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राहुल गाँधी का सत्याग्रह कहीं मिथ्याग्रह तो नहीं?

भारत का प्रवर्तन निदेशालय कांग्रेस नेता राहुल गाँधी से पूछताछ कर रहा है। मामला नेशनल हेरल्ड की संपत्ति के शेयर ख़रीदने के लिए कोलकाता की एक हवाला कंपनी से कर्ज़ लेने का बताया जा रहा है। राहुल गाँधी ने प्रवर्तन निदेशालय की जाँच को राजनीतिक दुश्मनी निकालने का हथकंडा बता कर इसके विरुद्ध सत्याग्रह छेड़ने का ऐलान किया है। कांग्रेस पार्टी की राज्य सरकारों के मुख्यमंत्रियों समेत सभी शीर्ष नेता इस सत्याग्रह में शामिल होने के लिए दिल्ली में जमा हैं और प्रवर्तन निदेशालय के समक्ष प्रदर्शन करने और धरना देने की कोशिशें कर रहे हैं। पुलिस वालों के साथ हो रही हाथापाई में कई नेताओं को चोटें भी आई हैं।

भ्रष्टाचार और अनियमितता के आरोपों को राजनीतिक दुश्मनी निकालने का हथकंडा बता कर कार्रवाई के ख़िलाफ़ अपने समर्थकों से धरने-प्रदर्शन कराना भारत की राजनीति में आम बात रही है। इंदिरा गाँधी ने जनता पार्टी सरकार के शासन में अपने बचाव के लिए यही रणनीति अपनाई थी। जनता सरकार ने उन्हें भ्रष्टाचार और आपात स्थिति के दौरान विपक्षी नेताओं को मारने की साज़िश रचने के आरोपों में गिरफ़्तार किया था। वे केवल एक-एक दिन के लिए ही हिरासत में रहीं लेकिन उनके समर्थकों ने गिरफ़्तारी के विरोध में देशव्यापी प्रदर्शन किए थे। विरोध प्रदर्शनों से उनकी लोकप्रियता पुनर्जीवित हुई और वे भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटीं। चारा घोटाले में दोषी पाए जाने के बाद लालू यादव ने और दिसंबर 2019 में आईएनएक्स हवाला कांड में गिरफ़्तारी के बाद पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने भी अपने बचाव में यही कहा था कि उनसे राजनीतिक दुश्मनी निकाली जा रही है।

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इसलिए कांग्रेस पार्टी को लगता है कि प्रवर्तन निदेशालय से पूछताछ करा कर मोदी सरकार ने उन्हें मंच और मौक़ा दे दिया है जिसका लाभ उठा कर वे विधानसभा चुनावों की हार और कई बड़े नेताओं के जाने से बिखरती पार्टी को दोबारा संगठित कर सकते हैं। पिछले दो दिनों के विरोध प्रदर्शनों में दिखाई दिए कांग्रेस नेताओं और समर्थकों के रोष और जोश को देखकर कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों को पार्टी में नई जान आती दिखाई भी दे रही है। हो सकता है कि राहुल गाँधी के समर्थन में जुटे शीर्ष नेताओं के जोश को देखकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और वफ़ादार समर्थकों का जोश लौट आए। यह भी संभव है कि निराश समर्थकों की आशा बँधने लगे। लेकिन कांग्रेस की असली चुनौती उन मतदाताओं को लुभाना है जिनका मन कांग्रेस से खट्टा हो चुका है और उन्हें जो तय नहीं कर पा रहे हैं कि किसे वोट देंगे।

इसमें संदेह है कि भ्रष्टाचार के आरोपों का खुल कर जवाब देने के बजाय अपने समर्थकों का मजमा जमा करने और उसे सत्याग्रह का नाम देने से ऐसे लोग कांग्रेस की ओर आकर्षित होंगे। प्रवर्तन निदेशालय अभी केवल पूछताछ ही तो कर रहा है और यदि राहुल गाँधी और कांग्रेस का दामन पाक साफ़ है तो उन्हें खरे-खरे जवाब देने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। बल्कि इसे मोदी सरकार द्वारा दिए गए मंच और मौक़े की तरह स्वीकार करते हुए इसका प्रयोग अपनी सफ़ाई देने और सरकार की राजनीतिक दुर्भावना का पर्दाफ़ाश करने में किया जा सकता था। 

इसी बहाने देश के सामने खड़ी महँगाई और मंदी जैसी समस्याओं पर बात की जा सकती थी और लोगों को यह बताया जा सकता था कि संकट की इस घड़ी में कांग्रेस सरकार होती तो इनसे कैसे निपटती।

अनियमितता और भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस की छवि बहुत अच्छी नहीं रही है। ऐसे में पूछताछ के विरोध में हंगामा खड़ा करने से दाल में कुछ काला होने का संदेह पैदा होता है।

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अपने ऊपर लगने वाले आरोपों और उन्हें लेकर होने वाली कार्रवाई को राजनीतिक दुश्मनी बताने और पार्टी समर्थकों का आंदोलन खड़ा कर लेने की रणनीति काफ़ी पिट चुकी है। अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप भी अनियमितता और भ्रष्टाचार के आरोपों का जवाब लगभग इसी तरह की ज़बान में दे रहे हैं। गाँधी बनकर अपनी राजनीतिक लड़ाई को सत्याग्रह का नाम दे देना और बात है और गाँधी जी के नैतिक आदर्शों को और सत्याग्रह के मानदंडों का पालन कर पाना और बात।

गाँधी जी न कभी सवालों से भागते थे और न ही अपने समर्थन के लिए मजमा इकट्ठा करते थे। इस तथाकथित सत्याग्रह के लिए जुटे कांग्रेस नेताओं को भी यह सोचना चाहिए कि पार्टी का नेता कोई मसीहा नहीं होता जिस पर किसी तरह का कोई सवाल उठाया ही न जा सके। कांग्रेस की वर्तमान दशा और चुनौतियों को देखते हुए पूछताछ के विरुद्ध जिस तरह की पिटी-पिटाई रणनीति अपनाई जा रही है उसे देखकर लगता है कि कांग्रेस कहीं मिथ्याग्रह की राह पर तो नहीं चल पड़ी है?

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शिवकांत | लंदन से
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