राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ साल पूरे होने पर पीएम मोदी ने तीन बार प्रतिबंधित रहे इस संगठन की आज़ादी के आंदोलन में भूमिका और ‘अंग्रेज़ों का अत्याचार सहने’ का खुला झूठ बोलते हुए जो सिक्का जारी किया उसमें भारत माता के हाथ में तिरंगा नहीं उसी ‘भगवा-ध्वज’ की प्रतिकृति है जो संघ की शाखाओं में फहराया जाता है। मोदी सरकार की यह हरक़त भारत के राष्ट्रीय ध्वज, संविधान और स्वतंत्रता संघर्ष में दी गयी क़ुर्बानियों का ही नहीं, सीमा पर शहीदों होने वाले उन सैनिकों का भी अपमान है जो तिरंगे में लिपटकर अपने घर वापस आते हैं।

संविधान पर ‘हमलावर’ होने के तमाम आरोपों को नकारते हुए प्रधानमंत्री मोदी बार-बार संविधान को माथे पर लगाने की तस्वीर खिंचवाते हैं, लेकिन हक़ीक़त ये है कि उनका यह सिक्का संविधान की आत्मा को दाग़ने जैसा है। पीएम मोदी जानते हैं कि अभी गुरु गोलवलकर की तरह अपने सपनों के ध्वज को लेकर सच बोलने का समय नहीं आया है।
ताज़ा ख़बरें

तिरंगे पर गोलवलकर का विचार

तिरंगे के राष्ट्रध्वज होने के ऐलान के बाद आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने 14 अगस्त 1947 को आरएसएस के अंग्रेज़ी मुखपत्र आर्गेनाइज़र में लिखा-

“वे लोग जो क़िस्मत के दाँव से सत्ता तक पहुँचे हैं, वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आँकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हों, बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेह होगा।”

सरदार पटेल ने जवाब में कहा था कि गोलवलकर को हिंदू धर्म के बारे में कुछ नहीं पता है। हिंदू धर्म के मुख्य देवता ही तीन हैं- ब्रह्मा, विष्णु, महेश।

संघ ने मुख्यालय पर दशकों तक तिरंगा नहीं फहराया 

यह स्वभाविक ही था कि आरएसएस ने दशकों तक अपने मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया जब तक कि यह मुद्दा अदालत नहीं पहुँच गया। दरअसल 26 जनवरी 2001 को बाबा मेंढे, रमेश कांबले और दिलीप चटवानी नाम के तीन नौजवानों ने नागपुर के RSS मुख्यालय में घुसकर तिरंगा फहरा दिया था। उस समय आरएसएस के प्रचारक रह चुके अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और ये नौजवान यही बताना चाहते थे कि उनकी वैचारिक प्रेरणा कहलाने वाला संगठन तिरंगे को मान्यता नहीं देता। आरएसएस इससे इतना नाराज़ हुआ कि इन नौजवानों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज करा दिया। पुलिस ने तीनों को गिरफ्तार कर लिया (केस नंबर- 76/2001 नागपुर कोर्ट)। ये मुक़दमा लंबे समय तक चला। 2013 में ही ये नौजवान पूरी तरह अदालत से बरी हो पाये जब आरएसएस 'तिरंगा विरोधी’ होने की तोहमत से अपना पीछा छुड़ाना चाहता था। दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन के तिरंगे लहरा रहे थे और नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री बनाने का ताना-बाना तैयार किया जा रहा था।

आरएसएस के सौ साल पूरे होने पर पीएम मोदी ने एक डाक टिकट भी जारी किया जिसमें 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में आरएसएस के स्वयंसेवकों के मार्च का चित्र है। पूरा मीडिया यह बताने में जुट गया है कि नेहरू जी ने आरएसएस को गणतंत्र दिवस परेड मे आमंत्रित किया था। सच्चाई ये है कि इस वर्ष गणततंत्र दिवस पर होने वाली सैन्य परेड आयोजित ही नहीं हुई थी। चीन के साथ युद्ध की वजह से सेनाएँ सीमा पर थीं। उस समय एक ‘नागरिक मार्च’ निकालने का फ़ैसला किया गया था। आम जनता से इसमें शामिल होने की अपील की गयी थी। इसमें छात्रों, युवाओं, मज़दूरों के संगठन भी शामिल हुए थे। इन्हीं की आड़ में आरएसएस के गणवेशधारी भी शामिल हो गये थे। महात्मा गाँधी की हत्या को लेकर लगे दाग़ से मुँह छिपाए घूम रहे आरएसएस के लिए यह देशभक्ति दिखाने का अच्छा मौक़ा था जिसका उसने इस्तेमाल किया। ज़ाहिर है, नागरिक होने के नाते संघ के लोगों को भी रोका नहीं गया लेकिन न उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था और न ही ऐसा कोई चित्र दूसरे दिन अख़बारों में छपा था जैसा कि डाक टिकट में दिखाया गया है। अख़बारों में नागरिक मार्च की एक भीड़ के रूप में तस्वीर छपी है।
विचार से और

आरएसएस पर आंबेडकर की राय

दरअसल, झूठ और फ़रेब में आरएसएस और उसके संगठनों की कोई सानी नहीं है। धर्मनिरपेक्ष संविधान को नष्ट करके मनुवादी सिद्धांतों पर आधारित हिंदू राज बनाना ही उसका लक्ष्य है। उसने भारत माता के हाथ से तिरंगा छीनकर भगवा थमा दिया है जो संविधान पर सीधी चोट है। लेकिन पीएम मोदी शायद भूल गये हैं कि सत्ता की ताक़त से चलाया गया झूठ का सिक्का इतिहास के कूड़ेदान में जाता है। इतिहास में सिर्फ़ सत्य का सिक्का चलता है।

यह संयोग नहीं कि आरएसएस को 'ज़हरीला पेड़’ बताने वाले डॉ. आंबेडकर ने आरएसएस के सपने को देश के लिए आपदा बताया था। उनकी चेतावनी को हर देशभक्त को याद रखना चाहिए। उन्होंने कहा था- 

“यदि हिंदू राज एक तथ्य बन जाता है तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी। हिंदू चाहे जो भी कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए ख़तरा है। इस कारण यह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिंदू राज को किसी भी क़ीमत पर रोका जाना चाहिए।" 
(स्रोत- पाकिस्तान या भारत का विभाजन, लेखक डॉ. आंबेडकर, पेज 358)
प्रधानमंत्री मोदी से लेकर योगी आदित्यनाथ तक जिस भाषा का इस्तेमाल करते हुए देश के अल्पसंख्यकों ख़ासतौर पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा अभियान चलाते हुए महात्मा गाँधी की तस्वीर के सामने सिर भी नवाते हैं, वह भी संघ के फ़रेब का एक उदाहरण है। सच्चाई ये है कि आरएसएस के स्वयंसेवक नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधी की हत्या की थी और इस सूचना पर संघ कार्यालयों में मिठाई बँटी थी। यह बात किसी और ने नहीं, तत्कालीन गृहमंत्री और आरएसएस पर पहली बार प्रतिबंध लगाने वाले सरदार पटेल ने कही थी। 
सर्वाधिक पढ़ी गयी ख़बरें

पटेल की संघ पर राय

आरएसएस से प्रतिबंध हटाने की अपील के जवाब में 11 सितंबर 1948 को सरदार पटेल ने आरएसएस के सरसंघचालक एम.एस.गोलवलकर को पत्र लिखा था जिसमें कहा गया था कि- ‘हिंदुओं को संगठित करना और उनकी सहायता करना एक बात है, लेकिन अपनी तकलीफों के लिए बेसहारा और मासूम पुरुषों, औरतों और बच्चों से बदला लेना बिल्कुल दूसरी बात… इसके अलावा ये भी था कि उनके (आरएसएस नेताओं के) कांग्रेस विरोध ने, वो भी इस कठोरता से कि न व्यक्तित्व का ख्याल, न सभ्यता का, न शिष्टता का, जनता में एक प्रकार की बेचैनी पैदा कर दी। इनके सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे थे, हिंदुओं में जोश पैदा करना व उनकी रक्षा के प्रबंध करने के लिए आवश्यक न था कि जहर फैले। इस ज़हर का फल अंत में यही हुआ कि गांधी जी की अमूल्य जान की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी। सरकार व जनता की रत्ती भर सहानुभूति आरएसएस के साथ न रही बल्कि उनके ख़िलाफ़ ही गई। गांधी जी की मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया और मिठाई बांटी, उससे यह विरोध और भी बढ़ गया। इन हालात में सरकार को आरएसएस के खिलाफ कदम उठाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था।’

जब आरएसएस या बीजेपी का कोई नेता महात्मा गाँधी की प्रतिमा के सामने शीश नवाये तो सरदार पटेल के इस बयान को याद रखा जाना चाहिए। हत्या पर हर्ष जताते हुए मिठाई बाँटने और फिर शोक जताने की कला उसके नट-सम्राट होने का सबूत है। घर-घर तिरंगा अभियान एक छद्म और सिक्के में भारत माता के हाथ से तिरंगा छीन कर भगवा थमाना उसकी हक़ीक़त है।