चार दिन तक चले ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का वैसे तो युद्धविराम हो चुका है लेकिन उसके बाद उसका ‘शांतिपर्व’ नहीं आया। जिस तरह से दोनों ओर से युद्ध जीतने के दावे किए जा रहे हैं उससे तो नहीं लगता कि यह जल्दी आने वाला है। भारत की तरफ़ से कहा जा रहा है कि ऑपरेशन सिंदूर जारी है तो पाकिस्तान की तरफ़ से कहा जा रहा है कि भविष्य के किसी भी हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। राजनीतिक दलों, राजनेताओं और राष्ट्रों की नाक इतनी ऊँची हो चुकी है कि कोई भी हार को स्वीकार करना ही नहीं चाहता। न ही मानव क्षति के प्रति संवेदनशील है। बल्कि हार इतना बुरा और अपमाजनक शब्द हो चुका है और जीत इतनी प्रतिष्ठित और महान उपलब्धि हो चुकी है कि अक्सर राष्ट्र और राजनेता हार दूसरे के खाते में और जीत को अपने खाते में डालते नज़र आते हैं। रोचक तथ्य यह है कि पाकिस्तान में भी यह आख्यान चलता रहता है कि हम तो 1971 का युद्ध हारे नहीं थे और भारत में भी यह कहने वाले कम नहीं हैं कि इंदिरा गांधी ने 1971 का युद्ध जीतकर क्या हासिल कर लिया था? सिलीगुड़ी की चिकन नेक तो वैसे ही है और पाक अधिकृत कश्मीर भी उन्हीं के पास में है। लेकिन परोक्ष रूप से राजनेता जब किसी पर व्यंग्य करते हैं और धमकी देते हैं तो सच्चाई को स्वीकार करते हैं। यानी कोई भी राष्ट्र या नेता सच्चाई को परोक्ष रूप से ही स्वीकार करता है प्रत्यक्ष रूप से नहीं। अगर कोई कर लेता है तो उसे देश के प्रति या फिर पार्टी के प्रति वफादार नहीं माना जाता।
इस महाभारत का शांतिपर्व कहाँ है?
- विचार
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- 2 Jun, 2025

ऑपरेशन सिंदूर के तहत हिंसा थमी ज़रूर है, लेकिन समाज में शांति और स्थिरता अब भी दूर दिख रही है। युद्धविराम के बाद भी 'शांतिपर्व' क्यों नहीं आया? पढ़ें इस युद्ध के सामाजिक और राजनीतिक प्रभावों का विश्लेषण।
जैसे कि पाकिस्तान के लोग जब यह कहते हैं कि हमने ऑपरेशन सिंदूर में 1971 की हार का बदला ले लिया तो वे स्वीकार कर रहे होते हैं कि 1971 में उनकी हार हुई थी। या फिर भारत के रक्षामंत्री जब यह कह रहे होते हैं इस बार तो नौसेना युद्ध में नहीं उतरी, लेकिन 1971 में उतरी थी तो पाकिस्तान के दो टुकड़े किए थे और आगे उतरेगी तो चार टुकड़े कर देगी।
लेखक महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार हैं।