लगभग 13 सालों तक मुख्यमंत्री के पद पर और 11 सालों से देश प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहने के बाद भी पीएम नरेंद्र मोदी ने यह सिद्ध कर दिया है कि वो आज़ाद भारत के न सिर्फ़ सबसे असफल और थके हुए प्रधानमंत्री हैं बल्कि सबसे कमजोर और लापरवाह विज़न वाले नेता भी हैं। बिहार के समस्तीपुर में एक चुनावी रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कहा वो उनके भीतर समाई हुई व्यापक हताशा और गैर ज़िम्मेदार रणनीतियों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति और स्वीकृति है। केंद्र की सत्ता में आने से पहले जिस देश के करोड़ों युवाओं को नरेंद्र मोदी ने हर साल 2 करोड़ नौकरियां बांटने का वादा किया था आज उसी देश के युवाओं को रील बनाने के गड्ढे में धकेल रहे हैं। जबकि आज 11 सालों में प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के बाद उन्हें अपने वादे के अनुसार देश के युवाओं को कम से कम 22 करोड़ नौकरियां दे देनी चाहिए थी। पर उन्होंने वादा किया, लोगों ने नरेंद्र मोदी को भारत की सत्ता सौंपी, उसके बाद वे अपना वादा भूल गए।

नौकरी का मतलब होता है आर्थिक स्थायित्व और सुरक्षा, लेकिन अपनी प्रशासनिक अक्षमता, राजनैतिक चालाकी और नीतिगत लाचारी के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वो वादे वाली नौकरियाँ प्रदान करने में असफल रहे, इसलिए उन्होंने युवाओं को लुभाने और बिहार में चुनाव जीतने के लिए ‘रील्स’ पर बात करना शुरू कर दिया। समस्तीपुर में एक रैली के दौरान उन्होंने कहा-

“मित्रो, इस सस्ते डेटा का सबसे बड़ा लाभ मेरे बिहार के नौजवानों ने उठाया है। जो रील्स बन रही हैं, उनमें सारी क्रिएटिविटी नजर आ रही है। यह बीजेपी और एनडीए की नीतियों का बड़ा योगदान है। हमने रील्स बनाना आसान कर दिया है, बिहार के कई नौजवान रील्स बनाकर अच्छी कमाई कर रहे हैं।”

युवाओं को अपमानित करने का प्रयास?

नरेंद्र मोदी ने यह बयान असल में देश के युवाओं को लज्जित करने के लिए दिया है, यह बयान युवाओं को अपमानित करने का प्रयास है। मुट्ठीभर लोगों को छोड़ दिया जाये तो कोई भी युवा स्थाई करियर छोड़कर रील्स की दुनिया में नहीं घुसना चाहेगा, क्योंकि यहाँ अथाह  अनिश्चितताएँ उसके फेल होने का इंतज़ार कर रही हैं, यहाँ घबराहट व्याकुलता  और अवसाद उसके सिर पर मंडराते हैं। रील एक जुआ है जिसे युवाओं ने मजबूर होकर सरकार की नाकामी, सरकारों की लापरवाही, सरकारी धोखे से परेशान और निराश होकर अपनी जीविका के लिए चुना। उनकी आर्थिक बाध्यताओं का ऐसा मज़ाक? और मज़ाक के साथ साथ इससे चुनावी झूठ और सत्ता की एक और भूख मिटाने का प्रयास किया जा रहा है? देश का युवा शिक्षा पाना चाहता है, स्थायी रोजगार पाना चाहता है जिसमें पेंशन जैसी आर्थिक सुरक्षाओं की व्यवस्था हो। यह सब करने के लिए देश में रोजगार को लेकर एक नीतिगत ढाँचा होना चाहिए और यह सब तैयार करने के लिए चाहिए एक सक्षम नेतृत्व जो नरेंद्र मोदी देश को प्रदान करने में फेल हो चुके हैं। एक समय युवाओं को ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ से जोड़ने वाले नरेंद्र मोदी आज युवाओं को एक जीबी डेटा तक सीमित करना चाहते हैं जिससे उनकी कुर्सी सुरक्षित बनी रहे। करोड़ों की संख्या में आकांक्षी और ऊर्जा से भरपूर युवाओं को संबोधित करने के लिए इससे निर्लज्ज, संवेदनहीन और अश्लील भाषण नहीं दिया जा सकता, और दुर्भाग्य से इस भाषण को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया है, जो कि ऐतिहासिक है। इसी समस्तीपुर की सभा में उन्होंने आगे कहा कि- 

“मित्रो..यह हमारी सरकार है जिसने इंटरनेट डेटा को इतना सस्ता बना दिया है कि आज बड़े-बड़े देशों में भी 1 जीबी डेटा 100-150 रुपये में उपलब्ध है। लेकिन आपके इस चाय वाले ने भारत में इसकी पुष्टि कर दी है कि 1 जीबी डेटा एक कप चाय से भी ज्यादा महंगा नहीं होगा।” 

भारत के प्रधानमंत्री को बताया जाना चाहिए कि बिहार बेहाल है, और यह पूछा जाना चाहिए कि उनकी पार्टी और नीतीश कुमार की डबल इंजन सरकार ने बिहार को दिया क्या है? बिहार का युवा बेरोजगारी और पेपर लीक की दोहरी मार से त्रासदी की ओर बढ़ रहा है और जब वह इस त्रासदी की मार को बताने के लिए सड़क पर उतरता है तो पुलिस की लाठियाँ उस पर ऐसे बरसती हैं जैसे एक इन्सान के रूप में उसकी कोई गरिमा नहीं कोई स्तर नहीं। प्रधानमन्त्री कभी किसी मंच पर आकर इस लाठीचार्ज पर ही अफ़सोस जाहिर कर देते तो युवाओं पर पड़ी लाठियों का दर्द, कम से कम दर्ज हो जाता! पीएम को अपनी सत्ता की कभी न मिटने वाली भूख को अपना हुनर नही समझना चाहिए। उनकी सत्ताभूख अब देश के लिए विपत्ति बनती जा रही है।
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जनता के मुद्दे कहाँ गये?

आम चुनाव हों या राज्य विधानसभाओं के चुनाव, उन्होंने नागरिक मुद्दों पर कभी राजनीति नहीं की, सामाजिक समस्याओं के बारे में कभी ज़िक्र नहीं किया, उन्होंने बस अपनी पीठ ख़ुद थपथपाई, दूसरों पर कीचड़ उछाला, क्या यह भारतीय परंपरा का हिस्सा है?

जिस जनता को वे रील बनाने की सलाह दे रहे हैं उसे बिहार की वास्तविकता से दूर क्यों रखना चाहते हैं? उन्हें बताना चाहिए कि बिहार में क्यों मात्र 6.11% लोग ही ग्रेजुएट, और 0.82% लोग पोस्ट-ग्रेजुएट हैं! आख़िर क्यों बिहार के 34% परिवार 6000 रुपये महीने से कम में जीवन गुजार रहे हैं? आख़िर क्यों बिहार के 42% से अधिक दलित ग़रीबी का बेहाल जीवन जीने को मजबूर हैं? क्यों सिर्फ 14.71% लोग कक्षा-10 पास हैं, और केवल 9.19% लोग ही 12वीं (हायर सेकेंडरी) पास हैं? डबल इंजन सरकार ने क्या किया बिहार में? 

मुख्यमंत्री 20 सालों से बिहार में क्या कर रहे हैं? क्या नीतीश कुमार के इस जंगल-राज में नरेंद्र मोदी का दल भी सहभागी है?

रील पर पीएम की सोची-समझी रणनीति

शायद पीएम ने बहुत सोच-समझकर बिहार के युवाओं को रील बनाने के जुए में धकेलने की कोशिश की है। वे जानते हैं कि जहाँ डबल इंजन की सरकार ने इतनी ग़रीबी और अशिक्षा परोसी है वहाँ की थाली में एक जीबी डाटा के सिवाय और कुछ नहीं दिया जा सकता।

बिहार सामाजिक-आर्थिक और स्वास्थ्य मानकों पर दुर्दशा में पहुँच चुका है। यहाँ 5 साल से कम उम्र के लगभग 43% बच्चे स्टंटिंग के शिकार हैं, और 23% बच्चे वेस्टिंग के शिकार हैं। इसके अलावा राज्य में 41% बच्चे अंडरवेट हैं। बिहार में 6-59 महीने आयुवर्ग के बच्चों में एनीमिया का स्तर लगभग 69.4% बताया गया है और 15-49 वर्ष आयुवर्ग की महिलाओं में लगभग 64% तक एनीमिया व्याप्त है।

भारत कोई पॉलिनेशिया का छोटा सा द्वीप नहीं है, यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जो अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं और आदर्शों की वजह से दुनिया में सम्मान पाता है। यहाँ के प्रधानमंत्री की भाषा और सोच देश के युवाओं के लिए रील और पकौड़ों से कमाई के लिए प्रेरित करने की नहीं बल्कि उनकी समृद्धि और सुरक्षा की ओर झुकी होनी चाहिए।

‘हमने रील्स बनाना आसान कर दिया है’ की जगह यहाँ प्रधानमंत्री को बोलना चाहिए था कि- हमने शिक्षा आसान कर दी है, आम लोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं आसान कर दी हैं, राज्य का परिवहन आसान कर दिया है, आवागमन आसान कर दिया है, सामाजिक विभेद मिटा दिया है, महिलाओं का बाहर निकलना सुरक्षित और आसान कर दिया गया है, व्यापार आसान कर दिया गया है, भ्रष्टाचार ख़त्म कर दिया गया है आदि। लेकिन दुर्भाग्य से यह सब बोलने से पहले कुछ किया जाना चाहिए था। चूँकि पीएम मोदी की डबल इंजन सरकार वादों को ज़मीन में कभी ना उतार पाने के लिए ही जानी जाती है इसलिए जब चुनाव आते हैं तो पीएम की भाषा वह स्तर छू लेती है जिसकी कल्पना भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति से नहीं की जा सकती।
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तो फिर मोबाइल डेटा की दरें क्यों बढ़ीं?

अगर क्षणभर के लिए पीएम मोदी की बात पर ध्यान दे भी दिया जाये तो यहाँ भी घोटाला दिखाई पड़ता है। मोबाइल डेटा भले ही 2014 के स्तर से सस्ता हुआ हो लेकिन जिस तरह पिछले दो-तीन सालों में ‘रिचार्ज’ की दरें बढ़ाई जा रही हैं वो देश के लिए अनुकूल नहीं है। पूरा टेलीकॉम बाज़ार दो कंपनियों-जिओ और एयरटेल- पर लटककर ‘डुओपॉली’ का शिकार हो चुका है। अकेले इन दो कंपनियों की बाज़ार हिस्सेदारी 80% से ऊपर जा चुकी है। इसमें अंबानी का जिओ अकेले 50% हिस्सेदारी रखता है जबकि इसने अपनी शुरुआत ही 2016 से की। जिओ ने बहुत सस्ते पैक से व्यापार शुरू किया और आज इसके दाम आसमान छू रहे हैं। ये दोनों कम्पनियाँ 2021 के बाद से लगभग 25% की 3-4 बार बढ़ोत्तरी कर चुकी हैं। खबर है कि बहुत जल्दी फिर से दाम बढ़ाये जाने हैं। बाज़ार पर क़ब्ज़ा किए जाने की नीयत से जिओ ने सस्ते दामों पर कारोबार शुरू किया और मार्केट हथिया लिया, कॉम्पटीशन कमीशन ऑफ़ इंडिया जैसी मजबूत संस्थाएं मुँह देखती रह गईं। उन्होंने पता नहीं क्यों अंबानी के जिओ पर लगाम नहीं लगाया? इसलिए पीएम को यह सब नहीं बोलना चाहिए था।

रीचार्ज के इस तरह बेतहाशा दाम बढ़ने से क्या हो सकता है इसे भी समझ लेना चाहिए। भारत असमानता रिपोर्ट-2022 के अनुसार, भारत की ग्रामीण आबादी में इंटरनेट उपभोग मात्र 31% है, आय लगातार कम बनी हुई और आम महंगाई चरम पर है इसके अलावा एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, देश के सबसे गरीब 20% घरों में इंटरनेट सुविधा तक पहुँच मात्र 8.9% है। 

ऐसे में बढ़ती हुई रीचार्ज दरें डिजिटल डिवाइड को बेहतर नहीं बना सकेंगी। इसलिए पीएम अगर कुछ करना चाहते हैं तो टेलीकॉम सेक्टर में बेहतर प्रतियोगिता को बढ़ावा दें और चंद लोगों को फ़ायदा पहुँचाने वाली अपनी सनक पर लगाम लगाएँ।

ज़्यादा मोबाइल इस्तेमाल से नुक़सान

एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जब देश का प्रधानमंत्री बोलता है तो जनता उसे सुनती है और तमाम लोग उससे प्रभावित होकर वो काम करना भी शुरू कर देते हैं, जो ठीक नहीं होता। जैसे सेल्फी लेने की सनक, बहुत से लोग सेल्फी लेते हुए मौत के मुंह में समा गए, इसीलिए प्रधानमंत्री को अपनी एप्रोच में हमेशा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और संतुलन बनाये रखना चाहिए। 2023 और 2024 के कम से कम चार ऐसे शोध हैं जो रील और शॉर्ट्स से होने वाले नुकसानों पर आधारित हैं। रिसर्च में पाया गया कि जो लोग मोबाइल पर बहुत ज़्यादा छोटे वीडियो देखते हैं, उनकी एकाग्रता और आत्म-नियंत्रण की क्षमता कम हो जाती है जोकि अंततः ध्यान भटकना और फिर बेचैनी में तब्दील हो जाता है। एक अन्य शोध में पाया गया कि ज़्यादा रील्स देखने से मस्तिष्क का सोचने और नियंत्रित करने वाला हिस्सा कम सक्रिय रहने लगता है और भावनाओं और आवेगों वाला हिस्सा ज़्यादा सक्रिय हो जाता है। कॉलेज छात्रों पर किए गए इस अध्ययन में पाया गया कि शॉर्ट वीडियो की लत वाले छात्र अक्सर पढ़ाई को टालते रहते हैं। अध्ययन से पता चला कि मानसिक सेहत, नींद और शारीरिक फिटनेस पर भी रील्स का बुरा असर पड़ता है और ऐसे लोगों में सोशल एंजाइटी (लोगों से डर या तनाव) का स्तर बढ़ जाता है।

नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं उन्हें एक जिम्मेदार अभिभावक की तरह पेश आना चाहिए जिससे देश का भविष्य, इस देश के बच्चे, कहीं किसी ऐसी लत का शिकार ना हो जाएँ जिससे देश कभी उबर ही न पाये। मैं बार बार कहती हूँ कि प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत फैंटेसी मायने नहीं रखती फिर चाहे मामला देश के युवाओं का हो, देश की अर्थव्यवस्था का हो या फिर विदेश नीति का, सिर्फ़ देश मायने रखता है, भारत मायने रखता है, भारत के लोग मायने रखते हैं। बीजेपी कोई चुनाव जीत जाये या मोदी फिर से सत्ता पा लें इसके लिए देश का नुकसान नहीं किया जा सकता है।
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पीएम शिक्षा पर कुछ क्यों नहीं बोलते?

अच्छा होता कि पीएम मोदी अपनी ग़लतियाँ स्वीकार करते और पेपरलीक के विरोध में सड़क पर उतरे परीक्षार्थियों पर लाठियाँ चलाए जाने को लेकर बिहार के युवाओं से माफ़ी माँगते; मध्यप्रदेश के उन माँ-बाप से माफ़ी माँगते जिनके बच्चे बीजेपी सरकार की अनदेखी और संवेदनहीनता की वजह से नक़ली सीरप पीने से इस दुनिया में नहीं रहे, इसलिए भी माफ़ी माँगते कि मध्य प्रदेश में उनकी पार्टी पिछले 20 सालों से सत्ता में है और वहाँ के भ्रष्टाचार और दवाओं में मिलने वाले कमीशन ने 20 बच्चों को मार डाला। 

उन्हें रील के नशे से बाहर निकलकर ‘रीयल लाइफ’ में उतरना चाहिए जिससे बिहार समेत पूरे देश की पीड़ा और मजबूरी को समझा जा सके। चुनावी जीत किसी खास किस्म के ‘हुनर’ से संबद्ध हो सकती है लेकिन लोकतंत्र का संचालन एक प्रतिबद्धता है जो चुनाव, सत्ता और आत्ममुग्धता से आगे जाकर देश के लोगों के बारे में ही चिंतित रहती है, देश के लोगों की सेवा और समृद्धि के लिए नीतियां बनाती है इसके आलावा और कोई भटकाव नहीं करती।

नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं, उनकी आलोचना दायरे में रहकर ही की जा सकती है क्योंकि उनसे देश का सम्मान और प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। लेकिन क्या पीएम मोदी भी ऐसा ही सोच पा रहे हैं कि वो इस विशाल लोकतंत्र के प्रतिनिधि हैं और उनकी भाषा और देश को संबोधन कैसा होना चाहिए? 

देश के दलित मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंककर मारा जा रहा है और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष को छाती में गोली मारने की धमकी मिल रही है। रील से परे जाकर यह सोचिए कि जब देश में न न्याय सुरक्षित है और न ही विपक्ष की आवाज़, तब क्या इसे लोकतांत्रिक शासन कहा जायेगा? मुझे तो नहीं लगता।