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‘द कश्मीर फाइल्स’: क्या 1984, 2002 के ज़ख्मों को कुरेदना सही होगा?

मैं निगेटिविटी से दूर रहने की भरसक कोशिश कर रहा हूँ लेकिन रहा नहीं जा रहा हैं। बीजेपी ने एक फ़िल्म को ढाल बनाया है और देश में जो होता हुआ दिख रहा है, उस पर मेरा विवेक चुप रहने की इजाज़त नहीं देता, क्योंकि खुलेआम कुछ प्रचलित प्रथाएँ टूटते देख रहा हूँ। ऐसे में इतिहास कल उन तटस्थों से भी सवाल करेगा जो ये सब होते देख भी ख़ामोश हैं।

अतीत को कलंकित करने वाली हमारे इतिहास में कई घटनाएँ हुई हैं तो क्या बरसों बाद सच दिखाने के नाम पर (सच कहें तो एजेंडा के तहत) पूरी छूट दे दी जाए?

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केंद्रीय फिल्म प्रमाण बोर्ड या सेंसर बोर्ड की ये ज़िम्मेदारी रही है कि फिल्मकार कुछ ऐसा न दिखाएं जो वीभत्स हो और समुदायों में वैमनस्य पैदा करता हो। लेकिन इस फ़िल्म को लगता है कि सेंसर बोर्ड ने आँखों पर पट्टी बांध कर पास किया है। क्यों? सिर्फ़ इसलिए कि फिल्म बनाने वाले और इसमें काम करने वाले सत्तारूढ़ पार्टी के करीबी हैं या फिर एक ख़ास मकसद से इस फिल्म को बनवाया गया है?

क्या 1947 में पाकिस्तान से भागने वाले हिन्दुओं-सिखों और भारत से भागने वाले मुसलिमों को कम भुगतना पड़ा था, क्या उन दृश्यों को भी वैसे ही वीभत्सता के साथ बड़े पर्दे पर परोसा जाए।

1984 और 2002 भी ऐसे ही हमारे इतिहास के काले पन्ने हैं। क्या उन ज़ख्मों को भी फिर से सिनेमेटिक लिबर्टी के नाम पर कुरेदा जाए? सिर्फ़ सच दिखाने के नाम पर? ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि फिल्म 'परजानिया' पर किस आधार पर गुजरात में बैन लगाया गया था।

जिन सिनेमाहॉल्स में ये फिल्म दिखाई जा रही है, उनके अंदर और बाहर ज़हर भरे नारे लगाए जा रहे हैं, भाषण दिए जा रहे हैं, लेकिन कहीं से कोई इन्हें रोकने के लिए आवाज़ नहीं उठ रही। न क़ानून बोल रहा है, न कोर्ट।
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जिन राज्यों में पार्टी विशेष की सरकारें हैं, वहां इस फिल्म को टैक्स फ्री कर और प्रोत्साहित किया जा रहा है। क्यों खेला जा रहा है ये ख़तरनाक़ खेल चुनावी बिसात पर सिनेमाजगत में अपने प्यादों को आगे कर? 2024 नज़दीक आ रहा है इसलिए?

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राकेश कुमार सिन्हा
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