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मोदी सरकार की अर्थव्यवस्था बेहतर या मनमोहन सरकार की थी?

चुनाव पास हों और मुद्दों की, खासकर जल्दी चुनावी लाभ देने वाले आइडेंटिटी (पहचान) के मुद्दों की कारपेट बॉम्बिंग जारी हो तो किसे याद रहेगा कि इस बीच एक अंतरिम बजट भी आया और सरकार ने अपने कार्यकाल की जगह दस साल पहले के यूपीए राज के दस सालों के आर्थिक कामकाज को लेकर श्वेतपत्र जारी किया तो हड़बड़ी में कांग्रेस ने भी इस सरकार के दस साल के आर्थिक कामकाज पर ब्लैकपेपर (ऐसी कोई चीज पहले नहीं सुनी गई थी) जारी कर दिया। 

अब अगर दस साल बाद श्वेतपत्र जारी करना अटपटा था तो मौजूदा शासन के कामकाज पर दूसरा श्वेतपत्र देने की जगह ब्लैकपेपर जारी करने का या उसे ऐसा अटपटा नाम देने की क्या जरूरत थी यह तो कांग्रेस के नेता ही बताएंगे। लेकिन इतना कहने में कोई हर्ज नहीं है कि आसपास तारीखों की ही इन तीन महत्वपूर्ण आर्थिक आयोजनों का कोई शोर सुनाई नहीं दिया, और न ही उसके बाद की चर्चा में मोदी जी या राहुल गांधी इन आँकड़ों की चर्चा करते हैं। जाहिर तौर पर जब बीस साल के आर्थिक आँकड़ों तथा मूल्यांकन और आगे की दिशा के संकेत देने वाला बजट आए तो उसमें मुद्दों की क्या कमी हो सकती है। ये बीस साल अर्थव्यवस्था के लिए बड़े महत्व के रहे हैं खासकर 2008 के वैश्विक मंदी के दौर में भी 8.5 फ़ीसदी का विकास दर हासिल करना और करोड़ों लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर करना महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं।

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लेकिन साफ़ लगता है कि यह सारा कुछ चुनावी कर्मकांड भर बना दिया गया और जब राम और जाति की राजनीति मुकाबिल हो तब इतने बेतरतीब ढंग से चली वास्तविक मुद्दों की लड़ाई की परवाह कौन करेगा। कांग्रेस और विपक्ष मोदी सरकार पर वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने का आरोप लगाता रहा है पर उसने तो भाजपा और मोदी सरकार से भी भद्दे ढंग से इस मुद्दे को रखा। इस बार का अंतरिम बजट भी बिना किसी बड़ी आर्थिक पहल के था और किसी भी वर्ग को खास लाभ देने वाला नहीं था। कर के छोटे नोटिस वापस लेने और कुछ तरह की व्यावहारिक परेशानियों को निपटाने के बीच जो मुख्य स्वर उभरता है वह मोदी सरकार का तीसरा टर्म पाने का आत्मविश्वास। अब बिना चुनाव इतना आत्मविश्वास ठीक है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है लेकिन बजट में यही चीज थी, शुरू में सरकार के कामकाज की रिपोर्ट थी और बाद के हिस्से में बार बार-बार तीसरे टर्म में क्या नई पहल होगी उसका इशारा था। खैर।

ज्यादा गंभीर मामला श्वेतपत्र का है क्योंकि यह आर्थिक के साथ राजनैतिक/चुनावी लड़ाई का भी हिस्सा है। और अगर एक विषय पर श्वेतपत्र लाने या किसी घटना के तत्काल बाद श्वेत पत्र लाने के चलन को भुलाकर दस साल पहले की सरकार के कामकाज को विषय बनाने जैसे अटपटेपन को छोड़ भी दिया जाए तो इसके कई  नतीजे और स्थापनाओं से साफ असहमति बनती है। 

आर्थिक कामकाज के लिहाज से यूपीए-1 का कामकाज शानदार था जबकि यूपीए-2 पॉलिसी पैरालिसिस और भ्रष्टाचार के साथ महंगाई की ऊंची दर से जूझता रहा था जो अंतत: उसका राज खत्म करने का कारण भी बने। स्वयं नरेंद्र मोदी और काफी हद तक अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल जैसे लोगों ने इन विपफलताओं को अपनी राजनैतिक सफलता का आधार बनाया। 
अब यह सही है कि कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार झूठ का भी शिकार हुई और उसने कई गलतियां भी कीं लेकिन ज्यादा बड़ा सच यह है कि उसके लिए आई आर्थिक समस्याएं बाहरी थीं, जिन पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था।

2008 में सब-प्राइम फरेब से पैदा संकट से बढ़ाकर दुनिया को जकड़ने वाली मंदी हो या इसके बाद पैदा खाद्य संकट (जिसमें गेहूं की कीमत तीन गुना तक बढ़ गई थी) या फिर पेट्रोलियम की कीमतें, अटल राज के 25-30 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 110 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंचना, मनमोहन सरकार ने बड़े ठंढे दिमाग से इन सबका सामना किया और महंगाई को छोड़ दें तो ज्यादा प्रभाव आम लोगों पर नहीं आने दिया। और 2008 में तो रिकॉर्ड साढ़े आठ फीसदी का विकास दर भी हासिल हुआ।

इससे उलट मौजूदा सरकार में भ्रष्टाचार का सवाल कहीं भी पुराने स्तर का नहीं दिखा, आर्थिक स्थितियाँ अनुकूल दिखीं लेकिन नोटबंदी और करोना में घबड़ाकर तालाबंदी करने से अर्थव्यवस्था को आंतरिक वजहों से नुकसान हुआ। नोटबंदी ने न सिर्फ अर्थव्यवस्था की दमदार मोमेंटम को तोड़ा बल्कि जीडीपी को दो फीसदी का नुकसान पहुंचाया। तालाबंदी ने भी इतना नहीं, लेकिन नुकसान पहुंचाया। और हर चीज को मैनेज करने में उस्ताद मोदी जी पर आंकड़ों को भी मैनेज करने (उन्होंने कई बार अप्रिय आंकड़ों का प्रकाशन रोका है और जनगणना तो रुकी ही पड़ी है) करने का आरोप लगता है। अब ऐसा तब हुआ उसकी जांच के लिए नया श्वेतपत्र लाना होगा, पर यह कहने में हर्ज नहीं है कि मोदी राज में आंकड़ों की विश्वसनीयता घटी है जबकि ब्रिटिश राज के समय से ही भारत के आर्थिक आंकड़ों और उन्हें जुटाने वाली व्यवस्था को बहुत भरोसेमंद माना जाता था। तेल की कीमतें गिरने का लाभ आम लोगों को न देकर सरकार ने दस साल में तीस लाख करोड़ रुपए से ज्यादा धन अपने खजाने में इकट्ठा किया है और उलटे रूस का सस्ता तेल खरीदकर निर्यात करके कमाई भी कर ली है। कांग्रेस के कथित ‘ब्लैकपेपर’ में इन बातों को ढंग से नहीं उठाया गया है।

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मोदी राज का श्वेतपत्र यूपीए सरकारों की आलोचना के साथ अपनी सरकार की उपलब्धियों के दावे से भरा है जिसमें स्वच्छ भारत योजना के तहत शौचालय बनवाना, गरीबों के बैंक खाते खुलवाना, करोना काल में गरीबों को मुफ़्त राशन देने, डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर व्यवस्था के दायरे को बहुत बढ़ाने, मोबाइल फ़ोनों की संख्या बढ़ाने, कालेधन पर प्रहार करने और दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना शुरू करना शामिल है। कांग्रेसी ब्लैकपेपर में इन दावों का खंडन करने की जगह मोदीजी के चुनावी वायदों की विफलता पर ज्यादा जोर देता है जबकि यह भी सच है कि मोदी सरकार की इन लगभग सभी योजनाओं को कांग्रेसी सरकार ने ही शुरू किया था। अब उनको नया नाम और नई प्राथमिकता देकर उनसे लाभ लिया जा रहा है। जहां तक राजकोषीय अनुशासन का सवाल है तो दोनों दस्तावेज एक दूसरे को दोषी बताते हैं जबकि असलियत यही है कि आज भी घाटा बहुत ऊंचा है और लगातार मुद्रास्फीति दर के ऊंची होने की वजह है। और इन बीस वर्षों में कभी एक बार अगर रिजर्व बैंक द्वारा तय सीमाओं का पालन किया जा सका तो वह सिर्फ और सिर्फ मनमोहन राज और प्रणव मुखर्जी के वित्त मंत्री रहते हुए ही।  

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अरविंद मोहन
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