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ब्राह्मण राजनीति क्या अखिलेश के जी का जंजाल बनेगी?

2020 की शुरुआत से ही राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार यूपी की राजनीति में समाजवादी पार्टी यानी सपा को मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में देख रहे हैं। इसके लिए सपा और इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की भूमिका से ज़्यादा दलित और पिछड़ों के मानस में आ रहा बदलाव और योगी सरकार की राजनीतिक संस्कृति की भूमिका मानी जा रही है। 2017 में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बनी सरकार ने उग्र हिन्दुत्ववादी एजेंडा को ही आगे रखा।

आमतौर पर लोकतंत्र में यह माना जाता है कि चुनी हुई सरकारें समाज के सभी समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा करती हैं और लोगों की बेहतरी के लिए समानता के आधार पर काम करती हैं। लेकिन योगी आदित्यनाथ ने सत्ता में आते ही कभी बूचड़खानों के नाम पर, कभी माँस की दुकानों के नाम पर अल्पसंख्यक तबक़े को निशाना बनाया। लव जिहाद जैसे टर्म को उठाकर उन्होंने विशेषकर मुसलिम नौजवानों को लक्षित कर एण्टी रोमियो स्क्वायड का गठन किया। हालाँकि यह क़दम प्रदेश में स्त्री सुरक्षा के लिहाज़ से बेहतर साबित हो सकता था लेकिन जब नीयत में ही खोट हो तो कोई भी प्रशासनिक क़दम का असफल हो जाना स्वाभाविक है। यहाँ पर याद दिलाना आवश्यक है कि 2012-2017 की अखिलेश सरकार में 1090 टोल फ़्री नंबर स्त्री सुरक्षा के लिए बहुत कारगर साबित हुआ था। इसकी सबसे बड़ी वजह बिना किसी भेदभाव के इस मुहिम का प्रशासनिक स्तर पर कड़ाई से कार्यान्वयन था।

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योगी सरकार ने बढ़ते अपराध को रोकने के लिए एक बेहद आक्रामक 'ठोको नीति' को लागू किया। प्रदेश से अपराध को मिटाने के लिए योगी सरकार द्वारा छोटे बड़े तमाम अपराधियों का एनकाउंटर शुरू किया गया। आरोप यह लगा कि इस नीति का शिकार बना वो तबक़ा जिसके बारे में मशहूर है कि बीजेपी का वोटर नहीं है। सपा अध्यक्ष केवल ट्वीट करके विरोध जताते रहे लेकिन खुलकर योगी सरकार की ठोको नीति का विरोध करने की हिम्मत वह नहीं जुटा सके।

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव ने माहौल को भाँपते हुए मायावती के साथ गठबंधन करने के लिए हाथ बढ़ाया। दोनों साथ आए। दलित और पिछड़े बौद्धिक वर्ग ने इस गठबंधन को स्वाभाविक बताते हुए ख़ूब समर्थन किया। बड़ी-बड़ी रैलियों और राजनीतिक विश्लेषकों के विश्वास के बावजूद सपा बसपा गठबंधन बुरी तरह से पराजित हुआ। सपा को पाँच और बसपा को दस सीटें हासिल हुईं। माना जाता है कि सपा अगर अकेले चुनाव लड़ती तो उसकी सीटें दहाई में ज़रूर होतीं। इस गठबंधन में एक बार फिर से मायावती विजेता साबित हुईं।

मायावती इस तरह की माहिर राजनीतिक खिलाड़ी हैं। उन्होंने गठबंधन के साथी को हमेशा अपने रणनीतिक कौशल में चित्त किया है। संभवतया उसी समय वह गठबंधन को तोड़ने का समय और स्थिति तय कर लेती हैं।

इस गठबंधन के पीछे उनकी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी। जब यह कामयाब नहीं हुई तो लोकसभा चुनाव के कुछ दिनों के बाद ही यह आरोप लगाते हुए कि सपा का वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं हुआ, उन्होंने गठबंधन तोड़ने का एलान कर दिया।

मायावती के इस क़दम और आरोप पर अखिलेश यादव खामोश रहे। इसका फ़ायदा भी उन्हें मिला। ख़ासकर दलित और अन्य पिछड़े समाज की सहानुभूति अखिलेश यादव को मिली। इसके बाद मान्यवर कांशीराम के साथ काम करने वाले लोग और आंबेडकरवादी समूह अखिलेश यादव के साथ जुड़ने लगे। अखिलेश यादव में उन्हें एक उम्मीद दिखाई दी। सामाजिक न्याय और संवैधानिक अधिकारों पर केन्द्र और यूपी सरकार द्वारा किए जा रहे हमले का मुक़ाबला करने के लिए ये समुदाय समाजवादी पार्टी के बैनर के नीचे एकत्रित होने लगे।

अखिलेश यादव ने भी सामाजिक न्याय के लिए अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर की। पहली बार सपा कार्यालय में डॉ. आंबेडकर की फ़ोटो सुशोभित हुई। बहुजन नायक नायिकाओं की जयंतियाँ भी मनाई जाने लगीं। अपने पहले कार्यकाल में प्रमोशन में आरक्षण और त्रिस्तरीय आरक्षण को खारिज करने जैसी कई ग़लतियों को भी अखिलेश यादव ने विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया। लेकिन एक ओढ़ी हुई वैचारिकी लंबे समय तक नहीं टिक सकती। 

योगी सरकार की ‘ठोको नीति’ 

यूपी में योगी सरकार की ‘ठोको नीति’ जारी है। योगी आदित्यनाथ ने पूर्वांचल से ही अपनी राजनीतिक पारी शुरू की है। वहाँ ठाकुर बनाम ब्राह्मण की राजनीति रही है। योगी आदित्यनाथ पर यह आरोप लग रहा है कि उनके शासन में ब्राह्मणों को जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है। बाहुबली ठाकुरों पर ‘ठोको नीति’ लागू नहीं है। आरोप है कि थानेदार से लेकर एसपी-कलेक्टर जैसे पदों पर अधिकांश ठाकुर जाति के अधिकारी तैनात हैं। इससे भी ब्राह्मणों में सरकार के प्रति नाराज़गी है। बल्कि सच कहा जाए तो ब्राह्मणों की नाराज़गी का यही बड़ा कारण है। दरअसल, आज के दौर में गाँव और कस्बों की राजनीति थाना और कोतवाली से ही ज़्यादा होती है। 

ब्राह्मणों के उत्पीड़न और योगी सरकार से उनकी नाराज़गी को समाजवादी पार्टी के ब्राह्मण नेताओं ने भुनाने की जुगत में पूरे प्रदेश में परशुराम और मंगल पाण्डेय की प्रतिमाएँ लगाने की घोषणा की। ज़ाहिर है यह एलान बिना अखिलेश यादव की सहमति के संभव नहीं हो सकता।

इसके बाद यूपी की राजनीति ब्राह्मण केन्द्रित हो गई। मायावती ने ब्राह्मणों के पाले में गेंद डालते हुए एलान किया कि बसपा की सरकार बनने पर परशुराम के साथ अन्य बहुजन नायकों की मूर्तियाँ लगाई जाएँगी। यूपी कांग्रेस ने एलान किया कि उनकी पार्टी का प्रमुख चेहरा ब्राह्मण होगा। इस एलान-ए-जंग में सबसे ज़्यादा समाजवादी पार्टी की साख दाँव पर लगी हुई है।

कांग्रेस से दलित और पिछड़ों को अभी न तो विशेष मुहब्ब्त है और न ही कोई उम्मीद। रही बात मायावती की तो एक तो बहुजन समाज में पहले ही उनकी साख दरक चुकी है और दूसरी बात जो ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि पिछली सरकार में ब्राह्मणों के साथ होने के बावजूद मायावती अपने कोर एजेंडे पर कायम रही हैं। आरक्षण से लेकर दलित उत्पीड़न पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया है। लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी उनका तानाशाहपूर्ण रवैया रहा है। कांशीराम के मिशन के साथ जुड़े रहे तमाम नेताओं को उन्होंने एक-एक करके पार्टी से बाहर कर दिया।

अखिलेश और बहुजन समाज 

चूँकि अखिलेश यादव से बहुजन समाज को उम्मीदें थीं, इसलिए परशुराम आधारित उग्र ब्राह्मण राजनीति से सबसे ज़्यादा निराश भी वही हुआ। अखिलेश यादव के इस वैचारिक फिसलन को वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। इसलिए इस समाज ने खुलकर सोशल मीडिया पर अखिलेश यादव की आलोचना की। इसमें उनका कोर वोटर यादव भी शामिल हैं। अब सवाल यह है कि क्या सपा और अखिलेश यादव की सचमुच कोई विचारधारा है। ऐसा लगता है कि सपा वोट जुगाड़ू फ़ॉर्मूलाबद्ध राजनीति में आज भी विश्वास करती है। 

हालाँकि नौजवान अखिलेश यादव से ज़रूर बहुजन समाज को सामाजिक न्याय की उम्मीद रही होगी।

अब तय हो गया है कि अखिलेश यादव द्वारा डॉ. आंबेडकर की फ़ोटो पर माला चढ़ाना दरअसल दलितों के वोट को अपने पक्ष में करने का तरीक़ा है। अब ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए उनका बौद्धिक प्रकोष्ठ प्रत्येक ज़िले में परशुराम की मूर्ति लगाने जा रहा है।

आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है कि सपा के बौद्धिक प्रकोष्ठ में सिर्फ़ ब्राह्मणों को स्थान दिया गया है। ऐसा ब्राह्मणवाद तो बीजेपी जैसी पार्टी में भी संभव नहीं है। यह भी ग़ौरतलब है कि हाल ही में जारी हुई सपा के सोलह प्रवक्ताओं की लिस्ट में नौ सवर्ण हैं लेकिन एक भी दलित नहीं है।

आप यह कह सकते हैं कि सपा का पहले भी कोई मुकम्मल वैचारिक आधार नहीं रहा है। मुलायम सिंह यादव ने डॉ. राममनोहर लोहिया और उनकी समाजवादी विचारधारा को सामने रखकर एक व्यावहारिक राजनीति की। उन्होंने समाज के सभी जाति-समुदायों को अपने साथ जोड़कर राजनीतिक सफलता हासिल की। बाद के दिनों में अमर सिंह, सुब्रत राय सहारा और अमिताभ बच्चन को जोड़कर उन्होंने पार्टी को लोकप्रिय बनाने का एक नुस्खा ईजाद किया। डॉ. लोहिया के विचारों पर स्थापित पार्टी के लिए इस तरह का नुस्खा कहीं से भी तर्कसंगत नहीं था। लेकिन बिना किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के मुलायम सिंह की सफलता का राज उनकी सांगठनिक क्षमता में निहित था। उन्होंने तमाम जातियों के नेताओं को मज़बूत किया। ऐसे नेताओं ने रात-दिन मेहनत करके पार्टी को मज़बूत बनाया। सभी नेताओं के काम पर हमेशा उनकी नज़र रहती थी। मुलायम सिंह में संभावनाशील नेताओं को परखने की अद्भुत क्षमता रही है। उन्होंने पार्टी में गुटबाज़ी कभी हावी नहीं होने दी। अगर किसी नेता की कोई चुगली करता था तो वे दोनों को आमने-सामने बिठाकर बातचीत करते थे। इससे झूठी शिकायत करने वालों को कभी प्रोत्साहन नहीं मिला।

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अखिलेश यादव की सपा का दूसरा संकट सांगठनिक है। अखिलेश यादव के ज़्यादातर क़रीबी नेता उनकी ही उम्र के हैं। उनमें न तो कोई वैचारिक प्रतिबद्धता है और न उनका कोई जनाधार है। मुलायम सिंह के साथी जो वरिष्ठ नेता अखिलेश यादव के साथ हैं, वे हाशिए पर हैं और बेहद निराश भी। संगठन में विभिन्न जातियों के नेताओं को जगह मिलनी चाहिए लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। जो नौजवान पीढ़ी के नेता हैं, या तो उनके पास कोई ज़िम्मेदारी नहीं है या कोई निगरानी तंत्र नहीं है। किसी भी पार्टी की मज़बूती के लिए एक स्वस्थ निगरानी तंत्र होना ज़रूरी है। पार्टी के पदाधिकारियों को समय-समय पर काम मिलना चाहिए। इससे उनमें सक्रियता और ताज़गी बनी रहती है।

किसी भी पार्टी के संचालन के लिए एक बौद्धिक टीम भी होना ज़रूरी है। इसमें भी वही सवर्ण और नौजवान नेता शामिल हैं। इनमें से ज़्यादातर चाटुकार हैं जो किसी भी प्रकार ख़ुद को अखिलेश यादव के क़रीब बनाए रखने की जुगत में लगे रहते हैं। वे पार्टी के प्रति नहीं, बल्कि नेता के प्रति वफ़ादार हैं। इसलिए वे पार्टी फ़ोरम पर भी ग़लत क़दम की आलोचना नहीं करते। इससे पार्टी और नेता; दोनों का नुक़सान होता है। एक पार्टी में भीतरी तौर पर ही सही, लेकिन लगातार उसकी नीतियों और कार्यों का आलोचनात्मक मूल्यांकन होना ज़रूरी है।

ज़ाहिर है कि समाजवादी पार्टी आज विचारधारा और संगठन दोनों स्तर पर संकट में दिखाई दे रही है। लेकिन आगामी चुनाव में उसकी मज़बूत दावेदारी को क़तई नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सपा की सबसे मज़बूत कड़ी उसके जुझारू कार्यकर्ता हैं। नौजवानों को आज भी सपा की राजनीति पसंद है। ख़ासकर विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे और राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी नौजवान सपा के साथ जुड़ना पसंद करते हैं। इसका एक कारण पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का नौजवान होना भी है। अखिलेश यादव का मिलनसार और मृदुभाषी व्यक्तित्व भी नौजवानों को आकर्षित करता है। अब देखना यह है कि वैचारिक और सांगठनिक संकट को पार्टी किस ढंग से हल करती है। अथवा योगी सरकार की विफलता और उसके प्रति लोगों की नाराज़गी के सहारे तथा विकास की राजनीति के मुद्दे पर ही सपा 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव लड़ेगी।
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रविकान्त
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