जलवायु परिवर्तन को जानना और महसूस करना हमारी जिन्दगी का अहम हिस्सा बन गया है। लेकिन सरकारों को यह महसूस नहीं होता। वे 2047 तक विकसित भारत की रूपरेखा तैयार कर सकते हैं लेकिन वे आने वाली पीढ़ी के सांस लेने का इंतजाम नहीं कर रहे हैं। स्तंभकार वंदिता मिश्रा ने पर्यावरण को अति गंभीरता से लेने की बात इस लेख में कही है। पढ़िएः
आज की बात को थोड़ी देर के लिए छोड़ दिया जाए तो, पृथ्वी का तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले सामान्य तरीके से स्वतः नियंत्रित हो रहा था लेकिन 1850 के बाद से स्थितियां बदलने लगीं। धीरे धीरे पृथ्वी का तापमान औद्योगिक धुंए और औद्योगिक उत्पादों की वजह से बढ़ने लगा और अब तो विश्व के सभी वैज्ञानिकों में इस बात को लेकर आम सहमति बन चुकी है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान के पीछे मानवीय गतिविधियों का हाथ है। औद्योगीकरण, रहन-सहन में बदलाव और ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए बेहिसाब जीवाश्म ईंधन(फॉसिल फ्यूल) के इस्तेमाल की वजह से तापमान को ट्रैप करने वाली गैसों-कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड आदि- का स्तर भी बढ़ता ही जा रहा है।
1968 में ‘क्लब ऑफ़ रोम’ की स्थापना और 1972 में इसकी रिपोर्ट ‘लिमिट टू ग्रोथ’ ने वैश्विक समुदाय को इस महत्वपूर्ण समस्या के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। रिपोर्ट के 3 महीने बाद ही संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में स्टॉकहोम कन्वेंशन का आयोजन किया गया, इसके बाद 1992 में आयोजित रियो सम्मेलन और UNFCCC की स्थापना ने सब कुछ बदल दिया। 2015 में पेर्रिस में पृथ्वी को बचाने के लिए संकल्प लिया गया और यह तय किया गया कि किसी भी हालत में इस ग्रह का तापमान साल 2100 तक 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जायेगा।
PLoS मेडिसिन में छपे आंकड़ों के अनुसार, 1990 से 2019 तक पूरी दुनिया में हीटवेव से, प्रति वर्ष 153,078 अतिरिक्त मौतें हुई हैं। विश्व मौसम संगठन के अनुसार 2003, 2010 और 2022 में क्रमशः 55,000 से 72,000 लोगों की मृत्यु गर्मी के कारण हुई। सऊदी अरब में अकेले इस सप्ताह में भीषण गर्मी की वजह से 1000 से अधिक हज यात्रियों की मौत हो चुकी है। भारत में मार्च से अब तक, हीटवेव की वजह से लगभग 150 लोगों की मौत हो चुकी है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हीटवेव सहित कई चरम मौसम की घटनाएँ अधिक और लगातार तीव्र होती जा रही हैं। इसी संस्थान के एक शोधकर्ता इज़िडीन पिंटो ने कहा, “हमारे अध्ययन के परिणामों को एक और चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए कि हमारी जलवायु खतरनाक स्तर तक गर्म हो रही है”।
इस देश में हर कोई ऐसा नहीं है जिसके पास एयर कॉन्डीशनर उपलब्ध हों, लोगों को बिजली की अनवरत आपूर्ति हो रही हो, लोग यह अच्छे से समझ रहे हैं कि साल दर साल गर्मी लगातार क्यों बढती ही जा रही है। येल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज कम्युनिकेशन की एक रिपोर्ट यह बताती है कि भारत में लगभग 85% लोगों ने ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों का व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है। यह भी एक तथ्य है कि इसका अनुभव करने वाले लोगों की संख्या हर साल बढ़ ही रही है। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी घटनाओं की वजह से 14% लोग अपना घर छोड़कर अलग जगह आसरा बना चुके हैं और लगभग 20% अन्य लोग ऐसा करने के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं।
वैश्विक स्तर पर देखें तो हर पांच में से 4 लोग ग्लोबल वार्मिंग को लेकर अपनी सरकारों से कठोर कदम उठाने की मांग कर रहे हैं। 85% लोग ब्राज़ील में, 88% लोग ईरान में और 93% लोग इटली में अपनी सरकारों से यही आशा कर रहे हैं। स्पष्ट है कि सुरक्षा, और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे जिन्हें ज्यादातर राजनीतिक हितों के लिए उठाया जाता है वो अब गौण हो रहे हैं क्योंकि अब सीधा संकट इस ग्रह और यहाँ रहने वाले इंसानों के जीवन पर आन पड़ा है।
मुझे लगता है कि लोग वैश्विक स्तर पर सजग तो हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे, पर भारत में लोगों की सजगता बढ़ी है ये आंकड़े बता रहे हैं। भारत सरकार 2070 तक कार्बन न्यूट्रल भारत बनाने का वैश्विक संकल्प ले चुकी है। PM मोदी ‘लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट’(LiFE) की बात कर रहे हैं लेकिन उनके मित्र गौतम अडानी ‘हसदेव अरण्य’ बर्बाद कर रहे हैं, 1973 का बंगलुरु 68.7% हरियाली समेटे था जो आज घटकर लगभग 2.5% रह गयी है, सरकार की नाक के नीचे आरावली में लगातार कब्ज़ा किया जा रहा है, लगातार कटते पेड़-पौधों को रोकने में सरकार फिलहाल नाकाम है और इस नाकामी के साथ 2070 का लक्ष्य पाना असंभव है।
सरकार अक्सर यह दावा करती है कि विकास के लिए पेड़-पौधों का काटना बहुत जरुरी है और साथ ही यह भी दावा करती है कि जितने पेड़ काटे जायेंगे उतने ही दूसरी जगह लगा भी दिए जायेंगे। कोई भी साधारण वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति मुझे यह बता सकेगा कि जो पेड़ हजारों-लाखों टन कार्बन डाई ऑक्साइड सोख रहे थे, धरती को ठंडा रखने में मदद कर रहे थे उनकी बराबरी 20-25 पत्तियों वाले पौधे कर पाएंगे? और जब तक ये पौधे बड़े होंगे तब तक लाखों करोड़ों टन निर्मुक्त होती ग्रीन हाउस गैसों का निस्तारण कैसे किया जायेगा?
यदि सरकार का वह तर्क जो विकास के लिए दिया जाता रहा है वह सही है तो क्या अपने ग्रह और लोगों को बचाने के लिए और विकास कार्यों को भी न बाधित करने के लिए सरकार की तरफ से इतनी सी प्लानिंग नहीं की जा सकती? जब दशकों पहले सांप्रदायिक साजिश रची जा सकती है, 2047 में विकसित भारत की तैयारी की जा सकती है, वर्षों पहले चुनावी एजेंडे तैयार किये जा सकते हैं, किस जगह किस धार्मिक स्थल के नाम पर कितने सालों तक तमाशा चलाया जाना तय किया जा सकता है, किसको आगे चलकर CM या PM प्रोजेक्ट किया जाना है, यह सारी चालें चली जा सकती हैं, तो पहले से ही जंगल और पेड़ पौधे खड़े करके कार्बन सिंक क्यों नहीं तैयार किया जा सकता है?