको कतर दिया गया। अब राधाकृष्णन धनखड़ की तरह पूरी तरह नतमस्तक होंगे, ये नहीं कहा जा सकता है। वो पद की गरिमा के खिलाफ कुछ करेंगे, इस पर मुझे संदेह है।
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मोदी सरकार संघ के दबाव में?

उनका चयन इस बात का भी प्रमाण है कि मोदी सरकार इस वक़्त संघ के दबाव में है। इसलिए मोदी सरकार ने एक ऐसे शख्स को चुना जो पूरी तरह से संघ की विचारधारा, संस्कृति और अनुशासन से बँधा है। वो धनखड़ की तरह बाहरी नहीं हैं और न ही एक सीमा के बाद मोदी और सरकार की सुनेंगे। ये पिछले ग्यारह साल के मोदी के कार्यकाल को देखते हुए हवा का एक ताज़ा झोंका हो सकता है।

विपक्ष ने उनके ख़िलाफ़ बी सुदर्शन रेड्डी को उतारा है। जो सुप्रीम कोर्ट के जज रह चुके हैं। और अपने फ़ैसलों के लिये जाने जाते हैं। जहाँ उन्होंने नक्सलवाद से निपटने के लिये बनाये गये सलवा जुडूम को गैरसंवैधानिक घोषित किया था। वहीं मनमोहन सिंह को कठघरे में खड़ा करते हुये ब्लैक मनी की जांच के लिये एसआईटी बनाने का फ़ैसला दिया था। बीजेपी उनको नक्सलवाद के समर्थक के तौर पर पेश कर रही है, वहीं वो इसे मानवाधिकार हनन का सवाल खड़ा कर रहे हैं। ज़ाहिर है बीजेपी पिटी पिटाई लकीर पर चल रही है। वो सुदर्शन रेड्डी के बहाने एक बार फिर राष्ट्रवाद का मुद्दा खड़ा करके विपक्ष को अराजकतावादी और आतंकवाद/नक्सलवाद के समर्थक की उनकी तस्वीर पेंट करना चाहती है। लेकिन मुझे लगता नहीं है कि उपराष्ट्रपति का चुनाव राष्ट्रवाद बनाम नक्सलवाद में तब्दील होगा।

उपराष्ट्रपति के पद ने दो बातें मोदी को लेकर साफ़ कर दी हैं कि बीजेपी संगठन पर उनकी पकड़ कमजोर हो रही है और उनके पास अब कोई नया नैरेटिव नहीं है। राधाकृष्णन के चयन के साथ ही ये नहीं भूलना चाहिये कि मोदी शाह की जोड़ी डेढ़ साल से बीजेपी का नया अध्यक्ष नहीं नियुक्त कर पायी है।

बीजेपी अध्यक्ष पर संघ का रवैया

जे पी नड्डा का कार्यकाल लोकसभा चुनाव के पहले खत्म हो गया था। आरएसएस ने अंगद की तरह अपना पैर अड़ा दिया है। उसने तय कर लिया है कि अब बीजेपी का अध्यक्ष वो होगा जो मोदी शाह के इशारे पर उठक-बैठक नहीं करेगा। वे पार्टी से जुड़े मामलों में मोदी शाह से सलाह मशविरा तो करे लेकिन फ़ैसले खुद करे। पार्टी का नया अध्यक्ष ये तय कर देगा कि मोदी शाह की पकड़ अब बीजेपी संगठन पर कितनी रह गई है।

इधर, बीजेपी और मोदी लगातार राहुल के हमलों को झेल रहे हैं। राहुल लोकसभा चुनाव के समय से लगातार नैरेटिव सेट कर रहे हैं और बीजेपी और सरकार सिर्फ रिएक्ट कर रही हैं। ‘संविधान बचाओ’ का नारा हो या फिर ‘जाति जनगणना’ का सवाल और अब ‘नरेंदर सरेंडर’ और ‘वोट चोरी’ का मुद्दा, बीजेपी सिर्फ बचाव कर रही है। वो न तो नैरेटिव बना पा रही है और न ही वो राहुल के सवालों का उचित जवाब दे पा रही है। ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ का नारा सरकार और मोदी की छवि को नुक़सान पहुँचा रहा है। बीजेपी आज भी वही रिपीट कर रही है कि राहुल और विपक्ष मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति कर रहे हैं। ‘वोट चोर’ पर भी वो लोकसभा चुनाव की तरह घुसपैठियों का मुद्दा ही खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
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पीएम के जुमले पुराने पड़े!

प्रधानमंत्री बनने के ग्यारह साल बाद अब प्रधानमंत्री थकने लगे हैं। उनकी राजनीतिक भाषा और जुमले पुराने पड़ चुके हैं। घुसपैठिया शब्द लोकसभा चुनाव में प्रभावी नहीं रहा। रेड्डी को नक्सल समर्थक बता कर वो अपनी कमजोरी ही उजागर कर रहे हैं। रेड्डी की साफ़-सुथरी छवि है। वैसे भी, उपराष्ट्रपति के चुनाव में जनता को तो वोट देना नहीं होता कि लोग भावना में बह जायेंगे। ये चुनाव तो सांसदों को करना है। वो पार्टी लाइन से बँधे हैं। और मोदी के आने के बाद से देश की राजनीति इस कदर विचारधारा के स्तर पर बँट गई है और ऐसी वैचारिक खेमेबंदी हो चुकी है कि अब वी वी गिरी के चुनाव के समय की ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर वोट देने का प्रश्न खड़ा नहीं होगा। ऐसे में आइडेंटिटी के आधार पर पॉलिटिक्स का आकलन करने वाले, जो ये सोच रहे हैं कि राधाकृष्णन के नाम पर डीएमके अपना वोट रेड्डी को नहीं देगी और सुदर्शन रेड्डी के नाम पर टीडीपी राधाकृष्णन पर मुहर नहीं लगायेगी, इसकी संभावना नहीं के बराबर है।

उपराष्ट्रपति के चुनाव में कोई बड़ा उलटफेर होने वाला नहीं है। राधाकृष्णन की जीत पक्की है। बीजेपी के पास दोनों सदनों में सहयोगियों की मदद से बहुमत है। लेकिन ये चुनाव एक तरह से बीजेपी के अध्यक्ष की नियुक्ति के पहले का सेमीफाइनल है। मोदी ने धनखड़ जैसे लोगों को उपराष्ट्रपति के पद पर बिठा कर और फिर इस्तीफा दिलवा कर अपनी कमजोरी और संघ परिवार के अंदर के अंतर्विरोधों का इज़हार कर दिया है। बस वक़्त का इंतज़ार है।