पीएम नरेंद्र मोदी असम में
वंदे मातरम् गीत के 150 साल पूरे होने की ख़ुशी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में एक कार्यक्रम का उद्घाटन किया। इस दौरान एक विशेष डाक टिकट जारी किया गया और इस ऐतिहासिक पल को पूरे साल भर मनाने का फ़ैसला भी लिया गया। लेकिन हमेशा की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस महान और दुर्लभ अवसर का भी अभद्र राजनीतिकरण कर डाला। 11 साल से दिल्ली की गद्दी पर बैठकर अपने किए गए कामों और उसके परिणामों पर बात करने का जोख़िम न उठाने वाले, और कांग्रेस को दिन रात कोसने में महारत हासिल कर चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि- 'आजादी की लड़ाई में वंदे मातरम् की भावना ने पूरे राष्ट्र को प्रकाशित किया था, लेकिन दुर्भाग्य से 1937 में वंदे मातरम के महत्वपूर्ण पदों को, उसकी आत्मा के एक हिस्से को अलग कर दिया गया था। वंदे मातरम् के टुकड़े किए गए थे। इस विभाजन ने देश के विभाजन के बीज भी बो दिए थे।'
एक तो मुझे भरोसा है कि प्रधानमन्त्री मोदी इस बात से वाकिफ़ हैं कि भारत विभाजन का बीज किसने बोया था लेकिन फिर भी अगर उन्हें नहीं पता या वो अनजान बनने का स्वाँग रच रहे हैं तो मैं उन्हें याद दिला रही हूँ कि 1937 में वंदे मातरम् में जो कुछ भी किया गया वो राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए ही किया गया था लेकिन 1937 में कुछ ऐसा जरूर घटित हुआ था जिसने भारत के दो टुकड़े करने, पाकिस्तान के विचार को समर्थन देने और भविष्य में होने वाले बड़े नरसंहार की पृष्ठभूमि ज़रूर रच डाली थी।
हुआ यूँ था कि 1935 के भारत शासन अधिनियम के तहत जनवरी-फ़रवरी, 1937 में प्रांतीय चुनाव करवाये गए। ये चुनाव मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के लिए आपदा ही साबित हुए। इन दोनों ही विभाजनकारी दलों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ गया था। 11 में से 7 प्रांतों में काँग्रेस को बहुमत मिला था। लीग को कहीं भी जीत नहीं मिली और हिंदू महासभा तो चुनाव में अस्तित्व विहीन ही थी। उस समय लीग का नेतृत्व जिन्ना कर रहे थे और महासभा का नेतृत्व वीडी सावरकर के पास था। हार से बौखलाए सावरकर ने 1937 के अंत में, हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में जो भाषण दिया उसने भारत को हमेशा के लिए दो हिस्सों में बाँट दिया। हिंदू महासभा ने अहमदाबाद के 1937 के अधिवेशन में सावरकर की अध्यक्षता में द्विराष्ट्र का सिद्धांत स्वीकार किया। इसका मतलब था कि हिंदुओं के लिए अलग मुल्क और मुसलमानों के लिए अलग। सच तो यह था कि हिंदू महासभा और सावरकर के लिए यह कोई सिद्धांत नहीं था बल्कि एक चरम हताशा और चरम अपमान का बिंदु था जहाँ उन्हें लगने लगा था कि भारत के ज्यादातर हिस्से के दिल में महासभा के लिए कोई जगह ही नहीं है और देश के लोगों की एकमात्र प्रतिनिधि कांग्रेस ही है। इसी हताशा और अपमान ने जिन्ना को भी धर्म निरपेक्ष, उदारवादी बैरिस्टर से एक कट्टर मुसलमान में तब्दील कर दिया। 1940 के लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने भी द्विराष्ट्र के सिद्धांत को मान लिया। लेकिन देश को विभाजित करने की शुरुआत सावरकर के नेतृत्व में 1937 में पहले हुई जिन्ना तो फिर भी थोड़ा लेट लतीफ़ हो गए।
मुझे लगता है कि पीएम मोदी 1937 की इसी विभाजन वाली और सावरकर की हताशा, अपमान, चुनावों में हार के बाद बदले की भावना से पैदा हुई द्विराष्ट्र की घटना के बारे में बताना चाहते थे जिसने असल में ‘भारत विभाजन का बीज’ बो दिया था। पर बोलते वक़्त उन्होंने अलग लाइन तैयार कर ली।
विभाजन के लिए ज़िम्मेदार कौन?
यह जानते हुए भी कि आरएसएस, महासभा और सावरकर जैसे लोग, जिन्होंने देश की आज़ादी में कोई योगदान ही नहीं दिया, यह जानते हुए भी कि इन सभी ने देश के विभाजन की नींव रखी, उसपर दीवारें खड़ी कीं, विभाजन के महल बनाये, विभाजन करा के ही दम लिया और इसे तेज करते गए और उनकी अगली पीढ़ी भी उसी दिशा में ही काम करती रही, उसके बाद भी पीएम मोदी यह दुस्साहस कैसे कर पाते हैं कि वे ऐतिहासिक दिनों पर सर्वजनिक भाषण में कांग्रेस के योगदान पर ऐसी ओछी टिप्पणी कर सकें। मुझे लगता है कि पीएम मोदी के करीबियों को उन्हें सलाह देनी चाहिए कि इस तरह की टिप्पणियों से वो स्वयं को एक्सपोज़ तो करते ही हैं साथ ही भारत के प्रधानमंत्री की गरिमा को भी नुकसान पहुँचाते हैं।
पीएम मोदी को यह ज्ञान होना चाहिए कि जिस वैचारिक लेगेसी का वो प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उसने देश को दुःख, पीड़ा और शर्म के अलावा और कुछ नहीं दिया। सबसे पहले तो 1937 में देश के विभाजन के विचार को सार्वजनिक कर दिया, फिर जिस दल और विचार से उन्हें विभाजन चाहिए था उन्ही जैसों के साथ मिलकर बंगाल में सरकार भी बना डाली। जब इतनी शर्मनाक हरकत से भी पेट नहीं भरा तो बंगाल अकाल का इस्तेमाल अपने घृणित राजनैतिक उद्देश्यों के लिए किया, जोकि बहुत भयावह भी था और दर्दनाक भी था।
असल में 1941-43 के दौरान हिंदू महासभा बंगाल में सत्ता में थी और इसी समय बंगाल में भयानक अकाल पड़ा। हिंदू महासभा के नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी सरकार में वित्त मंत्री थे। यह छिपी हुई बात नहीं है कि बंगाल अकाल का कारण सिर्फ़ प्राकृतिक नहीं था बल्कि वास्तव में यह राजनैतिक और प्रशासनिक विफलता का परिणाम था।
बंगाल अकाल में हिंदू महासभा की भूमिका
इस अकाल में लगभग 40 लाख भारतीयों की असमय मौत हो गई थी। लेकिन इससे भी चौंकाने वाली बात का ख़ुलासा इतिहासकार डॉ. अभिजीत सरकार ने किया है। अभिजीत ने अपने 2020 में छपे लेख- “Fed by Famine: The Hindu Mahasabha’s politics of religion, caste and relief in response to the Great Bengal Famine, 1943–1944”- में विश्लेषण किया है कि हिंदू महासभा ने अकाल का इस्तेमाल अपने वैचारिक एजेंडे को पूरा करने के लिए किया था। ‘आपदा में अवसर’ के इस क्लासिक और अमानवीय उदाहरण के बारे में अभिजीत ने बताया कि सरकार में शामिल हिंदू महासभा की राहत समितियाँ ज़्यादातर हिंदू संघों और जातीय समूहों के ज़रिए काम कर रही थीं। भोजन, कपड़ा और दवाइयाँ बाँटने में हिंदू होने को प्राथमिकता दी गई। मदद मानवता के आधार पर नहीं, बल्कि धार्मिक पहचान के आधार पर दी गई।
साफ़ है कि ‘आपदा में अवसर’ के खेल में माहिर हिंदू महासभा लाखों लोगों की मौत के बीच हिंदू बनाम मुस्लिम करने में जुटी थी। अभिजीत सरकार बताते हैं कि इतने बुरे समय में भी जब मानवीयता सबसे बड़ा धर्म होना चाहिए था उस समय ‘आपदा में अवसर’ वाले योद्धा सार्वजनिक भाषणों और पैंफ्लेट्स में महासभा के नेताओं ने अकाल को “मुस्लिम शासकों की नाकामी” बताया और हिंदुओं से कहा कि वे अपने संगठनों पर भरोसा करें, सरकार पर नहीं।
यह तो बस उस इतिहास की झलक है जिसके वैचारिक प्रतिनिधि भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, कोई उन्हें जाकर बताये कि आज़ादी के पहले की बातें करके उन्हें ख़ुद को ज़लील करना बंद कर देना चाहिए। इसमें शर्म की बात तो यही बार बार आती है कि आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे संगठनों ने भारत देश की आज़ादी के लिए कुछ नहीं किया। जब लाखों लोग मर रहे थे तब ये संगठन ‘सर्वाइवल’ मोड में रहकर हिंदू पहचान बनाने में जुटा था। कईयों की जानें गयीं, कितने शहीद हुए तब ये आज़ादी नसीब हुई है। इसी आज़ादी ने सबको देश का संविधान दिया है। उसी संविधान ने यह संभव किया कि भले ही किसी ने देश की आज़ादी के दौरान धोखा दिया हो, साथ ना दिया हो लेकिन आज़ादी के बाद सब एक हैं सबको साथ लेकर चलना है। इसी विचार की वजह से नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन सके। लेकिन अगर वो इसी संविधान के अस्तित्व के लिए ख़तरा बनेंगे तो यह अच्छा नहीं है। यह संविधान समानता की बात करता है जिसमें हिंदू बनाम मुस्लिम की कोई जगह नहीं है, यह संविधान एक ही किस्म की नागरिकता का प्रावधान करता है इसलिए किसी को दोयम दर्जे का नागरिक नहीं समझना चाहिए, यह संविधान संस्थाओं के स्वतंत्र अस्तित्व की बात करता है जिसे बनाये रखना हर सरकार का संवैधानिक कर्त्तव्य है। आज़ादी के पहले भले ही कोई योगदान न रहा हो लेकिन आज के भारत में तो आज़ादी के मूल्यों की रक्षा कर ही सकते हैं?
एक और ज़रूरी बात यह है कि पीएम मोदी द्वारा बार-बार आज़ादी के पहले और जवाहरलाल नेहरू जैसे स्टेट्समैन के बारे में अनर्गल, भ्रामक और अर्ध-सत्य बातें करने से अच्छा है कि अपने किए पर बात करें। क्योंकि आज़ादी की लड़ाई में जो दुर्व्यवहार आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों का रहा है उससे तो सिर्फ़ उन्हें मायूसी ही हाथ लगेगी।
पीएम ने 11 साल में क्या किया?
पीएम वो बातें बतायें, उन नीतियों और निर्णयों के परिणामो के बारे में बताएं जो उन्होंने बीते 11 सालों के दौरान किया है। चाहें तो यह भी बता सकते हैं कि जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब क्या किया था और चाहें तो एक और नई शुरुआत अर्थात भारत के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने क्या किया इसके बारे में भी बता सकते हैं। पीएम मोदी चाहें तो यह भी बता सकते हैं कि वो चुनावों के दौरान कभी अपनी योजनाओं के बारे में बात क्यों नहीं करते? चुनावों के दौरान वो कभी यह क्यों नहीं बताते कि ‘मेक इन इंडिया’ कैसे काम कर रहा है?, ‘स्किल इंडिया मिशन’ कहाँ तक पहुंचा है? जन-धन योजना के क्या हालात हैं? नोटबंदी से क्या हासिल हुआ? अनुच्छेद- 370 हटा देने के बावजूद जम्मू कश्मीर अस्थिर क्यों बना हुआ है? चाहें तो यह भी बता सकते हैं कि उनकी सरकार को पढ़े-लिखे लोगों से इतना डर क्यों है कि वो उनका एक भाषण तक नहीं होने देना चाहते और विदेशी मेहमानों को एयरपोर्ट से ही वापस क्यों भेज देते हैं?
मैं तो कहती हूँ कि पीएम मोदी चाहें तो अपने चुनावी भाषणों की शुरुआत बजाय ‘कट्टा’, ‘मुज़रा’, ‘श्मशान और कब्रिस्तान’, ‘मंगलसूत्र’ से ना करके इससे करें कि उनकी सरकार की निगरानी में बनाई गई हजारों करोड़ रुपये की सड़कें पहली बारिश भी क्यों नहीं झेल पा रही हैं? ट्रेन दुर्घटनाओं की संख्या क्यों बढ़ रही है? जंगल काटकर कुछ उद्योगपतियों को क्यों दिए जा रहे हैं और यह भी, जब देश की राजधानी, दिल्ली, प्रदूषण से गैस चैंबर बनी हुई है तो उनके पास इससे निजात पाने के लिए क्या प्रबंध है, वे कोई प्रयास कर रहे हैं?
घोटालों पर चुप्पी क्यों?
उनकी ही पार्टी का एक नेता बिहार में 62 हज़ार करोड़ के घोटाले का खुलासा करता है, पीएम को इस पर भी कुछ बोलना चाहिए। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि कानून के शासन के दायरे में अंबानी के लड़के का वनतारा क्यों नहीं आता? उन्हें बताना चाहिए कि क्यों CITES(वन्य जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन) जैसा संगठन जिसको बनाने की भूमिका भारत ने रची, भारत जिस संगठन का संस्थापक सदस्य है और जो पूरे दुनिया में लुप्तप्राय जानवरों के व्यापार पर विनियमन करता है, वो भारत पर सवाल क्यों उठा रहा है? वो क्यों कह रहा है कि मुकेश अंबानी के छोटे सुपुत्र द्वारा संचालित वनतारा रेस्क्यू सेंटर लुप्तप्राय प्रजातियों के अवैध व्यापार का कारण बन सकता है? पीएम मोदी बतायें कि आख़िर क्यों तेंदुओं को वनतारा में शिफ्ट किया जा रहा है? क्यों वनतारा के लिए तेंदुओं को वन्य जीव संरक्षण अधिनियम-1972 की अनुसूची-1(उच्चतम दर्जे का संरक्षण) से हटाकर अनुसूची-2 में डाला जा रहा है?
आख़िर क्यों संरक्षण के नाम पर जानवरों के व्यवसायीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है? 1500 तेंदुओं के शिफ्ट किए जाने के कारण, अगर उनकी वनतारा में मौत होती है तो क्या इसकी जिम्मेदारी मोदी लेंगे? वनतारा में इस समय लगभग 42 हज़ार जानवर हैं जिन्हें रेस्क्यू के नाम पर लाया गया है, इन जानवरों के यहाँ लाए जाने पर अंतरराष्ट्रीय संगठन सवाल उठा रहे हैं। एक रेस्क्यू सेंटर को अवैध तरीके से चिड़ियाघर में बदला जा रहा है, कानून का मजाक बनाया जा रहा है, क्या भारत का कानून एक उद्योगपति के घर का दरबान बनेगा? ऐसा क्यों किया जा रहा है? इसका जवाब पीएम मोदी को देना चाहिये। सरकार बनाना और पीएम बनना इस बात का लाइसेंस नहीं कि जैसे चाहें संविधान और कानून का इस्तेमाल करें। आज़ादी में योगदान नहीं दिया, कोई बात नहीं; कांग्रेस को कोसना चाहते हैं, कोई बात नहीं; नेहरू को जिम्मेदार बनाना है कोई बात नहीं; लेकिन कम से कम आज़ादी की लड़ाई से हासिल किया गया हमारा, हम सबका संविधान और कानून के शासन के लगातार अपहरण और बलात्कार में तो सहयोगी न बनें।