किसी के दबाव में बोलना और किसी के दबाव पर चुप हो जाने की आदत छोड़े हुए पूरे भारत को 75 साल बीत चुके हैं। 75 साल पहले जब संविधान लागू किया गया तो ग़ुलामी के हर हालात को एक झटके में त्याग दिया गया था। 1950 में संवैधानिक लोकतंत्र को स्वीकार किया गया और नयी शासन प्रणाली की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में हुई, जिन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के उत्पीड़न को सहा था और अपने जीवन का लगभग दस साल जेलों और यातनाओं को बर्दाश्त कर बिताया था। वर्तमान सत्ताधारियों को भले ही इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि भारत तमाम लोकतांत्रिक सूचकांकों और रिपोर्ट्स में कहाँ स्थित है, पर इससे फ़र्क़ पड़ना चाहिए कि भारत के नागरिकों की लोकतान्त्रिक चेतना का स्तर क्या है और उसका मूल स्वभाव क्या है? भारत और इसके नागरिकों ने 75 सालों में कभी भी अपनी लोकतांत्रिक चेतना को इतने निचले स्तर पर नहीं पहुंचाया जहाँ से देश का उठ खड़ा होना असंभव हो जाता। तमाम वैश्विक संविधानविदों के भय और आशंकाओं को झुठलाते हुए भारत आज भी लोकतंत्र बना हुआ है, और यहाँ का संविधान आज भी भारत के लोगों के लिए तैनात है।
भारत के लोगों के लचीलेपन, उनकी धार्मिक आस्था और रोजमर्रा की जिंदगी में लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर उनमें आग्रह की कमी को उनकी कमजोरी नहीं समझना चाहिए। तमाम परेशानियों के बावजूद औपनिवेशिक ग़ुलामी से उबरने के बाद से लगातार भारतीयों ने भारत/राज्यों की सरकारों को लेकर सम्मान और भरोसा जताया है, उनमें हर रोज़ न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्री आदि पर सवाल उठाने की आदत नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें सवाल उठाना नहीं आता और समय रहते अपनी लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारियाँ निभाना नहीं आता।
विरोध की आवाज दबाने की कोशिश?
भारत में पिछले 11 सालों से लगातार सुनियोजित तरीके से लोगों की आवाज़ों को दबाया जा रहा है, लोकतांत्रिक अधिकारों को कमजोर किया जा रहा है, सत्ता पर बने रहने के लिए संस्थाओं के संवैधानिक वर्चस्व को नष्ट किया जा रहा है। इसके अलावा देश में एक बड़ी अंतरधार्मिक खाई को गहरा और चौड़ा किया जा रहा है। दूसरी तरफ़ व्यापार ढलान पर है, भारतीय मुद्रा आईसीयू में पहुँच गई है, छोटे उद्योग-धंधे चौपट हो गए हैं, बेरोजगारी उच्चतम स्तर के प्रतिमान को बार बार छू रही है, प्रतियोगी परीक्षाओं के पर्चे लीक हो रहे हैं। लेकिन जब लोग इन सबसे परेशान होकर सरकार से सवाल पूछना शुरू कर रहे हैं तो सरकार को इसका स्वाद अच्छा नहीं लग रहा है। सरकार उनपर अपनी सत्ता का दुरुपयोग शुरू कर रही है।
आजकल केंद्र की मोदी सरकार द्वारा सत्ता दुरुपयोग के नए शिकार हैं, लद्दाख के सोनम वांगचुक। आज से पहले जब भी सोनम वांगचुक का नाम सुना गया वो हमेशा तकनीकों में नवाचार से जुड़ा होता था, शिक्षा सुधार से जुड़ा होता था या फिर पर्यावरण के प्रति उनकी चिंताओं और उसके उपाय से जुड़ा होता था। लेकिन आज सोनम वांगचुक का नाम इसलिए सामने है क्योंकि मोदी सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए उनपर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा दिया है और उन्हें जोधपुर जेल में बंद कर दिया है।
लद्दाख में तैनात, सर्दी से जूझते भारतीय सैनिकों के लिए कभी सोलर टेंट बनाने वाले और लद्दाख में सरकारी शिक्षा को दुरुस्त करने के लिए ऑपरेशन न्यू होप जैसे अभियान चलाने वाले सोनम वांगचुक आज राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा कैसे बन गए?
मोदी सरकार के लिए परेशानी हैं वांगचुक
असल में सोनम भारत के लिए नहीं, नरेंद्र मोदी सरकार के लिए परेशानी बन रहे थे। 2019 में अनुच्छेद-370 हटाने के बाद लद्दाख को जम्मू एवं कश्मीर से अलग करके केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। बीजेपी की सरकार द्वारा यह आश्वासन दिया गया कि लद्दाख को न सिर्फ़ राज्य का दर्जा दिया जाएगा बल्कि उसे छठी अनुसूची में शामिल भी किया जाएगा। लेकिन जब सालों तक मोदी सरकार ने अपना वादा नहीं निभाया तो सोनम वांगचुक ने गांधीवादी तरीके से लद्दाख के लिए काम करना शुरू किया। 2024 में सोनम ने लद्दाख का वादा याद दिलाने के लिए एक लम्बी लद्दाख से लेकर दिल्ली तक की पैदल यात्रा की जिससे वे लद्दाख से जुड़ी अपनी मांगों को लेकर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और गृहमंत्री से मिल सकें लेकिन उन्हें किसी से भी मिलने नहीं दिया गया।
उनकी पदयात्रा पर सरकार के किसी प्रतिनिधि ने बात नहीं की, कोई महत्व नहीं दिया तो उन्होंने फिर लद्दाख के लोगों की मांगों को लेकर हाल ही में 10 सितंबर को फिर से भूख हड़ताल शुरू की। 15 दिनों तक सरकार का कोई भी प्रतिनिधि सोनम से मिलने नहीं पहुँचा। 24 सितंबर को सरकार की नीतियों के विरोध में लद्दाख के लोगों द्वारा एक मार्च निकाला गया जो अंततः हिंसक हो गया, पुलिस की फायरिंग में 4 लद्दाख निवासियों की मौत हो गई और कई लोग घायल हो गए। सोनम ने हिंसा की तत्काल आलोचना करते हुए अपना अनशन ख़त्म कर दिया। अभी तक साफ़ नहीं है कि हिंसा कैसे भड़की? बजाय इसके कि अपराधियों को पकड़ा जाता, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सारा आरोप सोनम वांगचुक पर मढ़ते हुए कहा कि ‘यह स्पष्ट है कि भीड़ को श्री सोनम वांगचुक ने अपने भड़काऊ बयानों के माध्यम से उकसाया।’ और इसके बाद गुरुवार को मंत्रालय ने सोनम वांगचुक द्वारा स्थापित संगठनों में से एक, स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ़ लद्दाख (SECMOL) का विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (FCRA) लाइसेंस तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया और उनपर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा दिया गया। अब केंद्र सरकार के अंतर्गत चलने वाला लद्दाख का प्रशासन सोनम वांगचुक का ‘पाकिस्तान कनेक्शन’ खोजने में लगा हुआ है।
यहाँ सिर्फ़ सोनम वांगचुक की बात नहीं है, हर उस भारतीय की बात है जो वर्तमान सरकार से सवाल करना शुरू करता है। जैसे ही सरकार से सवाल किया जाता है, सरकार उस भारतीय नागरिक को दुश्मन की तरह समझने लगती है।
आज़ादी के पहले हो या बाद में, हिंसा कभी भी भारत की मार्गदर्शक नहीं रही। महात्मा गांधी ने यह बात पूरी दुनिया को सिखाई कि कैसे बिना हथियारों के, बिना ख़ून ख़राबे के अंग्रेज़ों की मजबूत हुकूमत को भी झुकाया जा सकता है। आज तो फिर भी, बेहतर समय है।
सवाल लोगों द्वारा किए जाने वाले प्रदर्शन पर नहीं बल्कि केंद्र सरकार पर है। पीएम मोदी को बताना चाहिए कि उन्होंने देश में चल रहे किस आंदोलन को लेकर कभी सकारात्मक रूख अपनाया? जैसा कि पहले की सरकारें करती रही हैं। किस आंदोलन को उन्होंने अपनी सत्ता के ख़िलाफ़ एक चुनौती के रूप में नहीं देखा? शायद उनके पास कोई जवाब नहीं होगा! यूपीएससी, एसएससी जैसे अन्य छात्र आंदोलनों से लेकर किसान आंदोलन तक, कौन सा ऐसा आंदोलन था जो सरकार के ख़िलाफ़ था? अन्ना आन्दोलन की तरह अब बीते सालों में भारत में कोई भी आंदोलन सत्ता पलटने के लिए नहीं किया गया, आज लोग विनम्रता के साथ अपनी मांगों को लेकर सरकार के सामने आते हैं जिससे उनका मुद्दा सुलझ जाये और वो अपने घरों में जाकर अपने काम कर सकें। सरकार से संघर्ष के लिए न किसी के पास संसाधन हैं और ना ही वक्त। लेकिन हर सिविल आंदोलन को राजनैतिक रूप दे देना, अपनी सत्ता के लिए खतरा समझ लेना, एक निम्नतर लोकतांत्रिक समझ को व्यक्त करता है।
राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून क्यों लगाया?
सोनम वांगचुक, जैसे व्यक्ति ने कभी एक छड़ी तक नहीं उठाई और उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा कानून लगा देना, जिससे 12 महीनों तक बिना जमानत और ट्रायल के उन्हें जेल में बंद रखा जाये, उनका मनोबल तोड़ा जा सके, उन्हें उनकी मांगों से पीछे हटाया जा सके यह उचित है क्या? अगर वे देश के लिए खतरा हैं जिनका तथाकथित एक भी ‘भड़काऊ’ बयान सरकार सामने नहीं ला सकी है, तो दिल्ली सरकार में मंत्री बनकर बैठे कपिल शर्मा का क्या होना चाहिए जिन्होंने कैमरे पर दिल्ली पुलिस की मौजूदगी में खुलेआम ना सिर्फ़ भड़काऊ बयान दिया था बल्कि दंगे को जमकर उकसाया भी था, केंद्र में मंत्री अनुराग ठाकुर का क्या जिन्होंने एक समुदाय विशेष को गाली देते हुए ‘देश के गद्दारों को ..’ वाला भाषण दिया था, बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे का क्या जिन्होंने देश के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश जस्टिस संजीव खन्ना के ख़िलाफ़ हिंसक बयानबाजी की थी, इन सभी पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून क्यों नहीं लगाया गया? क्या इसलिए क्योंकि इनकी प्राथमिक योग्यता थी, बीजेपी का सदस्य होना? मुझे कोई संकोच नहीं है यह कहने में कि न सिर्फ़ केंद्र सरकार सत्ता का दुरुपयोग कर रही है बल्कि जिन जिन राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं वो अपनी अपनी सत्ताओं का दुरुपयोग करने में लगी हैं।
नरेन्द्र मोदी जब सत्ता में आने के लिए चुनाव प्रचार कर रहे थे तो उन्होंने किसी धार्मिक एजेंडे की बात नहीं की थी, उन्होंने कभी असहमति के स्वरों को कुचलने की बात नहीं की थी लेकिन जब वे सत्ता पा गए और जैसे-जैसे उन्होंने सत्ता में एक एक साल गुजारा, गाय के नाम पर मॉब लिंचिंग आम होती चली गई, एक धर्म विशेष के लोगों के घरों और बस्तियों पर बुलडोज़र चलने लगे, उन्हें राजनीति में प्रतिनिधित्व करने और यहाँ तक की वोट करने से भी दूर करने के षड्यंत्र रचे जाने लगे।
हिंदुत्व की प्रयोगशाला!
एक बीजेपी शासित राज्य का मुख्यमंत्री कानून और व्यवस्था के नाम पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ असभ्य भाषा का इस्तेमाल कर रहा है तो दूसरे अन्य राज्य का मुख्यमंत्री चुन चुनकर मुसलमानों को बांग्लादेशी घोषित करके सीमा के उस पार धकेलने में लगा हुआ है। एक राज्य लगभग तीन सालों से हिंसा और नरसंहार की चपेट में है, तो एक राज्य हिंदुत्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला का खिताब पाना चाह रहा है, ज्यादातर बीजेपी शासित राज्य हिंदुत्व राज्य का ख़िताब अपने नाम कर लेना चाहते हैं, इसकी एक होड़ मची हुई है। किसी को भी भारत के लोगों, भारत की एकता और सौहार्द्र, यहाँ के प्रेम और भाईचारे, यहाँ के विकास, संस्थाओं और भारत के वर्चस्व की चिंता नहीं है। क्या एक छोटे और खोखले धार्मिक उद्देश्य से चलाई जा रही सरकारें भारत जैसे विविध और विशाल देश के माहौल के लिए उचित हैं? कम से कम संविधान निर्माताओं ने भारत में लोकतंत्र को इस अर्थ में तो नहीं लिया था, जहाँ धार्मिक आधार पर, सरकार से असहमति के आधार पर, जाति के आधार पर भारत के लोगों के साथ सरकारों का व्यवहार बदलना चाहिये।
विरोध के स्वर से दिक्कत क्यों?
राज्य सरकारें हों या केंद्र सरकार, इन सबको यह समझना ही होगा कि वो लोकतंत्र में लोगों से गूंगा बनने की आशा नहीं कर सकते। यदि लोगों को लगेगा कि सरकार उनकी बात नहीं सुन रही, जोकि उसे सुननी ही चाहिए, तो वो सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन भी करेंगे और सरकार के ख़िलाफ़ नारेबाजी भी करेंगे। जब भारत का संविधान और भारतीय लोकतंत्र इन प्रदर्शनों की इजाज़त देता है और लोकतंत्र की मजबूती के लिए इसे प्रोत्साहित भी करता है तो किसी मंत्री को इसे व्यक्तिगत चुनौती क्यों लगती है? विरोध के स्वर सरकारों को ज़्यादा से ज़्यादा लोकतांत्रिक और जिम्मेदार बनाते हैं, फिर देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इसे इतना व्यक्तिगत क्यों ले रहे हैं? जब भी कोई सत्ता में बैठता है, सरकार बनाता है और सार्वजनिक जीवन धारण करता है तो उसे लोगों के गुस्से, झुंझलाहट, असहमति और अहिंसक रोष के लिए ख़ुद को तैयार कर लेना चाहिए। देश का शासन मखमल का बिस्तर नहीं है और न ही देश चलाने वाले देश के राजा! सोनम वांगचुक हों या प्रदर्शन करने वाले प्रतियोगी छात्र इनकी जगह न जेल है और न ही ये सरकारी हिंसा के अधिकारी हैं। असहमति का सम्मान, इस पर प्रतिक्रिया और जल्द से जल्द समाधान यही भारतीय लोकतंत्र का आधार है, केंद्र सरकार को यह जानना चाहिए।
अगर मन करे तो संविधान सभा के ड्राफ्टिंग कमेटी के प्रमुख, डॉ. भीमराव आंबेडकर का संविधान सभा में 25 नवंबर, 1949 को दिया गया यह वक्तव्य पढ़ें-
“लोकतंत्र केवल शासन प्रणाली नहीं है। यह मूलतः अपने साथी नागरिकों के प्रति सम्मान और आदर की भावना है।”