17 अगस्त से राहुल गाँधी ‘वोटर अधिकार यात्रा’ कर रहे हैं और पूरे बिहार में घूम रहे हैं। यात्रा का उद्देश्य लोगों को यह बताना है कि ‘भारत निर्वाचन आयोग’ विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर के बहाने किस तरह लोगों के वोट के अधिकार को छीन रहा है, किस तरह तमाम प्रक्रियाओं की जटिलताओं में लोगों को फँसाकर, दस्तावेजों को आड़ बनाकर उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को छीना जा रहा है। स्वस्थ लोकतंत्र के नज़रिये से यात्रा बेहद महत्वपूर्ण है। लेकिन इतनी महत्वपूर्ण यात्रा को ना ही टीवी मीडिया जगह दे रहा है और न ही राष्ट्रीय अख़बार। विपक्ष के सबसे बड़े नेता, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की अगुआई वाली इस यात्रा को लगभग ‘ब्लैकआउट’ में तब्दील कर दिया गया है। वहीं दूसरी तरफ़ ‘मीडिया का पीएम मोदी प्रेम’ सनक के स्तर को पार कर चुका है। पीएम मोदी इन दिनों जापान की द्विपक्षीय यात्रा पर हैं। अख़बार जिस तरह पीएम की खबरों से रंगे हुए हैं उससे लग रहा है कि कई दशकों बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री जापान गया है। खबरें इस तरह लिखी जा रही हैं जैसे जापान यात्रा के बाद भारत संकटमुक्त हो जाएगा। लोगों को यह जानकारी होनी चाहिए कि मोदी अब तक 8 बार जापान की यात्रा कर चुके हैं। 

असलियत यह है कि जापान यात्रा का यह कवरेज इसलिए बढ़ाचढ़ाकर दिखाया जा रहा है जिससे लोगों को यह महसूस न होने पाए कि पीएम मोदी की विदेश नीति अब आपदाग्रस्त अवस्था में पहुँच चुकी है। यह सच्चाई अब सबके सामने है कि 2014 के बाद से अबतक पीएम मोदी ने विदेश नीति के नाम पर जो कुछ भी किया है; सभी, आपदा ही साबित हुए हैं। चीन और अमेरिका इसके सटीक उदाहरण हैं। पीएम मोदी की ट्रंप से ‘दोस्ती’ के भरोसे टिकी भारत की विदेश नीति औंधे मुँह गिर चुकी है। जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति भारत के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं, भारत को आर्थिक नुकसान पहुँचा रहे हैं उससे यह साफ़ हो चुका है कि पीएम मोदी का उनका व्यक्तिगत विदेश नीति का दृष्टिकोण एक फ्लॉप शो था। विदेश नीति का यह फ्लॉप शो अब नरेन्द्र मोदी की राजनीति को भी नुकसान पहुँचा रहा है। देश के लोग इस असलियत को आगामी चुनावों के अनुपात में ज़्यादा आत्मसात न कर लें इसके लिए मुख्यधारा की मीडिया को डयूटी पर लगा दिया गया है और मीडिया तरह तरह के हथकंडे अपना कर नरेंद्र मोदी की छवि को भाग्यविधाता बनाने की कोशिश में व्यस्त भी है।
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दरभंगा की सभा पर विवाद क्यों?

इन्हीं हथकंडों में से एक है एक सामान्य सी विदेश यात्रा को जबरन ‘ऐतिहासिक’ बनाकर पेश करना और देश के लोकतंत्र को स्वस्थ बनाये रखने वाले अभूतपूर्व प्रयास ‘वोटर अधिकार यात्रा’ को न सिर्फ़ मीडिया से गायब करना बल्कि अगर हो सके तो इसे बदनाम भी करना।

बदनामी के लिए एक उदाहरण दरभंगा जिले में एक सभा में से निकालकर सामने लाया गया जिसमें सभा ख़त्म होने के बाद, कुछ शरारती और असामाजिक तत्वों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर कुछ अपशब्दों का इस्तेमाल किया। भारत को लोकतंत्र के रूप में स्थापित हुए 75 सालों से भी अधिक का समय बीत चुका है। लेकिन भारत में लोगों ने राजनैतिक विरोधियों के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए यह नहीं सीखा। यह बदकिस्मती ही है कि कोई भारत के प्रधानमंत्री के विरुद्ध इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करे। लेकिन असली कहानी यह नहीं है कि पीएम और उनकी माँ का अपमान किया गया है। असली हिस्सा इसके बाद शुरू होता है। जिस व्यक्ति ने इस निम्नस्तरीय भाषा का इस्तेमाल किया उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, FIR दर्ज कर ली गई और एक अन्य व्यक्ति ने कई बार माफ़ी भी माँगी। लेकिन भारत के गृहमंत्री अमित शाह से लेकर तमाम भाजपा के नेता राहुल गांधी द्वारा माफ़ी की माँग कर रहे हैं। जबकि राहुल गांधी ने इन अपशब्दों का इस्तेमाल नहीं किया और उस वक्त वो मंच पर उपस्थित भी नहीं थे। इसलिए ऐसा लगता है कि यह मुद्दा अपशब्दों से कम, बिहार के चुनावी माहौल से ज़्यादा जुड़ा हुआ और प्रेरित लगता है।

मेरे विचार से यह सब ‘वोटर अधिकार यात्रा’ की लोकप्रियता से और विदेश नीति को लेकर हो रही किरकिरी से ध्यान हटाने के लिए उछाला गया लगता है। इस बात के समर्थन में फ़िलहाल कुछ तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं। पहला यह, कि क्या सचमुच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और बाक़ी बीजेपी और संघ के लिए किसी की माँ को अपमानित करना और गाली देना कोई महत्व रखता है? मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि यदि उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ पड़ता तो जब बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ला ने कांग्रेस के प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत की स्वर्गवासी माँ को आजतक चैनल के एक कार्यक्रम में पूरे देश के सामने गालियाँ दी थीं तब भी उन्हें फ़र्क़ पड़ता, मोदी जी को फ़र्क़ पड़ता, संघ नाराज होता और FIR नहीं तो कम से कम प्रेम शुक्ला को प्रवक्ता पद से हटाकर पार्टी से बाहर निकाल दिया जाता। लेकिन दुर्भाग्य देखिये, ऐसा कुछ नहीं हुआ कोई ऐक्शन नहीं लिया गया। प्रेम शुक्ला नाम के प्रवक्ता पार्टी में आज भी हैं और हर रोज़ बेशर्मी से पूरे देश के सामने बीजेपी का पक्ष रखने आते रहते हैं।

यहाँ एक सवाल भी उठता है कि पीएम मोदी की माँ और आम आदमी की माँ में फ़र्क़ क्यों किया जा रहा है? माँ किसी की भी हो, उसके साथ असभ्य शब्दों का इस्तेमाल क्यों किया जाना चाहिए?

चाहे रिज़वी (जिसने पीएम मोदी की माँ को अपमानित किया) हो या प्रेम शुक्ला दोनों के ख़िलाफ़ बराबर रोष होना चाहिए। एक आम आदमी की माँ अपमान योग्य है और उस माँ को गाली देने पर कोई कार्यवाही नहीं होनी चाहिए, यह एक घृणित सोच है। बीजेपी ने इसी घृणित सोच का परिचय दिया है और अब आज चुनावों पर निम्नस्तर की राजनीति करने के लिए इसे मुद्दा बनाना चाहते हैं। यह सब किसी माँ के लिए नहीं बल्कि एक राज्य की सत्ता को बनाये रखने के लिए किया जा रहा है।

बीजेपी के लोगों की गालियों का क्या?

मेरा सवाल है कि जो प्रधानमंत्री 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं, उनके राजनैतिक अभिभावक बनने की कोशिश में लगे रहते हैं, उनके दुख दर्द को बाँटने का दावा करते हैं, क्या यह संभव है कि उन्हें अपनी पार्टी के 25-30 राष्ट्रीय प्रवक्ताओं के आचरण की जानकारी ना हो? क्या आरएसएस जैसा बड़ा प्राइवेट संगठन जो करोड़ों में सदस्यता देने का दावा करता है, देश के हर कोने में अपनी उपस्थिति का दावा करता है उसे इतना भी नहीं पता कि उनके राजनैतिक विंग-बीजेपी-में एक प्रेम शुक्ला नाम के प्रवक्ता भी हैं जो विपक्षी पार्टी की माँ को डिबेट में घसीट कर ले आते हैं, अपमानित करते हैं और क्षमा तक नहीं माँगते? यह सब मानने का कोई कारण नहीं है। निश्चित ही बीजेपी, आरएसएस और सरकार में हर व्यक्ति इस बात से वाक़िफ़ है कि किस तरह प्रेम शुक्ला ने सुरेंद्र राजपूत की स्वर्गवासी माँ को नेशनल टेलीविज़न पर, 140 करोड़ देशवासियों के सामने इतनी गंदी गाली दी कि उसे यहाँ लिखा भी नहीं जा सकता है। क्या इस बात के लिए किसी ने माफ़ी माँगी? पीएम मोदी की सरकार के बचाव में, सरकार का पक्ष रखने आने वाले प्रेम शुक्ला की इस हरकत के लिए पीएम मोदी को सुरेंद्र राजपूत से माफ़ी माँगनी चाहिए थी और हमेशा के लिए प्रेम शुक्ला को पार्टी से बाहर निकाल देना चाहिए था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। असली बात तो यह है कि पीएम मोदी महिलाओं के अपमान पर हमेशा राजनैतिक ख़ामोशी में रहना पसंद करते हैं वही राजनैतिक काम उन्होंने इस मुद्दे पर भी किया। 
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यह बात भी सही है कि इन तमाम बातों के बावजूद रिज़वी जैसे लोगों का बचाव नहीं किया जा सकता है क्योंकि एक माँ को मिली गाली दूसरी माँ को मिली गाली को निरस्त नहीं करती बल्कि यह भारत की पितृसत्तात्मक मानसिकता में जड़ के रूप में उपस्थिति का जीता जागता सबूत है।

लेकिन भारत हमेशा से ऐसा नहीं था, कम से कम राष्ट्रीय राजनीति में आजतक कोई भी दल कभी भी इस स्तर पर नहीं गिरा कि उसके प्रवक्ता खुलेआम नेशनल टेलीविज़न पर दूसरे प्रवक्ता की माँ को गालियाँ देना शुरू कर दें। जैसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते थे कि ‘आचरण की सभ्यता मौन होती है’ और इन दिनों बीजेपी में एक आचरण मौन के रूप में फैलता हुआ नेताओं की योग्यता बन गया है। इस पार्टी के सर्वोच्च नेता जिस किस्म का आचरण करके, जिस किस्म की भाषा का इस्तेमाल करके देश के सर्वोच्च राजनैतिक पद तक पहुँचे हैं उससे यह संदेश चुपके से फ़ैल गया है कि बदतर भाषा का इस्तेमाल करके भी आप देश के सर्वोच्च पद को पा सकते हैं, ‘लोकप्रिय’ नेता बन सकते हैं।

महिलाओं के लिए कैसे-कैसे अपशब्द कहे गये?

गुजरात दंगों के बाद शुरू की गई, सितंबर, 2002 की गौरव यात्रा याद कीजिए, एक नेता द्वारा शरणार्थी शिविरों में रह रहे, देश के अल्पसंख्यकों के बारे में कहा गया कि “उनका परिवार नियोजन कार्यक्रम है- हम पाँच, हमारे पच्चीस” इसके अलावा अशिष्ट भाषा पर उतरते हुए नेता जी बोले कि “हम बच्चे पैदा करने के लिए राहत शिविर नहीं चलाना चाहते हैं”(टाइम्स ऑफ़ इंडिया)। यही नेता जी थे जिन्होंने 2012 में एक सम्मानित महिला, सुनंदा पुष्कर को ‘50 करोड़ की गर्लफ्रेंड’ कहा था (बीबीसी), खुले मंच से “ये कांग्रेस की कौन सी विधवा थी, जिसके खाते में रुपया जाता था” और ‘जर्सी गाय’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल और साथी महिला सांसद की हँसी को इशारे इशारे में राक्षसी हँसी से तुलना करने वाले नेता भी यही थे। जिस पार्टी के सर्वोच्च नेता का आचरण देश की प्रतिष्ठित महिलाओं के बारे में इतना अश्लील और असभ्य हो उसके प्रवक्ता ने अगर गाली दे भी दी तो कुछ नया नहीं हुआ। शायद इस पार्टी के यही संस्कार और यही मर्यादा है जिसका पालन वो करते चले आ रहे हैं।
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राहुल की बढ़ती लोकप्रियता वजह? 

इन उदाहरणों से यह तो तय है कि बिहार में जो कुछ मंच पर हुआ बीजेपी का निशाना उस पर नहीं है। वास्तव में बीजेपी का निशाना राहुल गांधी की बढ़ती लोकप्रियता और बिहार में सत्ता हाथ से निकल जाने के भय की वजह से इस बात को मुद्दा बनाया गया है। लेकिन यह 11 साल पुराना भारत नहीं है जहाँ लोग मात्र प्रचार के आधार पर एक ऐसे व्यक्ति को देश का नेता मान गए थे जो अपने प्रदेश को मानव विकास के तमाम संकेतकों (HDI) में डुबो चुका था, जिसका निर्माण ही कॉर्पोरेट शक्तियों द्वारा किया गया था, जिसका न ही कोई नैतिक आधार था और न ही समृद्ध भारतीय परंपरा से जुड़ा कोई वजूद। जो अपनी असफलताओं को महंगे आयोजनों और बिक चुके मीडिया के माध्यम से ढँकता रहा लेकिन अब न वो झूठा विश्वास बचा है और न ही इन महंगे आयोजनों की चमक दमक, अब 11 साल बाद खाली पेट और महंगाई से जूझ रहे बेरोजगार युवा भारत के मानसिक हालात को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त हैं।

भारत जिस दौर से गुज़र रहा है वहाँ लोकतंत्र बचाने के लिए देश का युवा राज्य दर राज्य सड़कों पर उतर रहा है और विपक्षी दलों के नेताओं को अपना समर्थन प्रदान कर रहा है और वह इस बात से अनभिज्ञ भी नहीं है कि उसके ‘वोट की चोरी’ हो सकती है, लोकतंत्र हथियाया जा सकता है प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर कब्ज़ा भी जमाया जा सकता है, मीडिया को पैसे से काबू में किया जा सकता है, देश की बड़ी संस्थाओं को डराया-धमकाया जा सकता है, फैसले बदलवाए जा सकते हैं, राजनैतिक अपराधियों के अपराधों के सबूतों को नष्ट किया जा सकता है और उसकी यही चेतना, वर्तमान सत्ता के लिए अस्तित्व का संकट बनी हुई है। इसलिए इस चेतना की वाहक ‘वोटर अधिकार यात्रा’ को बदनाम करने में सत्ता ने पूरी ताक़त झोंक दी है। लेकिन अफ़सोस! यह साफ़ दिख रहा है कि अब कोई भी साज़िश नाकाफ़ी है और नाकाम होकर रहेगी।