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प्रतीकात्मक तस्वीर।

अग्निवीर क्या दूसरे देशों के लिए भाड़े के सैनिक बनेंगे?

शाहरुख खान की 2023 की लोकप्रिय फिल्म 'डंकी' का नाम पंजाबी मुहावरे डंकी फ़्लाइट से लिया गया है। डंकी फ़्लाइट का मतलब है नकली पासपोर्ट के सहारे और बिना वीज़ा के कनाडा, इंग्लैंड, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में गैरकानूनी तरीके से प्रवेश। फिल्म की कहानी उन मध्यमवर्गीय लोगों के बारे में है जो पैसे कमाने और अच्छी ज़िंदगी जीने की ख़्वाहिश में अवैध तरीक़ों से विदेश जाने के प्रयास करते हैं। उनके इस काम में मदद करते हैं भारत में स्थित कोचिंग सेंटर और ट्रैवल एजेंट तथा विदेशों में स्थित एजेंट जो इन लोगों की इस इच्छा का भरपूर व्यावसायिक लाभ उठाते हैं। इस फिल्म ने विश्व में 600 करोड़ से अघिक का कारोबार किया और कई पुरस्कार भी हासिल किए। पर इसकी कहानी इतनी जल्दी यथार्थ में परिवर्तित होकर रूस-यूक्रेन युद्ध का एक नंगा सच सबके सामने लाएगी, इसका अंदाजा किसी को नहीं था।

फ़रवरी और मार्च महीने में रूस और यूक्रेन के युद्ध में भारतीय नागरिकों के हताहत होने के समाचार सामने आए। इनका संज्ञान लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय ने रूस से अधिकारिक तौर पर अनुरोध कर भारतीय नागरिकों को वापस भेजने को कहा। अभी तक की मीडिया रिपोर्ट से दो-तीन बातें प्रमुखता से उभरकर आईं। पहला, इन भारतीयों को रूस तक पहुँचाने में भारतीय व्यावसायिक एजेंसियों का रोल। सीबीआई के जाँच में छह प्रमुख पलेसमेंट एजेंसियों का नाम सामने आया जिन्होंने पैसे लेकर अच्छी तादाद में भारतीयों को रूस भेजा। इनमें दुबई का बाबा ब्लोग के नाम से यूट्यूबर प्रमुख है। मोटा वेतन, युद्ध क्षेत्र से दूर सहायक की भूमिका और एक निर्दिष्ट काल के बाद रूस की नागरिकता जैसे लुभावने वायदों के आधार पर भारतीयों को लुभाया गया, मगर ऐसा नज़र आता है कि उनकी सेवा रूसी सेना या फिर प्राइवेट सैन्य संस्था वैगनर के लिए थी।

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रूस पहुंचने के बाद ये भारतीय नागरिक अपने परिवार से संपर्क नहीं कर पा रहे थे। इसका कारण संभवतः यह है कि रूस ने युद्धक्षेत्र में मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल वर्जित कर दिया है क्योंकि इससे पहले रूसी सिम सिग्नल को इंटरसेप्ट कर यूक्रेन ने काफी संख्या में रूसी सैनिकों को निहत किया था। इससे हमारे देश में रह रहे परिवारजनों की चिंता बढ़ गई और उन्होंने सरकार और मीडिया से मदद मांगी। दो भारतीयों की मृत्यु की ख़बर और मदद माँगते सात लोगों के वीडियो ने भारत सरकार को रूस से बातचीत करने पर मजबूर कर दिया है।

लेकिन इस आपदा में अवसर देखते हुए कुछ विश्लेषकों ने भारत के अग्निवीरों को रूस-यूक्रेन युद्ध में भाग लेने की सलाह देकर एक नए मुद्दे को जन्म दे दिया है। यह एक ऐसी सलाह है जिसपर यदि अमल हो गया तो यह भारत की विदेश और सैन्य नीति में एक बहुत बड़ा परिवर्तन होगा।

आइए, आगे बढ़ने से पहले जान लें कि इससे पहले कब-कब भारतीयों ने किसी विदेशी सेना को अपनी सेवाएँ देकर विदेशी भूमि पर लड़ाई की है।

उन्नीसवीं शताब्दी से भारतीय योद्धा अंग्रेजों की सेना में शामिल हुए थे और प्रथम बर्मा युद्ध (मार्च 1824-फरवरी 1826) और फिर ऐंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध (1838-1842) में अपना शौर्य प्रर्दशन किया था। अगली सदी में हुए दोनों विश्व युद्धों में भी 1,60,000 भारतीयों ने विदेशी भूमि पर लड़ते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया था। इन सभी शहीदों ने अपने सर और कंधों पर भारतसूचक निशान लगाकर युद्ध में भाग लिया।

स्वतंत्रता के बाद भारतीयों ने मालदीव और श्रीलंका के अलावा संयुक्त राष्ट्र के अधीन विश्व के कई देशों में भारतीय सेना के निशान के तहत शांति कायम करने का काम किया।

यहाँ ध्यान देने की बात है कि ये सभी योद्धा अंतरराष्ट्रीय नियमों और मापदंडों या टर्म्स ऑफ़ रेफरेन्स के अंदर कड़े सैन्य प्रशिक्षण के बाद ही विदेशों में सैन्य सेवा देने गए। इसके विपरीत कुछ भारतीय आईएसआईएस या लेबनान में हिज़बुल्ला जैसे आतंकवादी संगठनों से भी जुड़े और विदेशी ज़मीन पर सैन्य गतिविधियों में भाग लिया। लेकिन ये अंतरराष्ट्रीय सैन्य नियमों से बँधे नहीं थे।

विदेशी जमीन पर सैन्य सेवा देने की दो अलग-अलग श्रेणियां हैं।

पहली श्रेणी वह है जिसमें कई राष्ट्र, विदेशी नागरिकों से बनी सैन्य टुकड़ियाँ अपनी सेना में रखते हैं, जिन्हें लीजन कहा जाता है। यह शब्द रोमन सेना द्वारा इस्तेमाल किया जाता था। आधुनिक समय में लीजन शब्द का प्रयोग विदेशी स्वयंसेवकों या भाड़े के सैनिकों की टुकड़ी के लिए किया जाता है। विदेशी सेना अक्सर युद्ध में राष्ट्रों द्वारा भर्ती किये गए विदेशी स्वयंसेवकों की अनियमित वाहिनी या इर्रेग्युलर फोर्स का प्रतीक है। इनमें से सबसे प्रसिद्ध है फ़्रांस की विदेशी सेना (लेज़्यों एट्रॉज़ेया) जो 1831 में विदेशी स्वयंसेवकों से बनी और फ्रांसीसी अधिकारियों द्वारा कमांड की जाती है। इसने अपनी स्थापना के बाद से फ्रांसीसी औपनिवेशिक साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में सेवाएँ प्रदान की हैं। भारत के 75वें गणतंत्र दिवस 2024 में फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों मुख्य अतिथि थे, परेड में भाग लेने वाले 95 सदस्यीय फ्रांसीसी सैन्य दल 'लेज़्यों' में छह भारतीय मूल के सैनिक भी थे। फ़्रांस एकमात्र ऐसा राष्ट्र है जो बिना किसी शर्त के किसी भी देश से आए विदेशी को अपने लीजन में भर्ती करता है। स्पेन की विदेशी सेना में भी कभी-कभी लैटिन अमेरिका के नागरिक भर्ती होते हैं। कोई भी यूरोपीय संघ निवासी जो फ्रेंच बोलता है, बेल्जियम सशस्त्र बलों में शामिल हो सकता है। ब्रिटेन की गोरखा रेजिमेंट केवल नेपाल के नागरिकों के लिए खुली है। अमेरिका, ब्रिटेन या कनाडा के पूर्व सैनिक ऑस्ट्रेलियाई और न्यूजीलैंड सेना में शामिल हो सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका विदेशियों को अपनी सेना में भर्ती करने की अनुमति देता है, लेकिन उनके पास ग्रीन कार्ड होना चाहिए। इज़राइल इज़राइल के बाहर से हिब्रूभाषी यहूदियों को रक्षा बलों में सेवा करने की अनुमति देता है।

रूस भी ऐसे किसी भी व्यक्ति को अपनी सेना में शामिल होने की अनुमति देता है जिसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं हो और जो रूसी बोल सकता है। इस तरह रूस द्वारा भारतीयों को अपनी सेना में शामिल करना गैरकानूनी नहीं है।

आज रूस या फिर यूक्रेनी सेना के साथ लड़ने वाले भारतीय इसी श्रेणी में आते हैं। मगर इनके पास लम्बे सैन्य प्रशिक्षण या फिर युद्धक्षेत्र का कोई अनुभव नहीं है। इसी कारण संभवतः उनमें से कुछ को अपना जीवन खोना पड़ा।

दूसरी श्रेणी में कुख्यात भाड़े के सैनिक या मर्सिनरी हैं। ऐसे सैनिक जो किसी नेक काम के लिए नहीं, बल्कि केवल पैसे के लिए लड़ते हैं, और उनकी वफादारी उच्चतम बोली लगाने वाले के प्रति होती है। वे आमतौर पर नियमित सैनिकों की तुलना में कम विश्वसनीय होते हैं। 

भाड़े के सैनिक अक्सर बेहतर सैनिक होते हैं क्योंकि उन्हें भर्ती नहीं किया जाता बल्कि काम पर रखा जाता है। उन्हें नौकरी बाजार में अपना कौशल दिखाना होगा अन्यथा वे नौकरी नहीं कर पाएंगे। अब ये भाड़े के सैनिक संगठित हो गए हैं और निजी सैन्य कंपनियाँ (पीएमसी) सरकारों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और अन्य ग्राहकों को सैन्य और सुरक्षा-संबंधी सेवाएँ प्रदान करती हैं। इन्हें निजी सुरक्षा कंपनियाँ या निजी सैन्य ठेकेदारों के रूप में भी जाना जाता है।

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पीएमसी पारंपरिक सैन्य बलों के समान ही काम करती हैं लेकिन आधिकारिक तौर पर किसी भी सरकार के सशस्त्र बलों का हिस्सा नहीं हैं। निजी सैन्य कंपनियाँ पूर्व सैन्यकर्मियों की भर्ती करती हैं, उन्हें वित्तीय प्रोत्साहन और सेना जैसा माहौल प्रदान करती हैं। उन्हें किसी भी देश के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने का अधिकार है। परिणामस्वरूप, वे सैन्य हमले से बच नहीं सकते। पीएमसी कर्मचारी केवल अपने नियोक्ता की जिम्मेदारी के अधीन हैं अतएव उन्हें घायल होने या फिर मरने पर कोई सुविधा नहीं मिलती। रूस विश्व स्तर पर शक्ति प्रदर्शित करने के लिए निजी सैन्य कंपनी वैगनर ग्रुप का उपयोग करता है। यह संगठन आकार और दायरे में भिन्न है और रूसी विदेश नीति के एक अनौपचारिक (यद्यपि नाममात्र के अवैध) उपकरण के रूप में कार्य करता है। वैगनर ग्रुप यूक्रेन, सीरिया और लीबिया में कई संघर्षों में शामिल रहा है।
निजी सैन्य कंपनियों का उद्योग तेजी से बढ़ रहा है और अनुमान है कि अब दुनिया भर में संघर्ष क्षेत्रों में 1 लाख से अधिक निजी ठेकेदार काम कर रहे हैं। पीएमसी का उपयोग विवादास्पद है और उनकी जवाबदेही और निरीक्षण को लेकर चिंताएं हैं।

हालाँकि, पीएमसी प्रशिक्षण और सुरक्षा जैसी मूल्यवान सेवाएँ भी प्रदान कर सकती हैं जिनसे राष्ट्रीय सेनाओं पर बोझ कम किया जा सकता है। दूसरों का तर्क है कि पीएमसी अनियमित हैं और युद्ध नियमों से बँधी नहीं हैं। इससे मानवाधिकारों का हनन और युद्ध अपराध बढ़ सकते हैं। भारत में फ़िलहाल कोई निजी सैन्य कंपनी (पीएमसी) नहीं है। भारत सरकार ने निजी सैन्य कंपनियों के उपयोग को वैध नहीं बनाया है और उनके संचालन के लिए कोई स्पष्ट कानूनी ढांचा नहीं है।

यह सही है कि आज की तारीख़ में कई निजी सुरक्षा कंपनियाँ हैं जो भारतीय सेना और सरकारी एजेंसियों को सुरक्षा, प्रशिक्षण और रसद सहायता जैसी सेवाएँ प्रदान करती हैं। परंतु इन कंपनियों को युद्ध या अन्य आक्रामक अभियानों में शामिल होने की अनुमति नहीं है। 

भारत में पीएमसी को वैध नहीं बनाए जाने के पीछे तीन कारण हैं। 

पहला, भारत सरकार अपनी सैन्य क्षमताओं को निजी कंपनियों को आउटसोर्स करने के प्रति अनिच्छुक है। दूसरा कारण चिंता है कि पीएमसी का इस्तेमाल मानवाधिकारों का उल्लंघन करने या युद्ध अपराध करने के लिए किया जा सकता है। तीसरा कारण यह आशंका है कि पीएमसी अन्य सशस्त्र समूहों को हथियार और प्रशिक्षण प्रदान करके देश की आंतरिक स्थिति को अस्थिर कर सकते हैं।

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लेकिन इसके साथ ही भारत में पीएमसी को वैध करने के पक्ष में भी कुछ तर्क दिए जा सकते हैं। मसलन कुछ लोगों का कहना है कि निजी सैन्य कंपनियां भारतीय सेना पर बोझ कम करने और अन्य अभियानों के लिए सैनिकों को मुक्त करने में मदद कर सकती हैं। यह भी कहा जाता है कि पीएमसी विशेष कौशल और प्रशिक्षण प्रदान कर सकती हैं जो भारतीय सेना में उपलब्ध नहीं हैं।

भारत में पीएमसी के वैधीकरण पर बहस कुछ समय तक जारी रहने की संभावना है। हालाँकि यह स्पष्ट है कि भारत सरकार पीएमसी को देश में संचालन की अनुमति देने के लिए फ़िलहाल तैयार नहीं नज़र आती।

इस संदर्भ में विशेषज्ञों की यह सलाह काबिल-ए-गौर है कि अग्निवीरों को दूसरे देशों में जाकर अपनी सेवाएँ देनी चाहिए भले ही आज वह असंवैधानिक और अस्वाभाविक लग रही है। कारण यह कि आने वाले चार-पांच सालों में ये अग्निवीर पर्याप्त संख्या उपलब्ध होंगे। इनके पास सैन्य प्रशिक्षण होगा और उन्हें जीविका की जरूरत होगी। ऐसे में वे विदेशी घरती पर अपनी सेवाएँ पैसे के एवज में देने को नहीं झिझकेंगे।

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राजीव कुमार श्रीवास्तव
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