1975 का यह वह समय था जब गांधीवादी जननेता जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के नीतियों, कार्य शैलियों और उभरती अधिनायकवादी प्रवृत्तियों के प्रतिरोध में सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया गया था। इतना ही नहीं, जयप्रकाश जी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित सार्वजनिक सभा के मंच से सेना, पुलिस, नौकरशाही से इंदिरा सरकार के गैर-संवैधानिक आदेशों पर अमल  नहीं करने के लिए भी कहा था। कोई भी निर्वाचित प्रधानमंत्री इस स्थिति को सहन नहीं कर सकता था। (यदि कोई भी विपक्षी नेता या पत्रकार  वर्तमान मोदी शासन के दौरान ऐसा कहने की हिमाक़त करेगा तो वह तुरंत ही ‘देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही और राज्यद्रोही, ग़द्दार आदि तमगों से घिर जायेगा और गिरफ्तार कर लिया जायेगा।) प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, सम्पूर्णक्रांति के सूत्रधार के ऐसे विस्फोटक शब्दों को सहन नहीं कर सकीं और चंद घंटों के बाद ही आपातकाल की घोषणा कर दी गई। भारत के संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल के प्रावधान हैं: 
  1. बाहरी आपातकाल
  2. आंतरिक
  3. वित्तीय

आधी रात को आपातकाल की घोषणा

1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 25 जून की मध्यरात्रि को आंतरिक आपातकाल (internal emergency) की घोषणा की थी। संविधान के 352 -360 के अनुच्छेदों के अंतर्गत किन हालातों में आपातकालों को लगाया जा सकता है, इसका विवरण दिया गया है। आपातकाल में सरकार और नागरिक के अधिकार व कर्त्तव्य क्या होंगे, इसका भी उल्लेख है। आपातकाल की घोषणा और संसद से मंज़ूरी की क्या प्रक्रिया रहेगी, की भी व्यवस्था है। इंदिरा गाँधी ने संविधानप्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए आपातकाल की घोषणा की थी। इसके साथ ही प्रेस (तब प्रेस कहा जाता था, मीडिया नहीं) पर भी सेंसरशिप लाद दी गई थी। अब नागरिक के अभिव्यक्ति के अधिकार प्रभावित हुए थे। खुल कर बोलने-लिखने-पढ़ने-प्रकाशन पर पाबंदियां थीं।
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आपातकाल की घोषणा क्यों?

इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा क्यों की थी, यह हमेशा विवाद का विषय रहेगा। फिर भी कुछ बातों को याद करना ज़रूरी है। 1971 में रायबरेली से निर्वाचित इंदिरा गांधी के चुनाव को उनके प्रबल विरोधी उम्मीदवार राजनारायण ने इलाहबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। समाजवादी नेता राजनारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा पर चुनावी धांधलियों के कई आरोप लगाए थे। यह सुनवाई सालों चली। अंततः 12 जून 1975 को न्यायाधीश जगमोहन सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया और अदालती कार्रवाई में राजनारायण की जीत हुई। इसके बाद सम्पूर्ण क्रांति और आक्रामक हो उठी। देश के विभिन्न कोनों से प्रधानमंत्री गांधी के इस्तीफ़े की मांग उठने लगी। आक्रामक मांग की परिणीति रामलीला मैदान की सार्वजनिक सभा में होती है और जयप्रकाश जी इंदिरा गांधी से तत्काल सत्ता छोड़ने के लिए कहते हैं, सेना से भी प्रधानमंत्री के अवैध आदेशों को नहीं मानने की अपील करते हैं। इसके बाद प्रधानमंत्री गांधी और सम्पूर्ण क्रांति के योद्धा जयप्रकाश नारायण के मध्य निर्णायक युद्ध का मैदान साफ़ हो चुका था। 

जयप्रकाश नारायण और उनके सभी समर्थक वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार किया गया। देशभर में गिरफ्तारी का ज्वार चला। इस जन ज्वार से सबसे अधिक फ़ायदा संघ परिवार और तत्कालीन जनसंघ को हुआ। भारत की राजनीति में जनसंघ ‘राजनैतिक अस्पृश्यता’ का दंश  झेलती आ रही थी। यह सिलसिला 1952 से चल रहा था। लेकिन, सम्पूर्ण क्रांति के सैनिक बनने, और अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, भैरों सिंह शेखावत, विजयराजे सिंधिया जैसे चोटी के नेताओं की गिरफ्तारी से सियासी छुआछूत फौरी तौर पर गायब ज़रूर हो गयी थी। 

जयप्रकाश के संपर्क से RSS का असर बढ़ा

जयप्रकाश जी के संपर्क में आने के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रभाव का भी विस्तार हुआ था। उन्होंने संघ की गतिविधियों की प्रशंसा भी की थी। ‘आपदा में अवसर’ खोजने की रणनीति बनाने की दृष्टि से संघ की कार्यशैली अभूतपूर्व रहती रही है। उसके कार्यकर्ता सुगमतापूर्वक दूसरों की पार्टियों में घुसपैठ करते रहे हैं। 2011-14 में  अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भी संघ परिवार की अभूतपूर्व घुसपैठ रही है। 1980 में जनता पार्टी से अलग होकर पूर्व जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी के रूप में अवतरित ‘भाजपा’ के कार्यकर्त्ताओं ने भी इस आंदोलन की धारा का जमकर दोहन किया था। इस दोहन से निकले माखन को भरपेट खाया है मोदी+ शाह ब्रांड बीजेपी ने। 

इसके अलावा, इंदिरा शासन (1966-77) के दौरान देश में केजीबी बनाम सीआईए की गुप्त जंग भी चलती रही है। उस काल में सोवियत संघ ज़िंदा था और विश्व में दो ध्रुव -शक्ति तंत्र (अमेरिका और सोवियत संघ) सक्रिय था। जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति में सीआईए के तत्व भी सक्रिय हैं क्योंकि अमेरिका इंदिरा गांधी को रूस-शिविर के समर्थक के रूप में देखता था। उस दौर में गुट  निरपेक्ष आंदोलन भी ख़ासा प्रभावशाली था। भारत, इसके संस्थापक सदस्यों में से एक था। ज़ाहिर है, अमेरिका की कोशिशें दिल्ली में इंदिरा सरकार को अस्थिर करके वाशिंगटन- समर्थक सरकार की स्थापना की रही होंगी! आपातकाल को लागू करने की पृष्ठभूमि में अमेरिकी तत्वों को शिक़स्त देना भी कारण रहा था। तब ऐसी अफ़वाहें भी कम नहीं थीं; विरोधियों को अमेरिकी एजेंट या रूसी एजेंट घोषित करके राजनैतिक प्रतिशोध भी लिया जाता था। सीआईए के एजेंट की अफवाहों से जयप्रकाश नारायण और सम्पूर्ण क्रांति भी घिरे रहे थे। इसमें सच्चाई भी हो सकती है, नहीं भी। किसी के पास पुख्ता सुबूत होते नहीं है। बेपैर अफवाहें दौड़ती रहती हैं। सरकार ही ऐसी अफ़वाहों की तसदीक़ कर सकती है। प्रधानमंत्री गांधी ने ऐसा किया नहीं।
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इंदिरा का ग़रीबी हटाओ नारा

अलबत्ता, इंदिरा गांधी के नेतृत्व को पूरी तरह से दोषमुक्त नहीं कहा जा सकता। मुझे 50 साल बाद भी पुख़्ता तौर पर याद है कि 1971 के चुनाव में इंदिरा जी ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर सवार हो कर सिंहासन पर बैठी थीं। उनका गगन भेदी नारा था: वे (विरोधी) इंदिरा हटाओ का नारा लगाते हैं, हम कहते हैं- ग़रीबी हटाओ!’ इस नारे के तूफ़ान से विपक्ष के अधिकांश क़िले उड़ गए और इंदिरा-नेतृत्व में कांग्रेस ने लोकसभा की क़रीब 350 सीटें जीती थीं। इस प्रचंड बहुमत के बावज़ूद, गरीबी टस -से-मस नहीं हुई थी। सामाजिक और आर्थिक विषमता गहराती गयी। उस दौर में मैंने एक लंबा लेख लिखा था- आम आदमी से कटा, आम आदमी का देश। देश में बड़े श्रमिक आंदोलन हुए। समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज़ के नेतृत्व में ‘रेल हड़ताल’ हुई थी। इस हड़ताल ने इंदिरा -सरकार को हिला कर रख दिया था। बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश सहित देश के विभिन्न भागों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी -लेनिनवादी) के नेतृत्व में क्रांतिकारी आंदोलन भी चल रहे थे। विभिन्न जेलों में क़रीब 30 हज़ार नक्सलपंथी बंद भी थे। एक जनसंगठन -अखिल भारतीय क्रांतिकारी संघ से मैं सम्बद्ध था। एक प्रकार से यह युवकों का खुला मंच था। 

सीपीआई (एमएल) की चरमपंथी वाम राजनीति के साथ हमदर्दी रखने वाले युवक इसके अनौपचारिक सदस्य हुआ करते थे। कतिपय बिंदुओं पर गंभीर मतभेद हो जाने के कारण मैं 1973 में इससे अलग हो गया और सीपीआई (मार्क्सवादी) का पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता बन गया था। मुझे पार्टी की लालझंडा यूनियन (चांदनी चौक, दिल्ली) में राजनैतिक सचिव का काम सौंपा गया था। सारांश में, इंदिरा सरकार के खिलाफ जनअसंतोष बढ़ने लगा। गुजरात में भारत नव निर्माण आंदोलन चला। बिहार में जयप्रकाश जी ने मुशहारी आंदोलन चलाया। वास्तव में, पश्चिम भारत और उत्तरी भारत में आंदोलन भड़कने लगे थे। महाराष्ट्र में 1973 के शुरू में क्रांतिकारी दलित कवि नामदेव ढसाल, दया पवार आदि के नेतृत्व में ‘दलित पैंथर आंदोलन’ का विस्फोट हुआ। मुंबई में इसमें मैंने भी शिरकत की थी। मेरे नेतृत्व में क़रीब दस दलित युवकों का एक जत्था मुंबई गया था।

इमरजेंसी के लिए कौन-कौन ज़िम्मेदार?

राष्ट्रव्यापी असंतोष की पृष्ठभूमि में विवेकशील नागरिक और सक्रिय विपक्ष की ज़िम्मेदारी सत्तापक्ष को सवालों के कठघरे में खड़ा करने की रहती है। प्रधानमंत्री होने के नाते इंदिरा गांधी अपनी ज़िम्मेदारी को न्यायसंगत ढंग से निभाने में विफल रहीं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि, उन्होंने संविधान प्रदत अधिकारों का प्रयोग किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भी इंदिरा -कैबिनेट के फ़ैसले पर मोहर लगाई थी। लेकिन, संविधान सम्मत सही होते हुए भी,  राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और काबीना मंत्रियों ने लोकतांत्रिक तक़ाज़ों व राजनैतिक नैतिकता के साथ विश्वासघात किया ही था; बाबू जगजीवनराम, हेमवती बहुगुणा, विद्याचरण शुक्ल, सिद्धार्थशंकर रे, प्रणब मुखर्जी, कमलापति त्रिपाठी, उमाशंकर दीक्षित, अर्जुन सिंह, नरसिंह राव, शंकरदयाल शर्मा जैसे दिग्गजनेता सरकार व पार्टी से सामूहिक इस्तीफ़ा दे सकते थे। युवातुर्क चंद्रशेखर, मोहन धारिया जैसे नेताओं ने भी तो विद्रोह किया था। इंदिरा गांधी पर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने का दबाव बनाना था। लेकिन, सभी सत्ता - मलाई से चिपके रहना चाहते थे। मेरी दृष्टि में, इमरजेंसी लगाने के लिए जितनी ज़िम्मेदार  इंदिरा गांधी थीं, उतने ही ज़िम्मेदार उनके वरिष्ठ साथी भी थे।

इंदिरा गांधी की घोषित इमरजेंसी के दौरान राष्ट्र अनुशासनबद्ध हुआ; सरकारी दफ्तरों में समयबद्ध कार्यशैली शुरू हुई; ट्रेनें समय से चलने लगीं; स्कूलों में शिक्षा व विद्यार्थी की उपस्थिति बढ़ी; ग्रामीण भारत में सामंती शक्तियां कमज़ोर हुईं; पुश्तैनी बंधक श्रमिक आज़ाद होने लगे; महाजन से ऋण मुक्ति होने लगी; प्राथमिक सरकारी चिकित्सालयों की स्थिति में आंशिक सुधार हुआ; भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगी जैसे सकारात्मक काम भी हुए। वस्तुगत दृष्टि में इन कामों की अनदेखी करना पूर्वाग्रह से ग्रस्त होना रहेगा। यह उजला पक्ष था। लेकिन, इमरजेंसी का दूसरा पक्ष भयावह है। काला है।
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राजनैतिक गिरफ़्तारियाँ

1975 के आपातकाल के दौरान देश भर में 1 लाख से अधिक विरोधी राजनैतिक कर्मी गिरफ्तार किये गए थे, जिनमें करीब 7 हज़ार पत्रकार व लेखक शामिल थे। एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार 1 लाख 40 हज़ार लोगों को विभिन्न धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया था। बुल डोज़र भी चले; दिल्ली में तुर्कमान गेट के पास मुस्लिम आबादी के कई मकानों को गिराया गया था। कनाट प्लेस में थिएटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग को गिराया गया। 

इसके साथ ही परिवार नियोजन अभियान के अंतर्गत ‘नसबंदी’ की आंधियां (आज के जुमले में: नसबंदी ज़ेहाद) चलीं। इसके साथ ही 80 लाख से अधिक वयस्क लोगों को नसबंदी का नज़ला झेलना पड़ा। आदिवासी क्षेत्रों में बेदर्दी के साथ नसबन्दियाँ की गई थीं। बस्तर के दंतेवाड़ा संभाग के नकुलनार क्षेत्र में रात्रि में लालटेनों की रौशनी में अनेक आदिवासियों की नसबन्दियाँ की गयी थीं। गोकि वे इंसान नहीं, जानवर हैं। कुछ के ऑपरेशन बिगड़ गए, ख़ून बहने लगा और उन्हें मध्य रात्रि में ही जीप से क़रीब 100 किलोमीटर दूर जगदलपुर स्थित ज़िला मुख्यालय अस्पताल (जगदलपुर) पहुँचाया गया था। यह सब मेरी नज़रों के सामने हुआ था। हो सकता है, किसी एक की मृत्यु भी हो गई हो! 

पत्र-पत्रिकाओं पर सेंसरशिप 

आपातकाल में दिल्ली के स्कूलों में विद्यार्थियों की नसबन्दियां करने की अफवाहें भी फैली थीं। जनता सरकार के दौरान पता चला कि उक्त ज़हरीली अफ़वाह कुख्यात अफ़वाह कारख़ाने की प्रोडक्ट थी। आपातकाल के दौरान ही बस्तर क्षेत्र में कुछ आदिवासियों ने अपनी भूमि -खेत छिन जाने के कारण आत्महत्या भी की थी। मेरी इसकी विस्तृत रपट दिनमान में प्रकाशित भी हुई थी। सारांश में, जल -जंगल -ज़मीन पर डकैतियां ज़ारी रही थीं; लिंक+पेट्रियट + इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली में रपटें छपती रही हैं। वैसे, अनेक पत्र-पत्रिकाओं को सेंसरशिप का नज़ला भी झेलना पड़ा था। इंडियन एक्सप्रेस के वरिष्ठ सम्पादक कुलदीप नैयर को ज़ेल भी जाना पड़ा। इस दैनिक पर छापा भी पड़ा था। वामपत्रिकाओं के कई पत्रकार भूमिगत हुए और जेल -यात्रा भी की थी। मेरी भी गिरफ़्तारी मीसा (मेंटेनेंस इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) के अंतर्गत होनेवाली थी। गिरफ्तारी वारंट जारी हो चुका था। लेकिन, गिरफ़्तारी से बचा रहा। वज़ह, पी.एन. हकसर, डॉ. ब्रह्म देव शर्मा, बी. एन. योगानदर जैसे वामपंथी रुझान के उच्च पदस्थ नौकरशाहों के कारण सुरक्षित रह कर बस्तर क्षेत्र में शोध प्रोजेक्ट पर काम करता रहा। एक समय ऐसा भी आया, जब रात में ही मुझे जीप में बैठा कर ज़िला बदर कर दिया गया था। इसका विस्तृत वृतांत मेरी आत्मकथा -’मैं बोन्साई अपने समय का’ में उपलब्ध है।

संजय गांधी की हठधर्मिता

आपातकाल के 20 सूत्री + 5 सूत्री कार्यक्रम के दौरान सकारात्मक कार्यक्रम भी हुए थे। लेकिन, इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी की हठधर्मी ज्यादतियों ने आपातकाल के उजले परिणामों पर पानी फेर दिया था। संजय गांधी संविधानेतर रोल निभाने लगे थे। उनमें उच्छृंखल प्रवृत्तियों की मात्रा अधिक थी। उन्होंने इंदिरा -सरकार के 20 सूत्री कार्यक्रमों के समानांतर अपने 5 सूत्री कार्यक्रम चलाये थे। परिवार नियोजन कार्यक्रम को निर्ममता के साथ लागू किया गया था। मुस्लिम मकानों पर उन्होंने बुलडोज़र चलवाये थे। कतिपय कांग्रेस मुख्यमंत्री उनकी चप्पलें उठाया करते थे। चित्र छप चुके हैं। संजय के कारनामों की वज़ह से प्रधानमंत्री मां की छवि कलंकित भी हुई थी। (लेकिन, 1980 में संजय की रणनीति ने मां इंदिरा की धमाकेदार वापसी को सम्भव भी बनाया था। जनता पार्टी की तथाकथित सम्पूर्ण क्रांति और ‘दूसरी आज़ादी खोखली’ निकली।) राजनैतिक तंत्र और नौकशाही उनकी उँगलियों पर नाचते थे। चारों तरफ़ संजय-आतंक था। इसी आतंक के परिवेश में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘India is Indira - Indira is India’ का गगनभेदी नारा उछाला था। व्यक्तिपूजा की यह पराकाष्ठा थी। (इस समय भी यही हो रहा है; प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘अवतारी’ घोषित किया जा रहा है, गृहमंत्री अमित शाह को ‘शिवजी‘ का अवतार बतलाया जाता है। मोदी जी ने 2024 के आम चुनावों में  स्वयं को ‘नॉन -बायोलॉजिकल और ईश्वर दूत‘ के रूप में घोषित किया था।)

इंदिरा गांधी के घोषित आपातकाल का परिदृश्य साफ़ था: कौन विरोधी है, कौन समर्थक, मालूम था; संविधान व मौलिक अधिकारों की दशा -दुर्दशा दिखाई देती थी; प्रेस पर सेंसरशिप की तलवार प्रकटरूप से लटकी रहती थी; विरोधी सार्वजनिक सभाओं पर पाबन्दी थी; साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं था, न ही मंदिर-मस्जिद के टंटे और न ही कोई लव -ज़िहाद या मॉब लिंचिंग; आतंकी गतिविधियाँ सुनाई दीं; बॉलीवुड फ़िल्म -शोले व जय संतोषी माँ की बॉक्सऑफिस लोकप्रियता में लोकमानस झलकता था - शोले में लम्पटी हिंसा व युवा विद्रोह, जबकि दूसरी में अंधविश्वास, भक्ति और समर्पण; दक्षिण भारत अनुशासित इंदिरा -समर्थक था, जबकि उत्तर भारत की कोख में इंदिरा विरोधी लावा पल रहा था। इस विभाजन का प्रभाव 1977 के चुनाव में दिखाई भी दिया; उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया, इंदिरा गांधी व संजय गांधी चुनाव हार गए। इसके विपरीत दक्षिण भारत में कांग्रेस ने अपने पुश्तैनी आधारों को तकरीबन बचा लिया। सारांश में, भारतीय उपमहाद्वीप में घोषित आपातकाल को ‘निर्वाचित अधिनायकवाद -प्रयोगशाला’ से परिभाषित किया जा सकता है। इसके विपरीत कुछ राजनैतिक पंडितों के मत में आपातकाल लोकतंत्र के लम्बे मार्ग में ‘लोकतान्त्रिक विपथन (अबेरशन)’ है।
(पहली कड़ी यहाँ पढ़ें: हाल ही में इमरजेंसी: घोषित आपातकाल से अघोषित आपातकाल में)