फोटो साभार : एक्स/@myo2s2
भारत में हीटवेव, सूखा और बाढ़ जैसी एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स से कई जानें जा चुकी हैं, लेकिन सत्ता में बैठे लोग ज़मीन पर राहत देने के बजाय इतिहास की कब्रें खोदने में व्यस्त हैं। क्या यही है प्राथमिकता?
औरंगज़ेब का शासन, कार्य और सोच आज से 300 साल पुरानी बात हो गई है, इसके बाद भी औरंगजेब की कब्र को उखाड़ फेंकने के लिए ‘कुछ लोग’ इतने आतुर दिख रहे हैं, जैसे आज के प्रशासन के पास और कोई भी यथार्थवादी काम बचा ही न हो। जलवायु परिवर्तन आज का सबसे बड़ा यथार्थ है, जो देश की खाद्य सुरक्षा और लगभग 70% ग्रामीण आबादी के भविष्य को नष्ट करने पर आमादा है, जलवायु परिवर्तन आज भारत की लगभग सारी आबादी के लिए सबसे ज़रूरी विषय है लेकिन उस पर चर्चा, विचार करने के लिए ना ही सरकार तैयार है और न ही वे ‘कुछ लोग’ जिनका अस्तित्व औरंगज़ेब पर टिका हुआ है।
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के अनुरूप चरम मौसमी घटनाएँ (एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स) अपना असर लगभग प्रतिदिन दिखा रही हैं। बीते दो दिनों में आये आँधी-तूफ़ान, बारिश, ओलावृष्टि और बिजली गिरने की घटनाओं से बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में कम से कम 102 भारतीयों की मौत हो चुकी है। इसमें सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाला राज्य बिहार है, जहाँ इस साल विधानसभा चुनाव भी हैं लेकिन मजाल है कि सत्ता-विपक्ष का कोई भी नेता जलवायु परिवर्तन को चुनावी मुद्दा बनाकर बात करे। भारतीय नेताओं की अक्षमता, अदूरदर्शिता और जनमानस का ‘जेही विधि राखे राम तेही विधि रहिए’ वाला बोरिंग दृष्टिकोण इस देश को भयानक नुकसान पहुँचाने वाला है।विशेषज्ञ और संवेदनशील, सतर्क लोग लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से बिजली गिरने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो रही है और आगे भी होगी, असमय बारिश खेतों में खड़ी फ़सल को बर्बाद करने का काम कर रही है और इससे देश की खाद्य सुरक्षा की रीढ़ टूट सकती है। खाद्य सुरक्षा ख़तरे में आई तो देश भुखमरी, बीमारी और अस्थिरता की ओर लुढ़क सकता है। विशेषज्ञों के मुताबिक़ वर्ष 2024 में बिजली गिरने की वजह से 1900 लोगों की जान चली गई थी। आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2010 के बाद से जलवायु परिवर्तन के कारण बिजली गिरने की घटनाओं में अत्यधिक वृद्धि हुई है।
जर्मनवॉच, बॉन (जर्मनी) स्थित एक ग़ैर-लाभकारी और ग़ैर-सरकारी अंतरराष्ट्रीय संगठन है जो 2006 से हर साल ‘क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स’ यानी सीआरआई जारी करता है। यह सूचकांक देशों को बाढ़, तूफ़ान और हीट वेव जैसी चरम मौसमी घटनाओं से होने वाले मानवीय और आर्थिक नुक़सान के आधार पर रैंक करता है। 2025 के सीआरआई में भारत को दुनिया का छठा सबसे अधिक प्रभावित देश बताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के फलस्वरूप अकेले भारत में लगभग 80 हज़ार लोगों की मौत हुई है (1993-2022), जबकि इसी दौरान पूरी दुनिया में इस वजह से लगभग 7 लाख 65 हज़ार लोगों की मौत हुई है, मतलब यह कि भारत जलवायु परिवर्तन जनित वैश्विक मौतों के 10% के लिए ज़िम्मेदार है या कहें भुक्तभोगी है। इस दौरान भारत को लगभग 180 बिलियन डॉलर यानी 15 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक नुक़सान भी उठाना पड़ा है। यदि भारत और भारतीय नहीं सचेत हुए और सरकारों से जलवायु परिवर्तन पर सवाल नहीं पूछे, दबाव नहीं डाला, इन्हें दैवीय घटनाओं की तरह देखना बंद नहीं किया तो और अधिक आर्थिक और मानवीय नुक़सान उठाना पड़ेगा।
एशिया-पैसिफिक क्लाइमेट चेंज रिपोर्ट-2024 के अनुसार, यदि ऐसे ही चलता रहा तो 2070 तक भारत की जीडीपी को लगभग 25% का नुक़सान होना तय है। अगर किसी को लगता है कि यह सब ऐसी ‘भविष्यवाणी’ है जो कभी सच नहीं होगी तो उन्हें डेलावेयर विश्वविद्यालय की उस रिपोर्ट को पढ़ना चाहिए जो कहती है कि सिर्फ़ 2022 में ही भारत को उसकी जीडीपी के 8% का आर्थिक नुक़सान इन्हीं चरम मौसमी घटनाओं की वजह से हो चुका है।
एक बात समझना ज़रूरी है कि जो कुछ भी हो रहा है वह अचानक नहीं है। विज्ञान और वैज्ञानिक लगातार भारत समेत पूरी दुनिया को चेतावनी दे रहे हैं।
लेकिन कहीं कोई ‘बलजिंदर’ है तो कहीं कोई ‘धीरेन्द्रशास्त्री’ जो भारत के लोगों की वैज्ञानिक चेतना को नष्ट कर रहे हैं और लोगों को अंधविश्वास की ओर धकेलने में लगे हैं। इसकी वजह से हर दुर्घटना की व्याख्या बस ‘होनी थी हो गई’ जैसे निम्नस्तरीय निर्बुद्धि आयामों तक सीमित रह जाती है। जबकि असलियत यह है कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित जो कुछ भी घटित हो रहा है उसे लेकर 1968 से क्लब ऑफ़ रोम जैसे संगठन अपनी रिपोर्ट-‘लिमिट्स टू ग्रोथ’ (1972)- और बाद के वर्षों में UNFCCC जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन अपने वार्षिक प्रयासों के माध्यम से भविष्य की दुनिया को आगाह करते रहे हैं। 2024 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) की रिपोर्ट क्लाइमेट इंडिया 2024: एन असेसमेंट ऑफ़ एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स में बताया था कि भारत ने 2024 के पहले नौ महीनों में 93% दिनों (274 में से 255 दिन) पर चरम मौसम की घटनाओं-हीट-वेव, बाढ़, बिजली गिरना और भूस्खलन- का अनुभव किया। यह आँकड़ा 2022 और 2023 के दिनों से काफ़ी ज़्यादा था। 2024 में इन घटनाओं की वजह से 3,238 लोगों की मौत हुई, 32 लाख हेक्टेयर की फ़सल प्रभावित हुई, और 2 लाख से अधिक घर नष्ट हो गए थे।
जलवायु विशेषज्ञों ने 2025 में सामान्य से अधिक तापमान और गर्मी की लहरों की भविष्यवाणी की है, खासकर शुरुआती महीनों में। आईएमडी ने 2025 में जल्दी गर्मी शुरू होने की भविष्यवाणी की है, जोकि सच होता हुआ भी दिखाई दे रहा है। सीएसई की स्टेट ऑफ़ इंडियाज एनवायरनमेंट 2025 रिपोर्ट में चेतावनी साफ़ है कि इस साल, 2025 में इन घटनाओं का दौर ना सिर्फ़ जारी रहेगा बल्कि ऐसी घटनाओं की आवृत्ति, तीव्रता और अवधि भी बढ़ेगी। पर्यावरणविद सुनीता नारायण की मानें तो बहुत जल्दी ही ऐसी घटनाएँ अब ‘नियो नॉर्मल’ अर्थात "नया सामान्य" बन जाएंगी, या बन गई हैं।
वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन और क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया कि जलवायु परिवर्तन से 2024 में वैश्विक स्तर पर भीषण गर्मी के 41 अतिरिक्त दिन जुड़ गए। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत इसमें सबसे अधिक प्रभावित देशों में से एक था। यदि ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुँचती है—जो 2040 तक संभव है— तो केरल जैसे क्षेत्रों में हर साल भारी बारिश की घटनाएँ बार-बार हो सकती हैं, संभावना है कि ऐसा 2025 में ही शुरू हो जाए। वायनाड जैसी घटनाओं की आवृत्ति बढ़ सकती है। पूर्वोत्तर भारत जो मोदी सरकार की लचर नीतियों की वजह से बेहाल और अस्थायी होता जा रहा है, यहाँ जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। सवाल यह है कि जो सरकार सैकड़ों लोगों की सीधी मौत पर ध्यान नहीं देती वो जलवायु परिवर्तन से होने होने वाली मौतों पर क्या कोई एक्शन लेगी? मुझे संदेह है!
उत्तराखंड जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझ रहा है लेकिन राज्य का ‘डबल इंजन’ बस एक धर्म विशेष के लोगों के ख़िलाफ़ माहौल बनाने में लगा हुआ है। यहाँ मौसम अपना क़हर बरपा रहा है, सबकुछ ख़बरों से नदारद है। सिर्फ़ 10 और 11 अप्रैल को ही सामान्य से इतनी अधिक बारिश हुई है कि तथाकथित ‘ऑल वेदर रोड’ किसी काम के नहीं रह गए हैं।
उत्तराखंड में 10 अप्रैल को सामान्य से 427 प्रतिशत और 11 अप्रैल को सामान्य से 869 प्रतिशत ज़्यादा बारिश हुई। अगर टिहरी, अल्मोड़ा और चमोली जिलों की बात करें तो इन दो दिनों में ही यहाँ सामान्य से 1000 से 4000 प्रतिशत तक ज्यादा बारिश दर्ज की गई। यह सचमुच भयावह है!
एक धर्म विशेष को सबक सिखाने के चक्कर में सरकार संविधान प्रदत्त अपना दायित्व भूल चुकी है। सरकार को बताना चाहिए कि इस साल चरम मौसमी घटनाओं से निपटने के लिए, राज्य के लोगों की जान-माल की सुरक्षा के लिए उसके पास क्या योजना है? साथ ही यह भी कि यह योजना पिछले वर्ष की योजना से कैसे भिन्न और उन्नत है?
अनगिनत मौतों, लाखों हेक्टेयर खेती बर्बाद होने, विभिन्न नई बीमारियों के आगमन और ऐसी अन्य चुनौतियों के बीच भारत में एक पावरफुल वर्ग है जो धर्म के धंधे से पैसे की उगाही करना चाहता है। यह वर्ग भारत की असली सांस्कृतिक विरासत में घृणा, नफ़रत, भेदभाव का ज़हर डालकर ‘रुहअफ़ज़ा ज़िहाद’ का भ्रम फैला रहा है, अपनी कंपनी का शर्बत बेचने के लिए विज्ञापन को भी धार्मिक घृणा का चोला पहनाकर अरबों कमाने की चाह रख रहा है।
लेकिन लोगों को नहीं भूलना चाहिए कि भारत की संस्कृति “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” अर्थात् "पृथ्वी हमारी माता है, मैं पृथ्वी की संतान हूं", से जुड़ी हुई है। यह भारत समेत पूरी पृथ्वी को बचाने का दृष्टिकोण है जिसे आज राजनैतिक-आर्थिक लाभ के लिए ‘भारत में बेचने’ और ‘भारत को बेचने’ में तब्दील कर दिया गया है।