आम तौर पर आलोचना का शिकार बनने वाला गृह मंत्रालय अगर नक्सल समस्या को निपटाने की अपनी ताजा मुहिम के चलते तारीफ पा रहा है तो वह और उसके निर्देश पर काम करने वाली सुरक्षा एजेंसियों के लोगों को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए। अभी गृह मंत्रालय द्वारा तय डेडलाइन आने में पाँच-छह महीने का वक्त है और नक्सल प्रभाव वाले इलाकों में उल्लेखनीय कमी आ गई है। नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 18 से घटकर 11 होना इस कमी को ढंग से नहीं बताता क्योंकि अब उन 11 जिलों में भी उनका दम काफी कम रहा गया है और उनका कैडर मैदान छोड़ने की ऊहापोह वाली अवस्था में है या मारा गया है। सरकार ने सख्ती के बाद सरेंडर का सही विकल्प रखा तो शीर्ष नेतृत्व समेत बड़ी संख्या में हथियारबंद कैडर ने आत्मसमर्पण किया। यह अनुमान है कि हाल में मारे गए या समर्पण वाले नेताओं के अलग होने के बाद भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो के सिर्फ तीन ही सदस्य बच गए हैं जिनमें एक उम्र और बीमारी के चलते निष्क्रिय हैं। केन्द्रीय समिति के भी आठ या नौ सदस्य ही सक्रिय हैं। कभी पोलिट ब्यूरो में एक दर्जन से ज्यादा सदस्य थे और सेंट्रल कमेटी में 40 से 45 तक थे।
क्या नक्सलवाद का यह समाधान आधा-अधूरा है?
- विचार
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- 21 Oct, 2025

सरकार नक्सलवाद खत्म करने के दावे कर रही है, लेकिन क्या यह समाधान वाकई टिकाऊ है या सिर्फ़ दिखावटी? नक्सल प्रभावित इलाकों में ज़मीन, न्याय और विकास के सवाल अब भी अधूरे हैं।
देश के अंदर किसी भी व्यक्ति या संगठन की ताकत शासन और व्यवस्था को चुनौती देने वाली नहीं होनी चाहिए। और अगर किसी इलाके में वीरप्पन का तो कहीं किसी नक्सल समूह या संविधान में आस्था न रखने वाले अलगाववादी समूह का ‘राज’ चलता रहा है तो वह या तो शासन की कमजोरी थी या उसकी तरफ़ से ढील का उदाहरण।