निर्मला सीतारमण जेएनयू की हमारी समकालीन छात्रा रही हैं, उसी जेएनयू की जिसे आरएसएस प्रतिष्ठान तथा मोदी सरकार ने देशद्रोह का अड्डा बताकर बदनाम किया तथा उस पर हमला जारी है। वैसे भी काबुल में सब घोड़े ही नहीं होते। निर्मला जी ने मोदी जी से जुमलेबाज़ी इतनी सीख ली है कि बजट में जुमलेबाज़ी ज़्यादा थी और आंकड़े कम।
देश की आर्थिक समस्याओं पर ठोस उपायों की जगह उनका भाषण पिछली सरकार की अज्ञात उपलब्धियों का प्रशस्ति पत्र था। उनके भाषण से एक बात जो साफ़-साफ़ उभरकर सामने आयी कि मुल्क के सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री और तेज़ हो जाएगी। 4 जुलाई को पेश आर्थिक सर्वे भी सर्वे कम अंदाजों का पुलिंदा अधिक था। सर्वे में कर उगाही में गिरावट, बचत दर में कमी तथा कृषि की मजदूरी में कमी की बात कही गयी थी।सर्वे में विकास के लिए निवेश में वृद्धि की ज़रूरत पर जोर दिया गया था जिसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बेचने तथा विदेशी निवेश को खुली छूट तथा श्रम क़ानूनों में सुधार पर जोर दिया गया था। श्रम क़ानूनों में सुधार का मतलब है श्रमिक-पक्षीय प्रावधानों की समाप्ति तथा मालिक को उपक्रम बंद करने और मजदूरों की छंटनी की छूट। बजट में कॉरपोरेट की इसी दिशा में सलाह को पूरी तरजीह दी गयी है।
देश की ज्वलंत समस्याओं - किसानों की बदहाली और नौजवानों की बेरोज़गारी को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है। मोदी सरकार की वापसी का यह मतलब समझाया गया है कि लोगों को कोई समस्या ही नहीं है। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य का जिक्र तक नहीं है।
‘गाँव-ग़रीब-किसान’ की जुमलेबाज़ी के बावजूद इनके हितों से बजट का कोई सरोकार नहीं है। आदिवासियों की उत्पत्ति के दस्तावेज़ों का जिक्र उनकी बेदख़ली की तरफ़ इशारा तथा उनकी आजीविका पर ख़तरे की घंटी है। आज देश के सामने सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। नए रोजगार सृजन की जगह पुराने रोज़गार ख़त्म होते जा रहे हैं। मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में तमाम कंपनियाँ, बंद होने के बाद वैकल्पिक रोज़गार की कौन कहे कर्मचारियों को कोई मुआवजा दिए बिना ही चलती बनीं। खाली सरकारी पदों को भरने के बजाय उनमें कटौती कर ठेकेदारी प्रथा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
ऑटोमोबाइल उत्पादन घटता जा रहा है, परिणामस्वरूप छंटनी का संकट बढ़ रहा है। अर्थ व्यवस्था का मौजूदा संकट माँग की यानी क्रयशक्ति की कमी के कारण है। 25 लाख से अधिक रिक्त सरकारी पदों को भरने की बजट में कोई घोषणा नहीं है। मनरेगा जैसी योजनाओं की नियति पर बजट भाषण में औपचारिक दो शब्द भी नहीं हैं। बजट को वित्त मंत्री ने बहीखाता बताया। बजट देश के आय-व्यय का ब्यौरा होता है जबकि बहीखाता बनिए के लेन-देन और हेरा-फेरी का दस्तावेज़। इसीलिए इसका सबसे अधिक जोर जनता की संपदा, सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश (बिक्री) पर है। सरकार का लक्ष्य 1 लाख 5 हज़ार करोड़ की सरकारी संपत्ति को देसी-विदेशी धनपशुओं को बेचने का है जिसकी वास्तविक कीमत इसकी 100 गुना होगी।
बजट में विशाल इंफ़्रास्ट्रक्चर विकास की बात की गयी है लेकिन पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (पीपीपी) मोड में यानी सार्वजनिक संपत्ति की कीमत पर निजी कॉरपोरेट का फायदा।
ब्राह्मणवाद-कॉरपोरेट नेक्सस की इस सरकार के बजट में जनहित की किसी घोषणा की कोई उम्मीद तो वैसे ही नहीं थी, ऊपर से पेट्रोल तथा डीजल पर टैक्स बढ़ाकर आम आदमी पर बोझ बढ़ा दिया। इसका किसानों के निवेश पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। लेन-देन पर 2 फ़ीसदी टैक्स का छोटे और मझोले व्यापारियों पर अतिरिक्त भार पड़ेगा।
स्वास्थ्य सेवाओं का बजट में जिक्र तक नहीं है, बिहार में सैकड़ों बच्चे स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में मर गए तथा देश के और हिस्सों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से तमाम लोग बीमारियों से जूझ रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों तथा निजी शिक्षा की दुकानों के मुनाफ़े की व्यवस्था के प्रोत्साहन के अलावा शिक्षा का कोई जिक्र नहीं है।
देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के दयनीय बजट में बढ़ोतरी का कोई जिक्र नहीं है। जनकल्याण के प्रति निहायत उपेक्षा और अवमानना तथा मजदूरों और किसानों के हितों पर कुठाराघात किया गया है। कुल मिलाकर यह बजट कॉरपोरेट हितों का पोषक तथा किसान-मजदूर विरोधी है।
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