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ममता बनर्जी बनेंगी प्रतिपक्ष की एकता की नई धुरी!

विपक्ष निर्बल होता गया था और प्रतीक स्वरूप बेहद मज़बूत और जुझारू राजनेता का अकाल होता गया था। यह अकाल पाँच राज्यों के चुनाव के बाद समाप्त होता दिखाई दे रहा है। बंगाली मतदाताओं ने सिर्फ़ अपने राज्य की नई सरकार ही नहीं चुनी है बल्कि ममता बनर्जी को प्रतिपक्ष का राष्ट्रीय चेहरा भी बना दिया है। समूचा देश अब उन्हें संयुक्त विपक्ष के मुखर स्वर के रूप में देख सकता है।
राजेश बादल

भारतीय लोकतंत्र में कुछ समय से विपक्ष की भूमिका कमज़ोर होती दिखाई दे रही थी। राजनीतिक क्षेत्रों में सवाल उभरने लगा था कि मौजूदा सियासी दौर में पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच संतुलन की डोर बारीक़ होती जा रही है। पिछले दो आम चुनाव से भारतीय जनता पार्टी सरकार चलाने वाली एक मज़बूत पार्टी के रूप में तो देश के सामने थी, लेकिन विपक्ष के तौर पर चुनाव दर चुनाव कांग्रेस का लगातार दुर्बल होना जम्हूरियत के लिए शुभ नहीं माना जा रहा था। अन्य क्षेत्रीय दल भी इसमें कोई सहयोग नहीं कर रहे थे। उनकी अपनी आंतरिक संरचना एक तरह से अधिनायकवाद की नई परिभाषा ही गढ़ रही थी। लेकिन कोरोना के भयावह काल में पाँच प्रदेशों की विधानसभाओं के निर्वाचन से हिंदुस्तानी गणतंत्र को ताक़त मिली है। 

हालाँकि अवाम का बड़ा तबक़ा इन परिस्थितियों में चुनाव कराने के फ़ैसले को उचित नहीं मानता था। काफ़ी हद तक मेरी अपनी राय भी यही थी। पर, शायद कोई नहीं जानता था कि इन चुनावों के परिणाम एक बड़ी समस्या के समाधान की दिशा में देश को ले जा सकते हैं।

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दरअसल, आज़ादी के बाद इस राष्ट्र के संवैधानिक ढाँचे की यही ख़ूबसूरती स्थापित हुई है कि लंबे समय तक तानाशाही के बीज इसमें पनप नहीं पाते। सत्तर के दशक में जब कांग्रेस पार्टी की शक्ल में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी सर्वशक्तिमान थीं तो ऐसा महसूस होने लगा था कि इस देश में प्रतिपक्ष खंड-खंड होकर बिखरता जा रहा है। उन दिनों भी सियासी पंडित लोकतंत्र की दुहाई देते नहीं थकते थे। तभी आपातकाल के मंथन से जयप्रकाश नारायण और चंद्रशेखर जैसे नायक निकले और भारत आश्वस्त हो गया। 

इसके दस बरस बाद फिर एक बार ऐसा लगा कि राजीव गाँधी की अपार लोकप्रियता की आंधी में विपक्ष कृशकाय और बौना हो गया है तो विश्वनाथ प्रताप सिंह और देवीलाल की अगुआई में उनकी टोली ने एक बार फिर प्रतिपक्ष को प्रतिष्ठित किया। इसके बाद अस्थिरता के दौर में अटलबिहारी वाजपेयी ने नई सदी में लोकतंत्र की मौलिक परिभाषा लिखी। मुल्क ने पार्टियों के ढेर को सामूहिक नेतृत्व करते देखा। दस बरस तक यूपीए का प्रयोग अपने आप में गठबंधन के ज़रिए इसी मशाल को आगे ले जाता दिखा।

मुश्किल तो सात-आठ साल पहले आई, जब भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में मज़बूत सरकार बनाई। लोकप्रियता के आठ घोड़ों पर सवार होकर नरेंद्र मोदी आए और देखते ही देखते भारतीय परिदृश्य पर छा गए। उसके बाद के कुछ बरस विपक्ष के निरंतर बारीक़ और महीन होते जाने की दास्तान है। बीजेपी कांग्रेस विहीन भारत के नकारात्मक विचार को लेकर आई, जो लोकतंत्र की भावना के ख़िलाफ़ था। सत्तारूढ़ पार्टी ने मान लिया था कि अगर एक ताक़तवर कांग्रेस भारतवर्ष में रही तो बीजेपी के लिए हमेशा विकल्प बनी रहेगी। इसलिए उसने पहले दिन से ही अपने विध्वंसक कार्यक्रम के ज़रिए कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के प्रयास शुरू कर दिए। इस प्रयास में उसका अपना कायांतरण भी ख़ामोशी से हो गया। 
बीजेपी के शिखर पुरुषों को पता ही नहीं चला कि कब उनकी पार्टी ख़ामोशी से कांग्रेस पार्टी में तब्दील हो गई। यानी वह पक्ष और विपक्ष दोनों ख़ुद ही बन बैठी थी। लोकतंत्र ठगा सा महसूस करता रह गया।

इसी दौर में बीजेपी ने विपक्ष के मामले में एक और क़दम उठाया। उसने कांग्रेस के विसर्जन का तो पूरे इंतज़ाम कर दिया, साथ ही नए-नए दलों और छोटी पार्टियों को प्रतिपक्ष के रूप में उभारना प्रारंभ कर दिया। आम आदमी पार्टी इसी क़वायद का नतीज़ा थी। लेकिन जब बीजेपी ने इसी पार्टी से हार की हैट्रिक बनाई तो ख़तरे का अहसास हुआ और उप राज्यपाल को अधिक अधिकार देकर अरविन्द केजरीवाल के पर कतरने में देर नहीं लगाई। आपको याद होगा कि अरविन्द केजरीवाल को भी यह देश एक बार विपक्ष के संयुक्त प्रतीक के रूप में देखने लगा था। लेकिन केजरीवाल ने अपनी हरकतों से ही अपनी पोल खोल दी कि वे सिर्फ़ मुख्यमंत्री के लायक ही हैं। प्रधानमंत्री के संभावित प्रत्याशी के रूप में यह देश उनको नहीं देखता। 

mamata banerjee as opposition candidate after state assembly polls - Satya Hindi

इस तरह सात साल में बीजेपी चक्रवर्ती भाव से ग्रस्त हो गई। विपक्ष निर्बल होता गया और प्रतीक स्वरूप बेहद मज़बूत और जुझारू राजनेता का अकाल होता गया।

यह अकाल पाँच राज्यों के चुनाव के बाद समाप्त होता दिखाई दे रहा है। बंगाली मतदाताओं ने सिर्फ़ अपने राज्य की नई सरकार ही नहीं चुनी है बल्कि ममता बनर्जी को प्रतिपक्ष का राष्ट्रीय चेहरा भी बना दिया है। समूचा देश अब उन्हें संयुक्त विपक्ष के मुखर स्वर के रूप में देख सकता है। यह सच है कि ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के लिए अब तक का यह बेहद कठिन चुनाव था। अगर बीजेपी ने अत्यंत धारदार, आक्रामक, उत्तेजक और निंदनीय प्रचार अभियान चलाया तो ममता बनर्जी को भी उसी तर्ज़ पर उतने ही निचले स्तर पर जवाबी अभियान चलाना पड़ा।

बंगाल में बसे उत्तर प्रदेश और बिहार के मतदाताओं को लुभाने के लिए बीजेपी ने यदि राम का सहारा लिया तो ममता ने भी अपनी दुर्गा भक्ति दिखाने से गुरेज नहीं किया।
दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाले मुहावरे पर अमल करते हुए ममता ने कमोबेश सारे दलों से सहयोग की प्रार्थना भी कर डाली। उन्होंने सीधे ही कांग्रेस और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से बात की, जिन्होंने वाम दलों को भी इस घड़ी में परदे के पीछे से तृणमूल कांग्रेस का साथ देने के लिए मनाया। आपको याद होगा कि तीसरे चरण के बाद कांग्रेस और वामपंथी दलों ने अपने प्रचार अभियान में शिथिलता बरती और न के बराबर रैलियाँ की थीं। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो कोरोना के नाम पर अपनी सारी रैलियाँ ही रद्द कर दीं। इसके बाद मतदान और मतगणना के दरम्यान अनेक केंद्रों पर कांग्रेस - वाम गठबंधन के प्रतिनिधि ही नदारद रहे। ममता बनर्जी को यह राजनीतिक उपकार हमेशा याद रखना ही होगा।
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ममता बनर्जी के रूप में प्रतिपक्ष को एक नई राष्ट्रीय धुरी मिली है। इसे स्वीकार करने से कोई इंकार नहीं कर सकता। हालाँकि उनके राजनीतिक सफर के साक्षी यह जानते हैं कि ममता बनर्जी के अंदर भी एक ज़िद्दी तानाशाह छिपा है। वे मिजाज़ से फ़कीर क़िस्म की लोकतान्त्रिक प्रधानमंत्री कभी नहीं बन सकतीं। वर्तमान सिलसिले में उन्होंने लोहे को लोहे से काटने का हुनर सीख लिया है। बंगाल का चुनाव तो उनके लिए नई चुनौती और अवसर बनकर आया है। अगर वे इस कसौटी पर खरी उतरती हैं तो इस देश का विपक्ष उनकी राह में फूल ही बिछाएगा। बस उन्हें अपने आप को वक़्त के साथ साबित करना है।

(साभार - लोकमत समाचार)

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