देश के चार प्रधानमंत्री बेजोड़ रहे। ऐसा नहीं है कि उन चारों ने जितनी भी नीतियाँ लागू कीं, वे सब ठीक थीं या वे सब सफल ही हुईं या उनके कार्यकाल में भयंकर भूलें नहीं हुईं। लेकिन चारों प्रधानमंत्रियों की ख़ूबी यह थी कि वे भारत के और अपने वर्तमान का ही प्रतिनिधित्व नहीं करते थे, भारत के भूतकाल और भविष्य भी उनकी नीतियों में सदा प्रतिबिंबित होते रहते थे।
उनकी कुछ कमियों के बावजूद उनके व्यक्तित्व और नीतियों में भारत की अजस्र धारावाहिकता बहती रहती थी। उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी यह थी कि वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे, वह कुर्सी उन पर नहीं बैठी थी। यही लोकतंत्र की आत्मा है।
ये चारों प्रधानमंत्री किसी जाति, संप्रदाय, मज़हब, भाषा या वर्ग-विशेष के प्रतिनिधि नहीं थे। वे संपूर्ण भारत के प्रतिनिधि थे। वे प्रधानमंत्री थे, प्रचारमंत्री नहीं थे। वे प्रधानसेवक थे, प्रधानमालिक नहीं थे। वे सर्वसमावेशी थे, वे सर्वज्ञ नहीं थे।
पड़ोसी देशों में लोकतंत्र का सूर्य डूबता-चढ़ता रहा है लेकिन भारत में वह हमेशा चमचमाता रहा है। भारतीय राजनीति में वाद, प्रतिवाद और संवाद की द्वंद्वात्मकता ने भारत को विश्व का महान लोकतंत्र बना दिया है। यह द्वंद्वात्मक विविधता आज भी बनी हुई है। यह बढ़ती चली जाए, यही कामना मैं करता हूँ, अपने बुजुर्ग मित्रों की पुण्य तिथि और जन्म-तिथि के अवसर पर!
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drva]ridik.in से साभार)