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यूपी चुनाव: इस महाभारत में कौरव सभी हैं, पांडव कोई नहीं!

राजनेताओं की मानसिकता से लगता है कि वो चाहे कोई धर्म हो या जाति, उसके मानने वालों को अपना बंधुआ समझते हैं और यह भी मानते हैं कि वोटर अपनी परेशानियों से दूर रह कर धर्म और जाति के नाम पर ही वोट देगा। महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ विकास जैसे मुद्दे बेमायने हैं। 
विजय त्रिवेदी

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का एलान होने के साथ ही ना केवल लोकतंत्र में भरोसा रखने की राजनीतिक लड़ाई शुरु हो गई है बल्कि इसके साथ ही राजनीति में धर्मयुद्ध के लिए भी राजनीतिक सेनाएं तैयार हो गई हैं। धर्म के नाम पर होने वाला छद्म युद्ध, खुद को धर्माधिकारी, धर्म के रक्षक साबित करते राजनेता और उनके पीछे-पीछे जयकार करते भक्त कार्यकर्ता। इसमें कौन कौरव है, कौन पांडव, यह भेद बचा ही नहीं है, हर कोई कौरव की तरह किसी को एक इंच राजनीतिक जगह देने को तैयार नहीं। 

यहां सिर्फ एक भीष्म पितामह नहीं है, बहुत है, हर कोई सत्ता के सिंहासन से बंधा, लेकिन उनके लिए शूल शैया नहीं है, उन्हें सत्ता के सिंहासन के करीब होने की गर्माहट मिल रही है।

धर्मो रक्षति रक्षित:  यानी जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। महाभारत और मनुस्मृति के इस श्लोक का अब राजनीतिक मायने है कि जो हमारी रक्षा कर सके वही धर्म है।  क्या आपने यह पूरा श्लोक पढ़ा है-

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।

तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।

‘‘जो पुरूष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है । इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए। लेकिन अब अर्थ और ज़रूरतें बदल गई हैं।

यूं तो इस छद्म युद्ध की सुगबुगाहट चुनावों के एलान से पहले ही हो चुकी है, जब सभी राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक केंचुली से विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, महंगाई जैसे अहम मुद्दों को फेंक चुके हैं।

वोटों की सियासत

अब सिर्फ़ जाति और धर्म बचा है यानी अब वोटर और उसकी परेशानियां मुद्दा नहीं होंगी। अब राजनीतिक दल को सिर्फ़ यह याद दिलाना है कि आपका धर्म क्या है, आपका मजहब क्या है, आपकी जाति क्या है, क्या आप सवर्ण है और दूसरा राजनीतिक दल आपको नज़रअंदाज़ कर रहा है या आप निचली जाति से हैं, पिछड़ी जाति से हैं, इसलिए अगड़ी जाति वाले नेता आपकी परवाह नहीं करते या फिर आप अल्पसंख्यक है, इसलिए आपको एकजुट होना है। एकमुश्त वोट देना है। 

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क्या आपको याद नहीं कि आपका मजहब, आपका धर्म खतरे  में है, आपकी जाति को आरक्षण का फायदा अब तक नहीं मिला है, आपके आगे बढ़ने में आपका अगड़ी जाति का होना बाधक है। मजहब और जाति का यह नशा किसी भी दूसरे नशे से ज़्यादा ताकतवर है, मज़ा देने वाला है और फिर इसकी सज़ा भी नहीं मिलती।

साल 1990 में जब बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथयात्रा निकाली तो विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंहल ने कहा कि यह रथयात्रा सिर्फ़ मंदिर निर्माण के लिए नहीं है, बल्कि इसका मकसद हिन्दू एकता है यानी बीजेपी को लगता था कि यदि हिन्दू एकता की बात ज़ोर शोर से नहीं हुई तो फिर वोटर जाति और दूसरे मुद्दों के आधार पर बंट जाएगा, उसका नुकसान हुआ भी और 1993 में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी सरकार नहीं बना पाई जबकि उसने धर्म पर जोर दिया था, हिन्दू धर्म के सपने को पूरा करने का वादा किया था। 

अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का काम किया जा रहा है। इसके साथ अयोध्या के विकास की बड़ी योजना है। शहर का स्टेशन भी मंदिर के मॉडल पर बनाया जा रहा है, राम राज्य की बातें होने लगी हैं, लेकिन बात यहां नहीं रुकी।

अयोध्या के बाद बीजेपी सरकार ने वाराणसी में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का काम भी पूरा कर लिया, उसका उदघाटन प्रधानमंत्री ने कर दिया । और अब कुछ नेताओं ने कहा कि मथुरा की तैयारी है तो इसके जवाब में किसी नेता को भगवान श्रीकृष्ण स्वयं स्वप्न में आ गए और कहा कि ‘हे यदुवंशी अगली बार तुम्हारी ही सरकार बनेगी।’

अयोध्या से लेकर काशी तक मंदिर निर्माण और धार्मिक स्थानों के पुनर्द्धार और पुनर्निर्माण पर जोर दिया जा रहा है। जब लोग यह समझ रहे थे कि बीजेपी के लिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण उसका राजनीतिक एजेंडा है और कुछ लोग यह भी मान रहे थे कि अब बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद ये यह मुद्दा खत्म हो जाएगा, तब अयोध्या से काशी विश्वनाथ कॉरिडोर तक का काम पूरा हो गया। विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यवाहक अध्यक्ष आलोक कुमार ने मुझे कहा कि अभी परिषद का फोकस सिर्फ अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पर है, मथुरा हमारे एजेंडा पर नहीं है, लेकिन  उत्तरप्रदेश में कुछ लोग अपनी राजनीतिक ज़रूरतों के लिए बार-बार मथुरा का ज़िक्र करने लगे हैं। यह मसला सिर्फ बीजेपी का नहीं है। 

Hindu politics in UP election 2022 - Satya Hindi

ओवैसी का बयान 

उत्तर प्रदेश में नई राजनीतिक एंट्री लेने वाले असद्दुदीन औवेसी जब  प्रधानमंत्री से यह सवाल करते हैं  कि क्या उनकी पार्टी की यूपी सरकार भड़काऊ भाषण देने वालों के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई करेगी, वहां तक तो ठीक है, लेकिन उनका गुस्सा बढ़ता जाता है और आरोप है कि वो धमकी देते हैं अपने भाषण में कि “मोदी-योगी आने के बाद तुम्हें कौन बचाएगा”, तो क्या इस स्तर पर राजनीति पहुंच जाएगी। 

हरिद्वार में कथित धर्म संसद में हुए विवादास्पद बयान के बावजूद कोई गिरफ्तारी नहीं होना नेतृत्व की कमजोरी नहीं, राजनीति की मजबूरी है।

औवेसी को बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने ट्विटर पर जवाब दिया, “किसे धमका रहे हो मियां, याद रखना जब-जब इस वीर भूमि पर कोई औरंगजेब और बाबर आएगा, तब-तब इस मातृभूमि की कोख से कोई ना कोई वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप और मोदी-योगी बन कर खड़ा हो जाएगा।”

इससे पहले उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा कि “2017 से पहले उत्तरप्रदेश में जालीदार टोपी वाले लुंगी छाप गुंडे घूमते थे।” उससे पहले मौर्य ने मथुरा की तैयारी का बयान दिया था। योगी सरकार के मंत्री रघुराज सिंह ने कहा था कि मदरसों से आतंकी निकलते हैं और अगर भगवान ने उन्हें मौका दिया तो वो सारे मदरसों को बंद कर देंगे। 

लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और केन्द्रीय मंत्री रहे सलमान खुर्शीद आरएसएस या दूसरे संगठनों की तुलना बोकोहरम या आईएसआईएस करते हैं या समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान हर दिन हिन्दुओं के ख़िलाफ़ बयान देते रहते हैं।

कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कमान संभालने वाली महासचिव प्रियंका गांधी का फोकस भी मंदिरों से दूर नहीं है और वो शायद ही कोई मौका छोड़ती हों जब किसी दौरे पर या किसी शहर में वहां मंदिर नहीं जाती हों। 

गंगा में स्नान, प्रयागराज से वाराणसी तक की नाव यात्रा और भी ऐसे कार्यक्रम हैं जो धर्म से जुडे हुए हैं।  प्रियंका गांधी वाड्रा बार-बार यह साबित करना चाहती हैं कि वो ही असली हिन्दू हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो खुद को असली हिंदू बताते हुए हिंदू और हिंदूत्ववादी की नई बहस शुरु कर दी है। 

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जिन्ना भी आए 

इसके साथ ही अब प्रदेश में कमोबेश हर मौके पर या जनसभा में मौहम्मद अली जिन्ना का जिक्र होने लगा है, कुछ लोगों को जिन्नावादी कहा जाने लगा है, जिन्नावादी यानी पाकिस्तानी यानी देश विरोधी। वैसे इस जिन्ना मुद्दे की शुरुआत समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने की थी। यादव ने एक कार्यक्रम में जिन्ना और सरदार पटेल की तुलना कर दी, तब से यह मुद्दा रुकने का नाम ही नहीं ले रहा।

ऐसा नहीं है कि चुनावी राजनीति में धर्म का इस्तेमाल पहली बार हो रहा है। हाल में ही पश्चिम बंगाल के चुनावों में भी खुलेआम राजनीतिक दलों और नेताओं ने धर्म का इस्तेमाल किया। 

अपने भाषणों में एक दूसरे धर्म को निशाना बनाया, लेकिन चुनाव आयोग ने शायद ही कोई कार्रवाई की हो। यह अलग बात है कि राजनीतिक दल धर्म के राजनीति में इस्तेमाल का विरोध करते दिखाई देते हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा इस्तेमाल धर्म का ही किया जाता है चाहे वो धर्म को गाली देकर हो या जयकार करके।

यूपी में साल 2017 के चुनाव में बीजेपी की जीत का बड़ा श्रेय पश्चिमी उत्तरप्रदेश को जाता है, जहां जाटों और किसानों ने बीजेपी का साथ दिया। तब बीजेपी को वहां 136 में से 109 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।
इस बार इसी इलाके में सबसे ज़्यादा असर किसान आंदोलन का रहा है, खासतौर से सहारनपुर मंडल की 38 सीटों पर उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसके साथ ही इसी इलाके में अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी के साथ हाथ मिला लिया है, जिनका जाट समुदाय पर खासा असर माना जाता है। यह भी बीजेपी के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। 

मथुरा मुद्दा 

श्रीकृष्ण जन्मभूमि को लेकर हाल में वृंदावन में भी संत समाज की एक बैठक हुई थी, लेकिन फिलहाल कोई आंदोलन चलाने का निर्णय नहीं किया गया। नब्बे के दशक में जब देश में राम जन्मभूमि विवाद गर्माया हुआ था, तब कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने  1991 में संसद से the Places of Worship (Special Provisions) Act पास किया था। इस कानून के मुताबकि अयोध्या में राम जन्मभूमि को छोड़कर दूसरे  विवादित पूजा स्थलों को 15 अगस्त 1947 की यथास्थिति में कायम रखा जाएगा। 

इससे जुड़े मसलों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी और दूसरे पूजा स्थलों को लेकर अगर कोई विवाद अदालत में चल रहा था तो उसे खारिज माना जाएगा। 

सुप्रीम कोर्ट ने साल 2019 में जब राम जन्मभूमि विवाद पर फ़ैसला सुनाया था, तब भी अपने फ़ैसले में इस क़ानून का ज़िक्र किया था और कहा कि इस तरह के विवादित मामलों पर अब अदालतों में सुनवाई नहीं की जाएगी। इस क़ानून को ही बीजेपी के एक नेता ने चुनौती दी है, उनकी याचिका को  सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया। अब यदि सुप्रीम कोर्ट इस क़ानून को रद्द करता है या सरकार को फिर से विचार के लिए कोई आदेश देता है तो इसका मायने है कि विवादित पूजास्थलों के मसलों को फिर से खोला जा सकता है और अदालत उनकी सुनवाई कर सकती है।

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ब्राह्मणों को रिझाने की कोशिश 

राम मंदिर, भगवान विश्वनाथ और श्रीकृष्णजन्मभूमि के नारों के बीच अब भगवान परशुराम भी आ गए हैं। भगवान परशुराम को ब्राह्मणों को रिझाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। परशुराम को भी भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। कहा जाता है कि परशुराम ने अन्याय के खिलाफ़ बहुत से क्षत्रिय राजाओं की अपने फरसे से हत्या कर दी थी यानी राजनीति में उनका इस्तेमाल राजपूत बनाम ब्राह्मणों के लिए किया जा रहा है। 

सबसे पहले बीएसपी नेता मायावती ने परशुराम और फिर ब्राह्मणों के प्रबुद्ध सम्मेलन शुरु किए। बीएसपी को तो 2007 में ब्राह्मण- दलित के सामाजिक समीकरण से बहुमत वाली सरकार बनाने का मौका मिला था। 

इस बार समाजवादी पार्टी ने भगवान परशुराम को याद किया है, उनकी मूर्तियां लगाने का वादा किया है। खुद अखिलेश यादव अपनी  विजय यात्रा के दौरान भगवान परशुराम की प्रतिमा की पूजा करके और फरसा लेकर घूमते दिखाई दिए। 

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पिछड़ी जातियों की सियासत

पिछड़ी जातियों के लिए राजनीति का अलग चक्र चल रहा है ,जहां बीजेपी अपने सामाजिक समीकरणों को फिर से दुरस्त करने की कोशिश में है तो समाजवादी पार्टी ने यूपी के बहुत से छोटे छोटे दलों को अपने साथ कर लिया है, हालांकि उन दलों के नेताओं की गारंटी नहीं दी जा सकती कि वे चुनाव नतीजों के बाद किसके साथ खड़े दिखाई देंगें, क्योंकि उनके लिए सिर्फ सरकार में रहना सबसे महत्वपूर्ण है। 

बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती को लगता है कि उनके साथ रहने वाला पिछड़ी जातियों का करीब 20 फीसदी वोट कहीं खिसकने वाला नहीं है, इसलिए आश्वस्त बताई जाती हैं।

पीछे छूटे मुद्दे

राजनेताओं की इस मानसिकता से लगता है कि वो चाहे कोई धर्म हो या जाति उसके मानने वालों को अपना बंधुआ समझते हैं और यह भी मानते हैं कि वोटर अपनी परेशानियों से दूर रह कर धर्म और जाति के नाम पर ही वोट देगा। महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ विकास जैसे मुद्दे बेमायने हैं। 

मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चन्द्रा ने कहा कि यह लोकतंत्र का त्यौहार है और सबकी भागीदारी से ही इसे बेहतर तरीके से मनाया जा सकता है तो क्या हम त्यौहारों पर नई सजावट के साथ पुरानी सोच को बदल कर भी नेताओं को जवाब दे सकते हैं? 

मुझे उम्मीद है कि वोटर से ज़्यादा समझदार कोई नहीं और उसके मौन को स्वीकृति मानने की भूल करने वालों को चुनाव नतीजों के बाद शायद चुप्पी ओढ़नी पड़े।

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