उप राष्ट्रपति पद से जगदीप धनखड़ की विदाई जितनी अचानक और निजी दिखाई देती है वह उतनी लगती नहीं। जी हां, यह
बीमारी और निजी कारण से हुआ इस्तीफा नहीं लगता, यह दबाव में लिया गया इस्तीफा लगता है। और उनके इस बड़े पद से हटने की अनुगूँज अभी केंद्र, एनडीए और भाजपा की राजनीति में देर तक सुनाई देगी। तत्काल तो यही दिख रहा है कि बीजेपी की तरफ़ से कुछ नहीं कहा गया, लेकिन विपक्ष उस धनखड़ साहब को अपने इस्तीफे पर पुनर्विचार के लिए कह रहा है जिनसे उसका रिश्ता छत्तीस का ही रहा है। अब विपक्ष उनकी तारीफ़ के कसीदे भी पढ़ रहा है।
सत्ता पक्ष का हाल तो यह है कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा पहले तो उप राष्ट्रपति, जो राज्यसभा का सभापति भी होते हैं, के मुंह पर उनके लिए अपमानजनक टिप्पणी करते रहे और शाम को हुई सर्वदलीय बैठक में निजी काम के बहाने आए भी नहीं। और आज सरकार तथा बीजेपी जिस तरह चल रही है उसमें नड्डा जी भले ही कामचलाऊ अध्यक्ष हैं लेकिन वे पर्याप्त ताकतवर हैं क्योंकि असली सत्ता वालों का विश्वास उनको हासिल है। यह अलग बात है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अभी भी मुगालता है कि असली सत्ता उसके हाथ में है और नड्डा ने अगर लोकसभा चुनाव के समय उसका अपमान किया था तो वह उनकी विदाई करा देगा।
जगदीप धनखड़ का स्वास्थ्य
इस्तीफे वाले दिन अर्थात 21 जुलाई को तीसरे पहर तक उप राष्ट्रपति का काम और व्यवहार यही दिखाता है कि सब कुछ सामान्य था। उनके दफ्तर से उनके जयपुर के कार्यक्रम की विज्ञप्ति भी जारी हुई जो एक दिन बाद होनी थी। उनका स्वास्थ्य खराब था और उनको कुमाऊं विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में चक्कर आए थे। लेकिन यह मार्च की बात थी। अभी हफ्ता भर पहले वे जेनयू के कार्यक्रम में तारीख बताकर यह कह रहे थे कि वे 10 अगस्त 2027 को पद से मुक्त होंगे- बीच में ईश्वरीय दखल न हो तब। और जिस तरह के वे नेता थे उसमें उनके बयान और काम कई बार सरकार के लिए परेशानी का कारण भी बनाते रहे थे। न्यायपालिका को लेकर की गई उनकी टिप्पणियों और संवैधानिक पद पर रहते हुए संविधान के सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द पर उनकी टिप्पणी किसी को भी अखर सकती थी।
पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहते हुए भी उनके कई काम और कमेन्ट इसी श्रेणी के थे। हर कोई मानता था कि संघ की पृष्ठभूमि न होने के चलते वे सत्ता के गलियारे में ऊंचा आसन पाने के लिए यह सब करते हैं। जब तक उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान चुनाव में बीजेपी को जाट वोटों की ज़रूरत थी, उनका प्रोमोशन भी होता गया और उनके ऐसे बयानों-कामों को बर्दाश्त ही नहीं किया गया, उनका गुण माना गया। इसलिए उनके इस्तीफा में नैतिकता का अंश ढूँढना तो बेवकूफी होगी।
चुनावी जरूरत खत्म या काम होने के बाद अपनी सत्ता और महत्व को बढ़ाने की धनखड़ की कोशिशें सरकार के कर्ता-धर्ता लोगों को भी चुभती होंगी। जेपी नड्डा का सदन में दिया बयान उसकी झलक पेश करता है। पर यह बयान धनखड़ जी के सिर्फ पहले के बयानों के आधार पर नहीं आया होगा।
जस्टिस वर्मा के ख़िलाफ़ महाभियोग नोटिस
21 जुलाई को लोकसभा में जस्टिस वर्मा के ख़िलाफ़ महाभियोग का नोटिस सभी दलों के सांसदों ने दिया क्योंकि सरकार इसे सर्वसम्मत मामला बनाना चाहती है। लेकिन राज्य सभा में सभापति ने सिर्फ विपक्षी सदस्यों द्वारा पेश प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। इससे पहले भी वही सभापति थे जब इलाहाबाद के जस्टिस यादव द्वारा विश्व हिन्दू परिषद के आयोजन में दिए विवादास्पद बयान पर विपक्षी प्रस्ताव उन्होंने नहीं माना था जबकि उस पर जरूरी संख्या से ज़्यादा सदस्यों के दस्तखत थे। मामला इन दोनों की तुलना का नहीं है। जस्टिस वर्मा वाले मामले में अब जो संसदीय समिति बनेगी उसमें राज्य सभा वाले तीन सदस्यों का चुनाव सभापति के विवेक से होगा। अब अगर सभापति ने मोशन को स्वीकार करने में सरकार से अलग लाइन ली तो चुनाव में सरकार की मानेंगे, इसमें नड्डा जी समेत सबको शक होगा। और इस व्यवहार में ही अचानक विपक्षी दलों द्वारा धनखड़ की तारीफ का रहस्य छुपा लगता है।सरकार, एनडीए और भाजपा का संकट!
अब इस मामले को यहीं छोड़ें क्योंकि बात सिर्फ इतनी नहीं हो सकती। कुछ और भी संकेत मिले होंगे और
धनखड़ साहब को भी अपने मान सम्मान के प्रतिकूल कुछ और बातें लगी होंगी। पर उनकी विदाई के बाद सरकार, एनडीए और भाजपा का संकट जरूर कुछ बढ़ गया है। अभी तक उसे सिर्फ अध्यक्ष चुनने में परेशानी हो रही थी क्योंकि आरएसएस अपनी चलाने पर अड़ा हुआ है। वह नड्डा को निपटाने के साथ योगी जी के साथ हुए ‘अन्याय’ का इलाज भी चाहता है। लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के ज्यादातर टिकट योगी की मर्जी से उलट दिए गए थे। और हम देख चुके हैं कि भाजपा के मौजूदा नेतृत्व के लिए यह काम कितना मुश्किल हो गया है। और आग में घी डालते हुए खुद मोहन भागवत पचहत्तर की उम्र सीमा पर वैराग्य की बहस छेड़कर प्रधानमंत्री पर भी निशाना साधे हुए हैं। अब एक नया उपराष्ट्रपति चुनने का सिरदर्द इस सारी परेशानी को कई गुना करेगा। इसमें भी खास बात यह है कि लोक सभा और राज्यसभा, दोनों में भाजपा को सहयोगी दलों पर निर्भर रहना है। उनकी नाराजगी के बाद अपना उम्मीदवार जिताना मुश्किल होगा।
और भाजपा के मौजूदा नेतृत्व को दो बार से ऐसी आदत पड़ी हुई है कि वह विपक्ष की ही नहीं, पार्टी और सहयोगी दलों की भी कम ही परवाह करता है। लोक सभा चुनाव के बाद बहुमत न होने पर तेलगु देशम पार्टी और जदयू समेत अन्य विपक्षी दलों का सहयोग सुनिश्चित होते ही इस नेतृत्व ने एनडीए संसदीय दल कई बैठक बुलाकर नरेंद्र मोदी को नेता घोषित कर दिया। इससे पहले भाजपा संसदीय दल का नेता चुने जाने की औपचारिकता भी नहीं पूरी की गई क्योंकि उसमें चुनावी बदहाली, बहुमत न मिलने और मोदी जी के पचहत्तर साल का होने के बाद की स्थिति पर विचार का सवाल उठने का डर था।
पार्टी के कई लोग इन सवालों के साथ ताल ठोक रहे थे। उधर, संघ नड्डा जी के इस बयान से खार खाए हुए था कि अब भाजपा को चुनाव जीतने के लिए संघ के समर्थन की जरूरत नहीं है। हमने देखा है कि इस बयान के बावजूद लोकसभा चुनाव के बाद हुए महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली चुनाव में संघ के कार्यकर्त्ता किस तरह भाजपा की जीत के लिए जुटे हुए थे। और रिजल्ट से उनके काम का महत्व सबको दिखा। जाहिर है मौजूदा नेतृत्व संघ की उपेक्षा करके नहीं चल सकता, भले ही नड्डा का बयान उसके मन की बात हो। अब अगर धनखड़ जी जैसा चालाक राजनेता जरा भी दाँवपेंच की स्थिति में आ जाए तो यह संकट बढ़ेगा ही। इसलिए उनकी विदाई हुई है।