दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज के अध्यापक पर प्राचार्य कक्ष में सबके सामने हमला करनेवाली दीपिका झा को दो महीने के लिए निलंबित किया गया है। दीपका झा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की सदस्य और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की पदाधिकारी हैं। वे साधारण विद्यार्थी नहीं हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन के इस फ़ैसले के बाद परिसर में खामोशी है। लेकिन अध्यापकों के एक हिस्से में बेचैनी भी है।
बेचैनी इसलिए है कि कई अध्यापकों को यह लग रहा है कि प्रशासन ने ख़ानापूरी की है और दिखावे के लिए दीपिका झा को यह दंड दिया है। छात्र संघ से दो महीने के निलंबन का क्या अर्थ है? कहा जा रहा है कि जो अपराध दीपिका ने किया है, यह दंड उसके मुक़ाबले बहुत हल्का है। बल्कि अध्यापक के लिए यह अपमानजनक है।अपराध सिर्फ़ यह न था कि अध्यापक पर शारीरिक हमला किया गया। हमले के खबर फैल जाने के बाद दीपिका ने अपने हमले को जायज़ ठहराने के लिए अध्यापक पर जो आरोप लगाया, वह लगभग यौन दुराचार की श्रेणी में आता है।
इसके अलावा अध्यापक पर और भी आरोप लगाए गए। इस उम्मीद में कि उनकी ‘चारित्रिक दुर्बलता’ के चलते दीपिका के क्षणिक क्रोध को जायज़ ठहराया जा सकेगा।उन्होंने और छात्र संघ में उनके सहयोगी पदाधिकारी ने अध्यापक के चरित्र और उनके आचरण पर हमला किया। इस तरह शारीरिक हमले के अलावा खुलेआम चरित्र हनन का अपराध भी है। इसकी क्या सज़ा होनी चाहिए? दीपिका अखिल भारतीय छात्र संघ की सदस्य हैं। अध्यापकों में जो उनके प्रति सहानुभूतिशील हैं, उन्होंने भी अध्यापक के चरित्र हनन अभियान में हिस्सा लिया।क्या अध्यापक को उसके लिए अदालत जाना चाहिए?
मुझे इस हमले से कई दशक पहले दिल्ली से बहुत दूर एक शहर सीवान के डी ए वी कॉलेज की एक घटना याद आ गई।मेरे पिता वहाँ वनस्पति शास्त्र के अध्यापक थे। उनपर शहाबुद्दीन के गुंडों ने कॉलेज परिसर में हमला किया। हमले के पीछे की कहानी लंबी है और यहाँ प्रासंगिक नहीं।प्रासंगिक यह है कि हमला कॉलेज के परिसर में किया गया था। प्रशासन ने मेरे पिता को किसी भी प्रकार की सहायता देने से इनकार कर दिया था। प्राथमिक उपचार तक नहीं। पुलिस ने इस अपराध की रिपोर्ट करने से भी कॉलेज ने मना कर दिया। दीपिका के हमले के बाद भी प्रशासन ने कोई पुलिस रिपोर्ट नहीं लिखवाई।
दोनों हमलों ने फ़र्क है। मेरे पिता के सर पर पिस्तौल की मूठ से वार किया गया था। इरादा उनकी हत्या का नहीं था।उन्हें गहरा घाव लगा और खून से कपड़े भीग गए थे। यहाँ कोई खून नहीं बहा है। सिर्फ़ हाथ ही तो उठा है। अध्यापक को कोई शारीरिक क्षति नहीं हुई है। फिर इसके लिए कितनी सज़ा होनी चाहिए?
इस तरह की स्थिति में अध्यापकों के भीतर नैतिक दुविधा पैदा हो जाती है।क्या वे इतने क्रूर हैं कि विद्यार्थियों पर पुलिस रिपोर्ट लिखवाएँ ? क्या विद्यार्थी उनके बराबर हैं ? क्या वे विद्यार्थियों को उनकी भूल के लिए दंडित करना चाहेंगे? क्या वे उनके करियर को नष्ट करना चाहेंगे? क्या दीपका रियायत की हक़दार नहीं हैं?
सारे प्रश्न वाजिब हैं। शायद ही कोई अध्यापक किसी विद्यार्थी को पुलिस के हवाले करने के पक्ष में हो। अपेक्षा यह होगी कि वह अपने कृत्य के बारे में सोच सके और उसके भीतर की हिंसा का उपचार किया जा सके। वह दंडात्मक प्रक्रिया से न होगा।
दंड के कारण दंडित व्यक्ति में आत्मावलोकन की प्रक्रिया शुरू होने की गुंजाइश बहुत कम है। विश्वविद्यालय से उम्मीद यही होती है कि वह विद्यार्थियों को अपनी समीक्षा करने के साधन दे सकें। क्या दंड वह कर सकेगा?
यह बात ठीक है। लेकिन इस विशेष प्रसंग में पूछा जा सकता है कि क्या यह विद्यार्थी और अध्यापक के बीच का मामला है। दीपिका उन अध्यापक की छात्रा नहीं हैं। उस कॉलेज की भी नहीं। दूसरे, उनकी ताक़त अध्यापक से अधिक है। वे छात्र संघ की पदाधिकारी हैं। आज के शासक दल के छात्र संघ से संबद्धता उन्हें एक अतिरिक्त ताक़त देती है। कॉलेज और विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनके प्रति जो रियायत दिखलाई, वह इसी संबद्धता का नतीजा है, ऐसा अध्यापक मानते हैं। इस मामले में अध्यापक की ताक़त छात्रा के मुक़ाबले कहीं कम है।
पुलिस रिपोर्ट या दूसरी सख़्त अनुशासनात्मक कार्रवाई हो न हो, विश्वविद्यालय प्रशासन की तरफ़ से यह बतलाना ज़रूरी था कि इस तरह का कृत्य अस्वीकार्य है।वह किस तरह किया जा सकेगा? प्रशासन की तरफ़ से जो संकेत दिया गया, वह आश्वस्त नहीं करता। लेकिन उससे अधिक विचलित करनेवाली बात है, इस प्रसंग में अध्यापकों के बीच का विभाजन। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध अध्यापक शायद मानते हैं कि यह उतना गंभीर मसला नहीं है।इसे अपराध कहना भी अतिशयोक्ति है! अन्य अध्यापक कुढ़कर रह जाने के अलावा और क्या कर सकते हैं?
शिक्षक संघ ने औपचारिक तौर पर नाराज़गी जतलाई और विरोध दिखलाया। लेकिन अनेक अध्यापकों का ख़याल है कि चूँकि शिक्षक संघ के नेतृत्व की विचारधारात्मक निकटता अभी के छात्र संघ के नेतृत्व से है, वह इस मामले में तकल्लुफ़ से आगे नहीं बढ़ेगा। इस सबसे परिसर में एक अस्वस्तिकर वातावरण बन गया है।मुझे फिर डी ए वी कॉलेज की याद आ गई।उस समय भी बिहार के शिक्षक संघ ने कॉलेज के अध्यापकों के साथ हिंसा पर कोई दृढ़ रुख़ नहीं अपनाया था। मेरे पिता पर हमले के बाद कॉलेज डेढ़ महीने तक बंद रहा। लेकिन उसके बाद कॉलेज पहले की तरह नहीं रह गया।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हृदय में कोई हलचल हो, इसका कोई संकेत नहीं।