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महाशक्तियों का नया मोर्चा बनता यूक्रेन

रूस ने यूक्रेन की सीमा पर एक लाख से ज़्यादा सैनिक जमा कर रखे हैं। पुतिन नहीं चाहते कि यूरोपीय संघ और नेटो संगठन का फैलाव रूस की सीमा तक हो। इसलिए वे अमेरिका और नेटो से इस बात की गारंटी चाहते हैं कि यूक्रेन को नेटो और यूरोपीय संघ में शामिल नहीं किया जाएगा। 
शिवकांत | लंदन से

ब्रिटेन का आरोप है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन यूक्रेन में किसी रूस समर्थक नेता को सत्ता पर बैठाने का षडयंत्र रच रहे हैं। ब्रितानी विदेशमंत्री लिज़ ट्रस ने यह भी कहा कि यूक्रेन के पूर्व सांसद और रूस समर्थक टेलीविज़न केंद्र के मालिक येवहन मुरायेफ़ वह नेता हो सकते हैं जिन्हें यूक्रेन की गद्दी पर बैठाने की कोशिशें चल रहा है। रूसी हमले की आशंका से ब्रिटेन ने राजधानी कीफ़ से अपने दूतावास से करीबन आधे कर्मचारियों को घर वापस बुला लिया है। लेकिन रूसी विदेश मंत्रालय ने ब्रितानी आरोप का खंडन करते हुए एक ट्वीट जारी किया और कहा कि ब्रिटन ‘झूठी अफ़वाह फैला’ रहा है। ख़ुद येवहन मुरायेफ़ ने भी ब्रिटेन के आरोप का खंडन करते हुए कहा है कि ब्रितानी आरोप बेतुका है क्योंकि रूस ने तो उनके प्रवेश पर रोक लगा कर उनकी संपत्ति ज़ब्त कर रखी है। 

पर यूक्रेन की सरकार ब्रितानी आरोपों को गंभीरता से ले रही है। यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादोमीर ज़ेलेंस्की के एक वरिष्ठ सलाहकार ने कहा कि उनकी सरकार रूस की हमला करने और यूक्रेनी सरकार और अर्थव्यवस्था को अस्थिर बनाने की कोशिशों का विरोध करती है। राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की अमेरिका और यूरोपीय संघ के देशों से अपील कर रहे हैं कि राष्ट्रपति पुतिन बढ़ते दुस्साहस को रोकने के लिए वे तत्काल कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाएँ। 

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रूसी सेनाएँ तैनात

रूस ने यूक्रेन की सीमा पर एक लाख से ज़्यादा सैनिक जमा कर रखे हैं और रूस की सेनाएँ यूक्रेन के उत्तरी पड़ोसी बेलारूस में युद्धाभ्यास भी कर रही हैं जहाँ राष्ट्रपति पुतिन के समर्थक एलेग्ज़ांडर लूकाशेंको की सरकार है। पुतिन नहीं चाहते कि यूरोपीय संघ और नेटो संगठन का फैलाव रूस की सीमा तक हो। इसलिए वे अमेरिका और नेटो से इस बात की गारंटी चाहते हैं कि यूक्रेन को नेटो और यूरोपीय संघ में शामिल नहीं किया जाएगा। वे यह भी चाहते हैं कि एस्तोनिया, लातविया, लिथुएनिया, पोलैंड, हंगरी और रोमानिया जैसे सीमावर्ती देशों में भी नेटो के संहारक अस्त्र तैनात न किए जाएँ। 

अमेरिका और उसके साथी नेटो संगठन के देशों का कहना है कि पुतिन साहब जिस गारंटी की माँग कर रहे हैं उसे दे पाना संभव ही नहीं है। क्योंकि वह अंतर्राष्ट्रीय क़ायदे-कानूनों का उल्लंघन और यूक्रेन की प्रभुसत्ता का अतिक्रमण होगा।

कोई देश या उनका संगठन किसी दूसरे देश को किसी न किसी संगठन में शामिल होने के लिए बाध्य कर सकता है और न रोक सकता है। इसी तरह किसी भी देश या उनके संगठन को किसी दूसरे देश की सीमाओं के साथ छेड़छाड़ करने का भी कोई हक़ नहीं है। अमेरिका और यूरोप के देश केवल इतना आश्वासन दे रहे हैं कि फ़िलहाल यूक्रेन को यूरोपीय संघ और नेटो की सदस्यता देने का न तो कोई प्रस्ताव है और न ही ऐसी कोई योजना है। पर वे यह चेतावनी भी दे रहे हैं कि वे एकजुट होकर यूक्रेन के साथ हैं। अगर रूस ने यूक्रेन की सीमाओं को पार करने या और किसी तरह की गड़बड़ी करने की कोशिश की तो अमेरिका और यूरोपीय देश कड़े से कड़े प्रतिबंध लगाकर उसका यथोचित जवाब देंगे।

निकलेगा हल?

पिछले सप्ताह यूरोपीय देशों के नेताओं के साथ हुई वार्ताओं के बाद पहले राष्ट्रपति बाइडन ने और उसके बाद रूसी विदेशमंत्री सर्गेई लावरोफ़ के साथ हुई सीधी बातचीत के बाद विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन ने इसी चेतावनी को दोहराया। ब्लिंकन और लावरोफ़ की बातचीत से भी इस संकट का किसी तरह का हल निकलने के कोई संकेत नहीं मिले। लावरोफ़ ने कहा कि रूस का यूक्रेन पर हमला करने का कोई इरादा नहीं है। अमेरिका और यूरोपीय देश तिल का ताड़ बना रहे हैं। ब्लिंकन ने कहा कि यूक्रेन को नेटो और यूरोपीय संघ में शामिल करने की फ़िलहाल कोई योजना नहीं है पर ऐसा कभी नहीं होगा, इस बात की गारंटी नहीं दी जा सकती। 

russia ukraine conflict and war tension - Satya Hindi
लावरोफ़ ने रूसी सेना को यूक्रेन की सीमा से हटाने का कोई संकेत नहीं दिया और ब्लिंकन ने हमले के ख़िलाफ़ अपनी चेतावनी को दोहराते हुए यूक्रेन को दिए जा रहे अमेरिकी हथियारों पर रोक लगाने का संकेत नहीं दिया। उल्टे अमेरिका ने अपने नागरिकों को यूक्रेन से बाहर चले जाने की सलाह दी और दूतावास के कर्मचारियों के परिवारों को वापस बुला लिया जिससे लगता है कि स्थिति बिगड़ने की आशंका प्रबल होती जा रही है।
सवाल उठता है कि पुतिन की रणनीति क्या है? यदि वे नहीं चाहते कि रूस की सीमाएँ नेटो और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों से घिरें, तो यूक्रेन को हड़पने का कोई तुक नहीं बनता। क्योंकि यूक्रेन की पश्चिमी सीमाएँ तो पोलैंड, स्लोवाकिया, हंगरी और रूमानिया जैसे देशों से घिरी हैं जो यूरोपीय संघ और नेटो के सदस्य हैं।

उत्तर में बेलारूस है जहाँ लुकाशेंको की सरकार है जो पहले से रूस समर्थक है। तो यदि पुतिन पूरे यूक्रेन को हड़पने में कामयाब भी हो जाएँ तो भी वह उनके लिए काँटों का ताज ही साबित होगा। क्योंकि एक तो वह नेटो देशों से घिरा रहेगा।दूसरे वहाँ की केवल एक तिहाई जनता ही रूसी बोलती है और रूस के समर्थन में आ सकती है। बाक़ी दो तिहाई से ज़्यादा लोग यूक्रेनी भाषा बोलते हैं। वे प्रखर राष्ट्रवादी माने जाते हैं और 1932-33 के अकाल और शोषण को नहीं भूले हैं जिसमें लगभग 35 लाख लोग मारे गए थे। यूरोप का धानकटोरा माने जाने वाले यूक्रेन की खेती को स्तालिन की नीतियों ने चौपट कर डाला था। भुखमरी का ऐसा आलम था कि लोग अपनी जान बचाने के लिए नरभक्षी बनने पर विवश हो गए थे।

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वैसे पुतिन के सोच के बारे में सही अनुमान लगा पाना कठिन है। फिर भी कई रूस विशेषज्ञों का मानना है कि उनकी असली चाल यूक्रेन में बेलारूस जैसी कठपुतली सरकार को सत्ता में लाना है। इसके लिए उन्हें पूर्वोत्तरी यूक्रेन के रूसी भाषी डानबास प्रांत को हड़पना भी पड़ा तो वे नहीं हिचकिचाएँगे। जॉर्जिया में भी वे 2008 में ऐसा ही खेल खेल चुके हैं। दक्षिण ओसेशिया और अबख़ाज़िया में विद्रोह उकसा कर उन प्रांतों को जॉर्जिया से जॉर्जिया से अलग करवा लिया था। इसी तरह का खेल डॉनबास में भी खेला जा सकता है। या फिर उसे यूक्रेन की ऐसी सरकारों को गिराने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है जो यूरोप और नेटो की तरफ़ झुकने लगें। 

रास्ता चाहे जो हो, यूक्रेन का हाथ से निकल कर यूरोपीय संघ के खेमे में जाना पुतिन को कतई गवारा नहीं है। उन्होंने पिछले साल रूसियों की एकता पर एक लंबा लेख लिखा था जिसमें यूक्रेनी और रूसी लोगों की एकता के सदियों पुराने इतिहास की याद दिलाने की कोशिश की गई थी।
पुतिन साहब के लेख से एक बात और समझ में आती है कि उनके लिए यूक्रेन सुरक्षा से ज़्यादा आन की बात बन चुका है। वे 1991 के सोवियत संघ के बिखराव और उसके बाद वारसा संधि का कवच टूट जाने की पीड़ा को नहीं भुला पाए हैं। पूर्व सोवियत देशों को वे रूस के प्रभाव क्षेत्र के रूप में देखते हैं और उनके यूरोपीय संघ या नेटो जैसे दुश्मन के पाले में जाने को शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। इसीलिए कज़ाख़्स्तान में विद्रोह भड़कते ही उन्होंने सरकार की सुरक्षा में अपने टैंक उतार दिए।
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वे जानते हैं कि इतिहास के पहिए को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता। इसलिए वे एक नया इतिहास शुरू करना चाहते हैं जिसमें वे सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके आसपास के पूर्व सोवियत देशों में उनकी बात मानने वाली सरकारें रहें। मुश्किल यह है कि इसे वे पड़ोसी देशों के विकास के ज़रिए नहीं बल्कि सरकारों को कमज़ोर बना कर हासिल करना चाहते हैं। ऐसा लगता है पुतिन के इस काम में चीन भी उनके साथ है या फिर चीन पुतिन को एक बड़े मोहरे के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है।

पुतिन की तरह चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भी अमेरिका और उसके मित्र देशों की गोलबंदी का डर सताता रहता है। उन्हें ताईवान, दक्षिण कोरिया, जापान, हांग-कांग, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और भारत में लोकतंत्र और अमेरिकी और यूरोप प्रभाव की चिंता है। इसलिए वे उत्तर कोरिया, पाकिस्तान और ईरान जैसे देशों को अपने हाथ से नहीं निकलने देना चाहते। 

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यूक्रेन के संकट और अमेरिका से बढ़ती अनबन ने पुतिन और शी को एक-दूसरे के निकट ला दिया है। पुतिन जल्दी ही चीन की यात्रा पर जाने वाले हैं जहाँ वे शी जिनपिंग से मिलेंगे और यूक्रेन के संकट पर कोई रणनीति बनाएँगे। पुतिन और शी दोनों यह चाहते हैं कि अमेरिका के एकछत्र वर्चस्व को ख़त्म किया जाए और दुनिया में बहुध्रुवीय वर्चस्व वाली व्यवस्था कायम हो। अमेरिका और उसके यूरोपीय मित्र देशों का वर्चस्व अंधमहासागर में रहे और एशिया-प्रशान्त में चीन और रूस का वर्चस्व क़ायम हो।वैसे प्रतिबंधों को लेकर अभी यूरोपीय देशों के बीच आमराय नहीं बन पाई है। क्योंकि यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक और औद्योगिक शक्ति जर्मनी रूस के बाज़ार और गैस की सप्ताई पर बुरी तरह निर्भर है। यूरोप की 40 प्रतिशत गैस अकेले रूस से आती है। कोविड की मार और यूक्रेन के संकट की वजह से यूरोप में गैस के दाम चार गुणा हो चुके हैं। फिर भी, अमेरिका और यूरोप के प्रतिबंध लगने की सूरत में रूस को चीन की आर्थिक, व्यापारिक और कूटनीतिक मदद की ज़रूरत पड़ेगी।
भारत के लिए यूक्रेन का संकट चारों ओर से बुरी ख़बर है। यदि रूस यूक्रेन में गड़बड़ करता है तो उसे भारत से कूटनीतिक समर्थन नहीं तो कम से कम तटस्थता बरतने की अपेक्षा होगी।

उधर अमेरिका और यूरोप भारत पर प्रतिबंधों में और निंदा प्रस्तावों में शामिल होने का दबाव डालेंगे। यूक्रेन में रूसी हस्तक्षेप से मची अफ़रा-तफ़री का फ़ायदा उठा कर चीन ताईवान पर हमला करने या फिर भारत की सीमा में घुसपैंठ का प्रयास कर सकता है। यह भी संभव है कि शी जिनपिंग साहब अमेरिका, नेटो और रूस के बीच सुलह कराने के लिए पंच बन बैठें  और चीन की घेराबंदी कराने के भारत के मंसूबे धरे रह जाएँ। 

इन सारी संभावनाओं के बीच भारत को तेल के दामों में आने वाले उछाल, यूरोपीय देशों के साथ सामरिक और व्यापारिक रिश्ते बनाए रखने, अमेरिका और रूस दोनों के साथ रिश्ते क़ायम रखने और यूक्रेन में अपने हितों की रक्षा करने जैसी चुनौतियों से भी निपटना पड़ेगा। अमेरिका, चीन और रूस के बीच चल रही वर्चस्व की लड़ाई में भारत को भी अपना वर्चस्व क्षेत्र बनाने और उसे फैलाने के बारे में सोचना होगा।

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