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कोरोना: अरबों-खरबों डॉलर का धंधा बन गया है वैक्सीन की खोज का काम

कोरोना की वैक्सीन तैयार करने के लिए प्रधानमंत्री केयर्स फ़ंड से सौ करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इस बीच ख़बरें हैं कि एक आयुर्वेदिक फ़ाउंडेशन के प्रस्ताव पर कुछ अस्पतालों में कोरोना मरीज़ों पर आयुर्वेदिक दवाओं के परीक्षण की अनुमति भी स्थानीय स्तरों पर दे दी गयी है।  दावा किया गया है कि ऐसा मरीज़ों की सहमति से ही किया जा रहा है। ऐसा ‘ड्रग ट्रायल’ केवल हमारे देश में ही सम्भव है, विदेशों में नहीं।  

माना जाता है कि किसी भी तरह से बिना मुँह खोले अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष करने वाले मरीज़ को तो इसका पता ही नहीं रहता कि उसे क्या दवाएँ दी जा रही हैं। कोरोना पॉज़िटिव अगर लिखित सहमति देने की स्थिति में हैं तो यह मानकर भी चला जा सकता है कि वे पहले से ही ठीक थे और अब उन्हें घरेलू दवाएँ इम्यूनिटी ट्रायल के लिए दी जा रही हैं।  

मरीज़ों के ठीक हो जाने अथवा उनकी मृत्यु की स्थिति में उनके इलाज से संबंधित सभी रिकार्ड कितने सहेजकर रखे जा रहे हैं या किस एजेन्सी की निगरानी में हैं, इसे अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है।

ठीक हो जाने के बाद मरीज़ सीधे ख़ाली हाथ घर की तरफ़ दौड़ता है, जहाँ उसका एक ‘कोरोना विजेता’ के रूप में परिवार द्वारा स्वागत किया जाता है। मृत्यु की स्थिति में शरीर को सीधे मुक्तिधाम पहुँचाया जाता है, जहाँ केवल चार-पाँच लोग ही होते हैं जो पूरे समय अंत्येष्टि का सामान ही जुटाते रहते हैं। 

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कोरोना के इलाज के लिए वैक्सीन की खोज का काम इस समय अरबों-खरबों डॉलर का धंधा बन गया है। दुनियाभर की बड़ी-बड़ी दवा कम्पनियाँ और विश्वविद्यालय वैक्सीन के विकास में रात-दिन जुटे हुए हैं। दूसरी ओर, वैज्ञानिक अपनी ओर से आगाह कर रहे हैं कि अगले वर्ष के अंत तक ही कुछ सम्भावना हो सकती है। 
ध्यान में रखा जाना ज़रूरी है कि वैक्सीन की खोज किसी मानव-सेवा की भावना से नहीं हो रही है। इसके पीछे एक इरादा यह भी है कि वैक्सीन को महँगे दामों पर अन्य देशों को बेचकर अपने यहाँ की डूबती हुई अर्थव्यवस्था को बचाया जा सकता है।

वैक्सीन तो अभी दूर की बात है, सैनिटाइज़र की एक छोटी सी बोतल ही पाँच सौ रुपये तक में खुलेआम बेची जा रही है। उसके बेतहाशा उपयोग को लेकर भी कोई चेतावनी नहीं है बल्कि उसके ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस समय तो हर संकट को ही अवसर में बदला जा रहा है। 

हनुमान जैसी दूरदर्शिता की ज़रूरत

लंका युद्ध में मेघनाथ का शक्ति बाण छाती में लगने से मूर्छित हुए लक्ष्मण को बचाने के लिए सुषेण वैद्य द्वारा सुझाई गई संजीवनी बूटी लेने गए हनुमानजी को लेकर कई कथाएँ हैं। एक कथा यह है कि हनुमानजी बूटी को पहचान नहीं पाए और समूचा पहाड़ ही उठा लाए। वर्तमान के संदर्भों में दूसरी कथा यह हो सकती है कि हनुमानजी दूरदर्शी थे। उन्हें पता था कि राम-रावण युद्ध में केवल लक्ष्मण ही मूर्छित नहीं हुए हैं, सैकड़ों वानर भी हुए हैं जिनके बल पर युद्ध को जीता जाना है और उन्हें भी उसी बूटी की उतनी ही ज़रूरत पड़ेगी। विडम्बना यह है कि जिस युद्ध को हम और दुनिया के दूसरे ग़रीब मुल्क आज लड़ रहे हैं उसमें हनुमान केवल हमारी प्रार्थनाओं में ही उपस्थित हैं। 

वैक्सीन को लेकर बड़े मुल्कों की चिंताएँ केवल यहीं तक केंद्रित हैं कि सबसे पहले उन्हें अपने लोगों की ही जानें बचानी हैं। उनमें भी पहले उनकी, जिनकी सत्ताओं को ज़रूरत है और जो महँगी वैक्सीन ख़रीदने की सामर्थ्य रखते हैं।

दुनिया भर में मरने वालों के जो साढ़े तीन लाख के आँकड़े हैं उनमें अधिकांश या तो बुजुर्ग हैं या फिर गरीब वर्गों के लोग। अमेरिका में इन्हें अश्वेत कहा जाता है। वैक्सीन का निर्माण दो देशों के बीच तकनीकी के आदान-प्रदान से अलग मामला है। बड़े मुल्क छोटे और कमज़ोर देशों को अपने अधीन करने, उन्हें दबाने या उन्हें आर्थिक रूप से कंगाल करने के लिए अब हथियारों के बजाय इस तरह की वैक्सीन का ही ज़्यादा इस्तेमाल करने वाले हैं। 

इस आरोप पर अभी बहस जारी ही है कि कोरोना का वायरस वुहान स्थित प्रयोगशाला की ही उपज है और चीन उसका इस्तेमाल जैविक हथियार के रूप में करना चाहता था। ख़बर आयी है कि चीनी कम्पनी केंसिनो बायोलॉजिक्स ने वैक्सीन तैयार कर ली है। 

सौ तरह की वैक्सीन पर काम जारी 

खबरों के मुताबिक़, इस समय दुनिया के अलग-अलग स्थानों पर कोई सौ तरह की वैक्सीन पर काम हो रहा है। कोई आठ वैक्सीन मानव-परीक्षण की प्रक्रिया में हैं। पर उल्लेख करने योग्य सफलता अभी कहीं भी प्राप्त नहीं हुई है। अमेरिका की एक कम्पनी ‘माडर्ना’ द्वारा आंशिक सफलता की घोषणा से ही उसके शेयरों में तीस प्रतिशत का उछाल आ गया। फ़िलहाल यह कम्पनी चुप है। 

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लाखों-करोड़ों डालर का पूँजी निवेश 

वैक्सीन के विकास में इस समय लाखों-करोड़ों डालर का पूँजी निवेश हो रहा है और उसके सामने हमारे सौ करोड़ काफ़ी कम हैं। इसका दूसरा मतलब यह है कि वैक्सीन के विकास के बाद भी उसके हमारे यहाँ के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचने में कितना वक्त लगेगा, कह नहीं सकते। इन अंतिम व्यक्तियों में आठ से तेरह करोड़ प्रवासी मज़दूर और धारावी जैसी बस्तियों में रहने वाले दस करोड़ वंचित भी शामिल हैं। इस बीच निहित स्वार्थ वाले लोग सत्ताओं की साँठगाँठ से महँगे सैनिटाइज़र और नक़ली वेंटिलेटर बेचते रहेंगे और ड्रग ट्रायल भी चलते रहेंगे। 

कभी-कभी शक भी होने लगता है कि महामारी की गम्भीरता और उसके इलाज को लेकर जनता को सबकुछ ठीक-ठीक बताया भी जा रहा है या नहीं? शारीरिक रूप से स्वस्थ बने रहने की चिंता में पड़े हुए लोग मानसिक रूप से कमज़ोर और बीमार पड़ रहे हों तो कैसे पता चलेगा? और फिर उनकी टेस्टिंग की किट कौन तैयार करने वाला है?

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श्रवण गर्ग
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