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मुगल गार्डन अब अमृत उद्यान : इतिहास का डर है क्या?

मुगल गार्डन को अमृत उद्यान कह देने से क्या गुलामी के प्रतीक मिट जाते हैं? क्या मुगल गार्डन में खिलने वाले फूल, यहां के मनोरम दृश्य और अधिक मनोरम होने वाले हैं? सच यह है कि न तो वायसराय हाऊस को राष्ट्रपति भवन पुकारे जाने के बाद गुलामी का प्रतीक मिटा था और न ही मुगल गार्डन को अमृत उद्यान कहने के बाद ऐसा कुछ होने वाला है। फिर, नाम बदलने की पहल ही क्यों की गयी, वह भी आजादी के 75 साल बाद?

‘अमृत उद्यान’ पर कोई सवाल नहीं है। न इस नये नाम पर कोई बहस है। पूरी बहस ‘मुगल’ शब्द के गिर्द है। आप ‘मुगल’ को बनाए रखना चाहते हैं या इसका नामोनिशान मिटा देना चाहते हैं? अगर मुगल को बनाए रखना चाहते हैं तो आप ‘आक्रांता’ को महिमामंडित करने के ‘गुनहगार’ हैं और देश की माटी से मोहब्बत नहीं करते। इसके उलट अगर ‘मुगल’ नाम मिटाने के पैरोकार हैं तो आप ‘देशभक्त’ हैं, ‘स्थानीय संस्कृति के झंडाबरदार’ हैं।
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मुगल गार्डन या अमृत उद्यान की बहस से राष्ट्रवाद, देशभक्ति ही नहीं गद्दार, देशविरोधी भी परिभाषित हो रहे हैं। ‘अमृत उद्यान’ के पैरोकारों को दोहरा फायदा! ‘मुगल’ नाम बदलने का विरोध करने वालों को दोहरा नुकसान! यही वो सियासत है जो नामों को बदलने के पीछे लगातार सक्रिय है। यह सक्रियता चूकि मुख्य धारा की मीडिया के दम पर है इसलिए नाम बदलने की सियासत का परचम लगातार लहराता दिख रहा है।

कतिपय सवालों पर गौर करें। मुगल गार्डन’ को ‘अमृत उद्यान’ कहने पर पेट दर्द क्यों हो रहा है? गुलामी के प्रतीकों को खत्म करना क्या गलत है? मुगलों से इतनी मोहब्बत क्यों है? क्या मुगलों के हमदर्द सत्ता में लौटने पर ‘मुगल गार्डन’ का नाम दोबारा बहाल कर देंगे? ये वो सवाल हैं जो जवाब के रूप में पेश किए जा रहे हैं। और वो सवाल हैं कि आखिर ‘मुगल गार्डन’ का नाम बदलने की जरूरत क्या थी? नाम बदलने से क्या रोज़गार के अवसर पैदा होते हैं, जीएसटी कलेक्शन बढ़ जाता है, गरीबी कम हो जाती है, उत्पादन बढ़ जाता है वगैरह-वगैरह।

लुटियन्स छोड़ क्यों नहीं देते पीएम, मंत्री और सांसद?

लुटियन्स की बनायी दिल्ली में जब प्रधानमंत्री समेत तमाम मंत्री और सांसद अपने-अपने मकानों के आगे अपने नाम चस्पां कर लेते हैं तो क्या उन मकानों का अतीत बदल जाता है? ऐसा जरूर लगता है कि वे मकान उनके हैं जिनके नाम मकान की गेट पर चस्पां हैं लेकिन वास्तव में लुटियन्स के हाथों अंग्रेजों के बनाए इन मकानों में रहने वाले बदलते रहते हैं, मकानों का अतीत नहीं बदलता। अगर इन्हें गुलामी के प्रतीक के तौर पर याद करें तो हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि इन प्रतीकों को खाद-पानी ही देते आए हैं।
हिन्दुस्तान का अतीत गुलामी का है। लेकिन, इतिहास इस गुलामी से लड़ने का भी है, लड़कर जीत हासिल करने और लोकतंत्र की स्थापना का भी है, लोकतंत्र के 75 साल बीतने पर अमृतकाल के अवसर का भी है। क्या हम गुलामी को भुला सकते हैं? गुलामी के प्रतीक चिन्हों को मिटा सकते हैं? 

नाम बदलने से प्रतीक चिन्ह नहीं मिटा करते। अगर प्रतीक चिन्ह मिटाना है तो उन्हें नेस्तनाबूत करना होगा। इसके लिए राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट, लाल किला, लुटियन्स डेल्ही समेत देशभर में गुलामी के काल खण्ड में बनी इमारतों को जमींदोज करना होगा। इसके बावजूद गुलामी के इतिहास को बदला नहीं जा सकेगा। एक नयी मानसिक बर्बरता का इतिहास जरूर लिखा जा रहा होगा।


आखिर हम गुलाम हुए ही क्यों थे?

सोचने की जरूरत है कि दुनिया की ‘सर्वश्रेष्ठ’ संस्कृति आतताइयों के हाथों तबाह क्यों हुई? क्यों सनातन धर्मावलंबी कभी ईसाई तो कभी मुसलमानों का गुलाम बनने को विवश हुई? अगर इन सवालों के उत्तर खोज लिए जाएंगे तो आगे भी गुलाम होने की आशंका खत्म हो जाएगी। लेकिन, इन सवालों के उत्तर खोजने के बजाए गुलामी के भग्नावशेषो को मिटाने भर की कार्रवाई इस आशंका को मजबूत करेगी। 

नफरत चाहे सनातन समाज के भीतर जात-पात के रूप में हो या फिर हिन्दू-मुसलमान के तौर पर धार्मिक रूप में, यह समाज और देश को कमजोर करेगा। कमजोर होकर हम आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सकते। हम ये न भूलें कि आज चीन जैसा विस्तारवादी देश हमें ललचाई नज़र से देख रहा है।
देश मजबूत होगा अगर मुगल गार्डन की तरह एक नया अमृत उद्यान हम बनाएंगे। सृजन करेंगे। नाम बदलना रचनात्मकता नहीं है। यह रचनात्मकता से पलायन करने की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति में झूठी शान है, नफरत है, अपने काले अतीत की पर्देदारी है।

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गुलाम होने के इतिहास को हम नाम बदल कर बदल नहीं सकते। गुलामी की आशंका को हमेशा के लिए खत्म करके ही हम नया इतिहास लिख सकते हैं जो पहले से बेहतर हो। क्या हमने इस दिशा में सोचना बंद कर दिया है? इसका जवाब मौजूदा सरकार और सियासतदानों को देना होगा।

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क़मर वहीद नक़वी
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